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एक दार्शनिक समस्या और समाधान

मुक्ति के लिए लोक को हर काल और स्थान पर अपने ज्ञान पर आस्था बनानी पड़ती है। नास्तिकता एक बौद्धिक पंथ है, जो आस्था का ही अनादर करती है। इस कारण पंथ की समस्या बरकरार ही रहती है और रंग में भंग डालने के लिए नास्तिकों का एक अलग पंथ चला आता है। महफ़िल खूब सजती है, सबको मज़ा भी खूब आता है। कब रंगों की होली, खून की होली में बदल जाती है? इतने शोर-शराबे में किसी को पता भी नहीं चलता। जब पता चलता है, तब लोक अपनी भावनात्मक और तार्किक व्यथा व्यक्त करता है। सामाजिक समस्या में मौजूद जो दर्शन है, उसे देखने की कोई कोशिश ही नहीं करता है। इहलोक और इस तंत्र में हम अपने-अपने पद, प्रतिष्ठा और पैसे का मज़े तो ले लेते हैं, पर कभी आनंद किसी को नहीं मिलता। इसलिए, कोई ज्ञान को नहीं पूछता, इहलोक अपनी ही मस्ती की अज्ञानता में मूर्तियों और प्रतीकों के पीछे भागा जा रहा है।

चेतना की मुक्ति का रास्ता तो ज्ञान से खुलता है, पर इहलोक में तो तंत्र ने शिक्षा के दरवाज़ों पर ही चौकीदार खड़े कर रखे हैं। जब वर्ण-व्यवस्था थी, तब उसे अपने स्वार्थ के लिए, तंत्र ने जाति-प्रथा में बदलने के लिए भी कई चौकीदार रख लिए थे। जिसके कारण वंशवाद का जन्म हुआ था। ज्ञान के लिए मेहनत करनी पड़ती है। बिना पसीना बहाए, कोई ज़मींदार अपनी फसल का आनंद कैसे ले सकता है? किसी के हक़ के पैसे का सुख तो वह भोग लेगा, पर गरीब किसानों का सुख वह कैसे भोग पाएगा? इसी सुख की पूर्ति के लिए वह होम-हवन करवाता है, जिसमें इन गरीब किसानों से ही चंदा भी वसूल किया जाता है। फिर ऊपर से अपने पाप का हिस्सा चढ़ाकर, हर ज़मींदार को भ्रम होता है कि वह ब्राह्मणों को रोज़गार देकर पुण्य कमा रहा है। होता जाता कुछ है नहीं, पर इहलोक थोड़ा और कंगाल हुआ चला जाता है। लोक इधर धर्म के नाम पर चंदा दे चुका है, उधर शिक्षा के नाम पर फ़ीस भी दिये चला जा रहा है। उसके बाद इन सब पर वह टैक्स अलग से भरता है, और टैक्स-रिटर्न के नाम पर चंदा वाला पैसा उसके पास वापस आ जाता है। लोक नुक़सान में जा रहा है। उसका अर्थ और शास्त्र दोनों हिला हुआ है, पर लोक महँगे से महँगे स्कूल-कॉलेजों की क़तार में लगा जा रहा है।

ज्ञान स्कूल-कॉलेजों में नहीं मिलता है। वहाँ विद्या मिलती है, जिसे अपनी भक्ति और ज्ञान के रास्ते हमें अपने कर्मों में उतारना पड़ता है, तब जाकर कहीं आनंद की क्षणिक अनुभूति का ज्ञान होता है। चेतना का विस्तार करना पड़ता है, जिसके लिए दर्शन की ज़रूरत पड़ती है। यह दर्शन सिर्फ़ आध्यात्मिक नहीं होता है। दर्शन तो विज्ञान का भी हिस्सा होता है। अगर कभी किसी ने उड़ने की कल्पना चिड़िया के प्रत्यक्ष से नहीं लगायी होती, तो किसी ने हवाई-जहाज़ भी नहीं बनाया होता। उसकी रूप-रेखा का अनुमान और कौन-सा जीवन लगा पा रहा है? नयी उड़ान भरने के लिए कल्पना लगती है, जिसके आधार पर कोई अनुमान लगता है, उस अनुमान के लिए वह कुछ उपमान तलाशता है, फिर तर्क लगता है, अपने तर्कों के लिए प्रमाण भी बनाता है। तब जाकर जो प्रत्यक्ष सामने आता है, वह हमारे सच का हिस्सा बनता है, जिससे हम सत्य के क़रीब पहुँच पाते हैं। सिर्फ़, सृजन और रचना में ही इस आनंद की गुंजाइश है। पाश्चात्य दर्शन में प्रत्यक्षवाद की यही तो मंशा थी कि दर्शन को धार्मिक पंथों के पाखंड से आज़ाद कर मौलिक ज्ञान-पंथों पर आधार दे सके, पर हम अपनी अकर्मण्यता के कारण धार्मिक पंथों की ग़ुलामी खटते चले जा रहे हैं। भारत में लोक अभी तक अपने ही प्रत्यक्ष का सामना करने में असमर्थ है। तभी तो इहलोक में हमारे बच्चे इतने दुखी हैं कि ख़ुदख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी तलाश रहे हैं या किसी और की इज्जत को अपने मनोरंजन का साधन बनाने पर उतारू हैं, वरना किसी की बेटी समाज पर बोझ क्यों होती? लोक को दर्शन चाहिए, भक्ति या अंधभक्ति नहीं! क्या इहलोक इतना नहीं समझता है? अगर समझता है, तो तंत्र में ज़रूरी परिवर्तन क्यों नहीं करता है? या लोक को अपनी समस्या का कोई ज्ञान ही नहीं है?

दर्शन में तत्व-मीमांसा की सबसे बड़ी समस्या आत्मा या परमात्मा को परिभाषित करना है। इस समस्या का अनुमान के अनुसार निवारण किया गया है। भारतीय और पाश्चात्य दर्शन कमोबेश एक ही नतीजे पर पहुँचा है। ब्रह्म या ऐब्सलूट की परिभाषा लगभग एक जैसी ही है। पर यहाँ पहुँचकर पाश्चात्य दर्शन में प्रत्यक्षवाद के ज़रिए तत्व-मीमांसा का ही खंडन कर दिया गया था। 1924 में आयी इस वैचारिक क्रांति की शुरुआत बहुत पहले ही ‘फ्रेडरिक नीत्शे’ ने कर दी थी, जब उन्होंने कहा - “God is dead”, मतलब ईश्वर मर चुका है। इसके पीछे उन्होंने कई तर्क भी दिया, जिनका प्रमाण इतिहास के पन्नों में मिलता है। उनके बाद जार्ज विलहेम फ्रेड्रिक हेगेल आये, जिन्होंने इतिहास के बारे में कई बड़े खुलासे किए, उनमें से सबसे प्रमुख था - “The only thing that we learn from history is that we learn nothing from history.”, मतलब इतिहास से हम सिर्फ़ इतना ही सीखते हैं कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा है। प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत जब 1924 में तार्किक प्रत्यक्षवाद की स्थापना के लिए कई क्षेत्र के विशेषज्ञों ने एक साथ मिलकर ‘वियना सर्किल’ का गठन किया था, तब समाज को एक नयी दिशा मिली। इसके बाद भी वैश्विक समाज दूसरे विश्व-युद्ध को रोक नहीं पाया, हिटलर के आतंक के कारण पाश्चात्य दुनिया को यक़ीन हो गया कि भगवान या गॉड उनके लिए अपने प्रत्यक्ष और ज्ञान से ज़्यादा ज़रूरी नहीं हैं। लड़-झगड़कर समाज ने धर्म के नाम पर जो पंथ सक्रिय थे, उनको सीमित कर दिया। आज पाश्चात्य राजनीति और समाज में धर्म कोई अहम राजनैतिक मुद्दा नहीं बच गया है। वहाँ राजनीति और समाज अपने प्रत्यक्ष पर विचार-विमर्श कर रहा है। 

इधर चीन और जापान ने भी बुद्ध धर्म की छत्रछाया में किसी तरह धार्मिक सद्भाव क़ायम कर लिया। बुद्ध को भारत से देश-निकाला दे दिया गया और सनातन धर्म के नाम पर हिंदू पंथ और इस्लाम धर्म के अनुयायी मुस्लिम भाइयों ने अपने धार्मिक स्वार्थ के लिए ना जाने ख़ुद पर कितना अत्याचार किया, इसका सटीक अनुमान लगाना संभव नहीं है। विभाजन के धार्मिक दंश के बाद भी हमने इतिहास से प्रेरणा लेने से इनकार कर दिया, हम तो आज भी ग़दर मचाये हुए हैं। धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिक दंगे, हिंसा, पाखंड का विस्तार और राजनीति में धार्मिक हस्तक्षेप इस बात का ज्वलंत उदाहरण है। यहाँ अगर हमने गलती से भी कह दिया कि राम मर चुके हैं, या अल्लाह का कोई अस्तित्व ही नहीं है, तो एक नया दंगा शुरू हो जाएगा। 

आज 2023 में भी हम पाश्चात्य विचारधारा से लगभग 100 साल पीछे हैं। वहाँ से धर्म ख़त्म नहीं हुआ है, यहाँ तो बस लोक ने गॉड से डरना कम कर दिया है। धर्म चर्च, घरों और व्यक्ति-विशेष तक सीमित रह गया है, क्योंकि तार्किक प्रत्यक्षवाद के आधार पर तत्व-मीमांसा का ही अंत निर्धारित कर दिया गया है। तत्व-मीमांसा धर्म के उन तीन स्तंभों में सबसे मज़बूत स्तंभ है, जिस पर किसी पंथ की इमारत खड़ी होती है। इसके कमजोर हो जाने पर पंथ भी कमजोर हो गया, साथ ही मिथक और कर्मकांड कम हो गये। भारतीय दर्शन जो बहुत पहले ही इन निष्कर्षों पर पहुँच चुका था, कहीं-न-कहीं कई पाश्चात्य दार्शनिकों ने इन तथ्यों को समझते हुए दर्शन को एक नयी दिशा दी। पर भारतीय समाज यह नहीं कर पाया, इसलिए तो सोने की चिड़िया अज्ञानता के पिंजड़े में क़ैद है और हम विश्व-गुरु होने का पाखंड करने में व्यस्त हैं। हम विश्व-गुरु इसलिए थे, क्योंकि लगभग हर देश की सामाजिक और राजनीति में हमारे दर्शन की छाप नज़र आती है। बुद्ध इसी बिहार की धरती पर ज्ञान की तलाश कर रहे थे, जो आज कई देशों का मुख्य धर्म है। ईसाई धर्म में भी सनातन दर्शन की एक अमिट पहचान है, जिसे नकारने की किसी ने कोशिश भी नहीं की है। 

Happiness

विभाजन और धार्मिक कट्टरता ने हिंदू और मुस्लिम पंथ या संप्रदाय के बीच विचारों के आदान-प्रदान का रास्ता बंद कर दिया था। वह रास्ता आज भी बाधित है। जिसके कारण आज भी हम विकाशील देशों की गिनती में ही शामिल है। विकसित नहीं हो पाये। अभी भी यह समाज और शिक्षा-व्यवस्था लोक-समृद्धि की तरफ़ कदम बढ़ाते नज़र नहीं आती है। पता नहीं कौन-सा भ्रम है? कैसा संशय है? शिक्षा, ज्ञान, रचना, सृजन, आनंद आदि पर कोई चर्चा भी नहीं करता है। नंबर और नौकरी की दौड़ में सब बौखाये भागते जा रहे हैं। यह सामाजिक पागलपन कब शांत होगा?

जब हमें आज़ादी मिल रही थी, जापान पर एटम बम गिरा दिया गया। जिसकी त्रासदी से उभरने का प्रयास कर रहा था, जब हमें अपना लोकतंत्र बनाने का मौक़ा मिल रहा था। आज़ादी की ख़ुशी में लोक वैसे ही पगला गया, जैसे आज पगलाये घूम रहा है। आज हम बाक़ी देशों की तुलना में कहाँ हैं? इसका अंदाज़ा हम आज की वैश्विक सामाजिक संरचना के आधार पर प्रमाण इकत्रित करते हुए, आसानी के लगा सकते हैं। उदाहरण के लिए, हम पिछले साल तक ख़ुशियों के अकड़ों के अनुसार विश्व के सिर्फ़ दस देशों से आगे थे, 136वें स्थान पर हैं। यहाँ तक की विभाजन में अलग हुए हमारे भाई-बहन हमसे ज़्यादा खुश हैं। क्या आपको अंदाज़ा है कि इसका क्या कारण रहा होगा?

आज समाज ने इसका कारण अपनी भावनाओं में ढूँढ लिया है। हमें लगता है कि हिंदू राष्ट्र की स्थापना से सांप्रदायिक सद्भाव क़ायम हो जाएगा और हम खुश हो जाएँगे। हिंदू राष्ट्र के लिए हम राजनैतिक और सामाजिक स्तर पर काफ़ी संघर्ष कर रहे हैं। देश वही खुश है, जहां ज्ञान का वर्चस्व है। मेरे अनुमान और तर्कों पर आँख बंद करके भरोसा मत कीजिएगा, आप अपने शोध कीजिएगा और अपना अनुमान लगाइयेगा। मैं तो बस आपकी मदद कर रहा हूँ, देखिए ख़ुशियों के आँकड़े और साक्षरता के गणित में कितनी लयात्मकता है। सबसे सुखी देशों में साक्षरता लगभग सौ फ़ीसदी है। वहीं भारत की हालत भी देख सकते हैं, साक्षरता का सीधा संबंध शिक्षा-व्यवस्था से है। ज्ञान की गुणवत्ता को छोड़िये, यहाँ तो हालत यह है की 2023 में भी भारत की साक्षरता मुस्किल से 77% की है। जहां साक्षरता ही नहीं पहुँच पायी है, वहाँ ज्ञान कैसे पहुँचेगा? क्या ज्ञान हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के लिए ज़रूरी नहीं है?

Literacy

मुझे तो ज़रूरी लगता है, अपने और अपने बच्चों के लिए, क्योंकि ज्ञान ही आनंद का इकलौता मार्ग है। दर्शन की दूसरी सबसे बड़ी समस्या नैतिकता से संबंधित है। जिसके लिए नीतिशास्त्र का विकास हुआ है। नैतिक जीवन ही मुक्ति का रास्ता है। भारतीय सभ्यता में मोक्ष पर अत्याधिक ज़ोर दिया गया है। पुरुषार्थ की अवधारणा में धर्म को सबसे पहले और मोक्ष को आख़िर में रखा गया है, बीच में अर्थ और काम आते हैं। वैसे तो भारतीय दर्शन में मुक्ति से मुख्यतः 3 रास्ते दिखाए गये हैं - कर्म मार्ग, ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग, किसी एक पर ईमानदारी से चलकर हम मुक्त हो सकते हैं। पर हमारी अज्ञानता ने पुरुषार्थ को ही पाखंड बना दिया है। राम को पुरुषोत्तम मानकर हम मंदिर बनवा रहे हैं कि भक्ति मार्ग पर हमें मुक्ति मिले। पर अज्ञान भक्ति और अज्ञानता से प्रभावित कर्म हमें मोक्ष नहीं दे सकता है। इसलिए राज-मार्ग की अवधारणा का प्रस्ताव भी यहाँ दार्शनिकों ने समाज के सामने रखा, पर हमें अपनी अज्ञानता में ही सुख मिलता है। मेहनत करने के लिए हमें फ़ुरसत कहाँ है? सभ्यता और संस्कृति के नाम पर हम जिस पाखंड का साथ दे रहे हैं, हमारे ही बच्चों के लिए हानिकारक है। पता नहीं इतनी छोटी सी बात आप लोगों की समझ में क्यों नहीं आती है? क्या अब भी आपको शिक्षा-क्रांति की ज़रूरत समझ नहीं आयी है? 

मेरी प्रमुख दार्शनिक समस्या वही है, जो आदिकाल के दार्शनिकों के सामने भी थी - ज्ञान की समस्या! अज्ञानता में लिप्त भारतीय समाज और राजनीति को देखकर मेरी चेतना आहत है। इसलिए, तो मैंने ज्ञान को समझने-समझाने का बीड़ा उठाया है।

ज्ञान किसी भी मानव-सभ्यता के विकास-क्रम में दर्शन से शुरू होते हुए, आज भी वहीं से होता है। पर आज ज्ञान से ज़्यादा सूचनाओं की दुनिया चल रही है। दर्शन से शुरू होते हुए ज्ञान विभिन्न विधाओं में बाँटता चला गया है। जहां से नये-नये पंथ शुरू होते चले जाते हैं। आज विज्ञान का पंथ काफ़ी विकसित हो चुका है। पर, ज्ञान पर होती चर्चाओं का शायद ही मैं कभी अपने पूरे अकादमिक जीवन में साक्षी बन पाया। जब से शिक्षा-व्यवस्था से जुड़ा हूँ, सबको मेरे नंबरों और नौकरी की चिंता करते ही देख रहा हूँ। इंजीनियरिंग और बिज़नेस मैनेजमेंट पढ़कर लगा कि मैं भी शिक्षित हो गया हूँ। पर जब रोज़गार शुरू हुआ है, तब लगा की मैं तो जीना ही भूल चुका हूँ। आस-पड़ोस में भी यही अज्ञानता नज़र आयी। इसलिए, जीवन के अर्थों को समझने के लिए मैं दर्शन की शरण में आया, तब एहसास हुए कि आज तो समाज में शिक्षक तक अशिक्षित रह गये हैं, ज्ञान की बातें करेगा कौन? यहाँ तो दो-वक़्त की रोटी के बाद भी ज़रूरतों का बड़ा बाज़ार खुला है, जिसको पूरा कर पाना तो शायद कुबेर के अन्नत धन से भी संभव नहीं है।

जब मैंने दर्शनशास्त्र की पढ़ाई शुरू की थी, तब मुझे दर्शन के इन मुख्य भेदों - ज्ञानमीमांसा, तत्वमीमांसा, नीतिमीमांसा, सौंदर्यशास्त्र और तर्कशास्त्र के बारे में पता चला। एक अच्छा विद्यार्थी होते हुए भी आज तक सौंदर्यशास्त्र पर कोई अच्छी किताब नहीं पढ़ पाया हूँ, स्नातकोत्तर में भी इसका ज़िक्र तक नहीं हुआ। इसलिए तो मैंने “अभिव्यक्तिशास्त्र” की कल्पना की है। शिक्षा-तंत्र की हालत देखकर अफ़सोस तो हुआ पर कर भी क्या सकता था? कुछ उम्मीदें पिताजी से लगाकर बैठा था, पर तंत्र और शिक्षक-समाज ने उन्हें ही निराश और मुझे नाउम्मीद कर दिया। मैं तो ज़्यादा से ज़्यादा सृजन कर सकता हूँ, सौंदर्यशास्त्र पर कम ही किताबें मिलती हैं, यहाँ कुछ नया और मौलिक लिख पाने की संभावना तो है। चिंता तो इस बात की है कि कोई पढ़ेगा भी या नहीं? क्योंकि, यहाँ तो हालत ऐसी थी कि दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी भी नक़ल उतारकर नीतिमीमांसा या नीतिशास्त्र की परीक्षा दे रहे थे। फिर भी मैं कोशिश तो कर ही सकता हूँ। वही करूँगा। यहाँ तो जिसे देखो वह बस तत्व की बातें ही करता था, उन तत्वों में सबसे प्रमुख तत्व गणित वाला काल्पनिक नंबर ही था। ज्ञान पर तो चर्चा करने से कुछ शिक्षक भी घबराते नज़र आते थे। कक्षा में अपने नोट्स लेकर आते थे, छात्रों को लिखवाते थे, फिर यही ज्ञान देते थे - “इतना पढ़ लेना, इसी से परीक्षा में सवाल आयेंगे!” तर्क के नाम पर मेरी थोड़ी बहस भी हुई, पर कोई अनुमान तक नहीं लगा पाया, किसी को ज्ञान कैसे मिलता?

दर्शन में हर समस्या का समाधान मिल सकता है। ना भी मिले पर ज्ञान को परिभाषित करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है। पर यहाँ ज्ञान की बातें करने वाला कोई बचा ही कहाँ है? जिस समाज में विद्या ही नीलाम हो रही हो, वह लोक ज्ञान पर चर्चा भी कैसे करेगा? जहां राजनीति और कूटनीति का अंतर ही ख़त्म हो चुका हो, वहाँ नैतिकता पर बहस कौन करेगा? सौंदर्य और कामुकता का अंतर जब मिट जाये, तो तत्व के नाम पर ब्रह्म कैसे समझ में आएगा? जब स्मृतियों, भावनाओं, संशय और भ्रम को स्थापित करने के लिए ही लोक प्रमाण ढूढ़ रहा है, तो तंत्र को ईमानदारी कौन सिखाएगा?

मैं त्रस्त आ चुका हूँ, इस समाज से जो अज्ञानता में आनंद तलाश रहा है और भ्रम में ज्ञान ढूँढ रहा है। जब तक बात सिर्फ़ मुझ तक थी, मैं शांत था, पर अपनी बेटी और आने वाले जीवन के लिए मैं चुप नहीं बैठा रह सकता हूँ। जितना ज्ञान अर्जित किया हूँ, उस आधार पर एक बेहतर लोक की कल्पना तो कर ही सकता हूँ। साहित्य तो मुझे विरासत में मिला है, उसके दम पर अपना दर्शन आपको भी दिखा तो सकता हूँ। यही दिखाना तो मेरी दार्शिनिक समस्या है। इस उम्मीद में कि अगर मेरे दर्शन के सौंदर्य से आप प्रभावित हो पाये, तो तत्वों और नैतिक मूल्यों में कुछ परिवर्तन तो हम सब मिलकर ला ही सकते हैं। लोक का जीवन मुक्त होगा, तभी तो मुझे भी मुक्ति मिलेगी, महायान की भी तो यही परिभाषा है। इसी मुक्ति की तलाश में ही तो मैं अपने वर्तमान में अपने भविष्य से संघर्ष कर रहा हूँ।

आइये! अब वह वक़्त आ ही गया है, जब मैं आपको वो बग़ावत का क़िस्सा सुनाऊँगा, जिसको लिखने लगभग दो हफ़्तों से बैठा हूँ। लगभग 90,000 शब्द लिख चुका हूँ, मैं आपको अपने संघर्ष का औचित्य समझाने के लिए, अब तो मैं ख़ुद को लेखक मान ही सकता हूँ। अपने इस अनुमान के लिए अब मैंने उचित तर्क और उन तर्कों के लिए प्रयाप्त प्रमाण जुटा लिए हैं। शायद कल से बग़ावत का यह क़िस्सा आपको भी सुनाऊँगा, अब आप भी आराम कर लीजिए, मैं भी थोड़ा सुस्ता लेता हूँ। अभी तो मेरी कलम को बहुत दूर जाना है, अभी तो इसने चलना शुरू ही किया है। हाँ! जब समस्या अज्ञानता से है, तो समाधान तो ज्ञान से मिल सकता है। शुभ रात्रि!

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.