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मेरी व्यक्तिगत समस्यायें

व्यक्तिगत स्तर पर हम ख़ुद अपने लिए सबसे बड़ी समस्या हैं। संभवतः, इंसान ही इकलौता ऐसा जानवर है, जो ख़ुद की ख़ुशी के लिए अपने ही जान जोखिम में डालता रहता है, कई बार तो वह सफल भी हो जाता है। कुछ नालायक हैं, जो इतना भी नहीं कर पाते। इसलिए, मेरे हिसाब से हमारे लिए दुनिया में सबसे ज़्यादा ज़रूरी ख़ुद की ज़रूरत को समझना है। परंतु, किसी अन्य जीव-जंतु या जीवन की तरह हम अपनी सारी ज़रूरतें ख़ुद पूरा नहीं कर सकते हैं। वनस्पति या पशु जीवन को हमारी ज़रूरत नहीं है, पर हमें हर प्रकार के जीवन की ज़रूरत जान पड़ती है। आख़िर ख़ाना जो आवश्यक त्रय का हिस्सा है, जिसकी पूर्ति तो अन्य जीवन के स्रोतों से ही हमें प्राप्त होती हैं, चाहे हम शाकाहारी हों, या मांसाहारी। अंतर तो सिर्फ़ भावनात्मक स्तर पर होता है, जो Mid-Brain पर आधारित है। आवश्यक त्रय से जुड़ी हर संभावनाओं के लिए हमारा Old-Brain सक्रिय होता है, जिसके अन्तर्गत ख़ाना, संभोग और ख़तरा आता है। इन्हीं तीन पयमानों पर मैं अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को समझने की कोशिश करूँगा।

 

1॰ ख़ाना: मेरे पास फ़िलहाल कोई रोज़गार नहीं है, मतलब आय का कोई साधन नहीं है। अभी तक इसका इंतज़ाम मेरे माता-पिता करते आये हैं। पैंतीस साल की उम्र पूरी हो चुकी है, अब तो समाज, परिवार और दोस्तों को भी मेरी बेरोज़गारी खटकने लगी है। मुझे भी थोड़ी शर्म तो आती ही है। हाल ही में मेरा जो मित्र मुझसे इंजीनियरिंग के दौरान पढ़ता था, उसने मुझसे पूछा था कि क्या मुझे अपने बाप से अपनी बेटी का चड्डी और डायपर तक ख़रीदने का पैसा माँगने में शर्म नहीं आती? मैं उसे क्या उत्तर देता? समाज की ऐसी ही तो सोच है। उसने कुछ नया तो नहीं कहा था। आज वह अमेरिका में नौकरी करता है। ख़ुद को सफल भी मानता होगा। अभी तक अविवाहित है। उसके पास पैसे हैं, पर उसकी माँ यहीं भारत में रहती है। पिता गुजर चुके हैं, बड़ी बहन की शादी हो चुकी है। वह हर बार जब मुझे कॉल करता है, मुझे खरी-खोटी सुनाता है। उसके बाद अपने तमाम बॉस और मित्रों की चुग़ली करता है। उसे सबसे शिकायत है। मेरे पास बेटी है, माँ है, पिता हैं, एक पत्नी है। मैं नौकर बनने से पहले एक अच्छा बेटा, एक नेक पति और एक ईमानदार पिता बनना चाहता हूँ। सिर्फ़ अच्छी नौकरी और पैसों से मेरे जीवन को अर्थ नहीं मिल जाता है।

कुछ समय के लिए मैंने नौकरी या व्यवसाय करने की कोशिश भी की, पर हर जगह असफलता मिली, जिनकी समीक्षा मैं पिछले अध्याय में कर चुका हूँ। आगे भी करता रहूँगा, यही तो मेरे ज्ञान का स्रोत है, जिसका अनुभव मैं कर चुका हूँ, कर रहा हूँ, या आगे करने का मौक़ा भी मिलेगा, जिसके अनुमान लगाने का यह एक ईमानदार प्रयास ही तो है। नौकर तो अंततः नौकर ही होता है, चाहे वह सबसे ऊँचे पद पर विराजमान क्यों ना हो! उसे आज़ादी कहाँ है? हर दिन एक जैसा ही होता है। उसी में किसी तरह उसका जीवनयापन हो रहा है।  

मुझे अपने जीवन में हर क्षण कुछ नया चाहिए। नया तो इस दुनिया में कुछ है नहीं, पर अनुभव के स्तर पर इसकी अपेक्षा ही तो हमारे जीवन को अर्थ देती है। लेखन की दुनिया में वैचारिक नयापन महसूस तो हो रहा है, पर इस ज़रिए से आमदनी निश्चित नज़र नहीं आती है। यह मेरी तीसरी किताब है, शायद ही किसी ने मेरी अन्य किताबें को पढ़ा होगा। वैसे भी पहली कुछ रचनायें तो लेखक ख़ुद के लिए ही लिखता है। इस किताब को शुरू करने से पहले, मैं एक यात्रा-वृतांत लिखने की कोशिश कर रहा था। उसके हिस्से भी इसी अध्याय के अंत में जोड़ दिये हैं। 

यह एक समस्या है, जो मुझे अंदर से सताये जा रही है। आख़िर, आज के समय में ख़ाना और उसकी गुणवत्ता तो हमारे आय पर ही निर्भर करती है। बाक़ी सांसारिक सुख-सुविधाओं का फ़ैसला भी हमारा रोज़गार ही करता है।

 

2॰ संभोग: इस क्षेत्र में मैंने अपने अतीत में कई कठिनाइयों का सामना किया था। जिसका ब्योरा मैं दे चुका हूँ। बाप बन जाने के बाद मेरी कई सारी समस्याएँ स्वतः सुलझ गई। पर पुरुष-प्रधान समाज में अपने परिवार का भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी भी मेरी ही है। इसलिए, संभोग-जन्य कुछ समस्याओं का मैं अभी भी भुक्तभोगी हूँ। 

ना मुझे, ना ही मेरी पत्नी एक ही बच्चे को पालने का इरादा है। भले, आज हम दोनों बेरोज़गार हों, पर हम दोनों ही किसान परिवार से आते हैं, कुछ नहीं तो हम अपनी मेहनत और ज़मीन से खाने का जुगाड़ तो कर ही लेंगे। मेरा ज़मीन से सीधा रिश्ता तो नहीं रहा है, पर मेहनत करने की क्षमता है। साथ ही मैं तो शिक्षक परिवार से जुड़ा रहा हूँ, इसलिए मेरी कलम तो चलती ही रहेगी। मेरी पत्नी भी बहुत नेक और मज़बूत इरादों वाली व्यक्ति है। जब हमारा पहला बच्चा हुआ था, हमारी बेटी हुई थी, उसका ऑपरेशन हुआ था, जिसके टांकों में संक्रमण होने के कारण इन टांकों को खोलकर वापस लगाना पड़ा था। इस दशा में भी बीएड की परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय के स्तर पर उसने सबसे ज़्यादा अंक लाये थे। कोई बिरला ही यह काम कर सकता है। उसके बाद दूसरे साल में भी वह पूरे विश्वविद्यालय में अव्वल आयी थी। कोई मामूली बात नहीं थी। वैसे तो हमारे पिताजी इसी विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं, पर उनकी ईमानदारी पर शक ना ही करें तो बेहतर होगा। यह रचना भी उन्हीं की ईमानदारी का सबूत है। वे भी इंसान ही हैं, कुछ कमियाँ उनमें भी हैं। पर वे एक नेक और ईमानदार इंसान हैं। अभी मेरी पत्नी पीएचडी या शोध कर रही है। 

हमें कम-से-कम दो या तीन बच्चे तो चाहिए ही, ताकि घर हमेशा भरा-पूरा रहे। हमारे बच्चे एक-दूसरे का साथ दे सकें। उनमें प्रेम, सहिष्णुता, दया, करुणा आदि तो हम सीखा ही देंगे। भले मेरे माता-पिता संयुक्त परिवार से आते हों, मैंने तो एकल परिवार में अकेला होने का दंश ही झेला है। मेरी पत्नी तो किसान परिवार से आती है, पाँच भाई-बहन है। मेरा अकेला बच्चा होने का, और मेरे तनहा बचपन का दुख तो मैं आपसे बाँट ही चुका हूँ। मेरी पत्नी एक बड़े परिवार का छोटा सा हिस्सा रह चुकी है, बहुत सारे दुःख झेली होगी, पहले बच्चे को रचने की पीड़ा भी झेल चुकी है। उम्मीद है वह भी कभी अपने अतीत से प्रत्यक्ष भी लिखेगी, अपने सुख-दुःख को शब्द देगी। सुख ज़्यादा होगा, तभी तो वह भी एक बच्चे से संतुष्ट नहीं है। इसलिए, पिछले कुछ समय से हमने अपने अगले बच्चे हेतु, संभोग के माध्यम से प्रयास भी करना शुरू कर दिया है। उम्मीद है, जल्दी ही आपको ख़ुशख़बरी भी सुनाऊँगा। पहले बच्चे के समय इतनी जटिलताओं का सामना नहीं करना पड़ता, तो शायद अभी तक हम लोग पाँच से छह हो गये होते, पर किसी के लोभ के कारण यह नहीं हो पाया। शायद यह भी कोई संयोग नहीं था, बल्कि ज़रूरी था। पहली संतोषजनक रचना इसी हादसे के कारण मैं लिख पाया था। वही पिता की प्रसव पीड़ा ही आज भी मेरी कलम की स्याही है।

इस दौरान मुझे एक बात का अनुभव भी हुआ, शादी के बाद स्त्री की समस्यायें कम नहीं होती हैं। संभोग का सुख तो सौ में शायद एक ही कर रहा होगा। वरना शादी के बाद भी एक कई जोड़े आपस में बलात्कार के शिकार हैं। जब भी किसी एक पक्ष की सहमति ना हो, यह एक यौन-प्रताड़ना ही तो है। जब पूरी तन्मयता से दोनों शरीर और मन सहवास में लीन हों, तभी संभोग संभव है, जिसके बाद सृजन का सुख भी प्रसव के दुख से हीन हो जाता है। प्रसव पीड़ा से तो हम दोनों गुजरे थे। हमारी अज्ञानता से हम माता-पिता बनने वाले थे। हमें से कोई भी मानसिक रूप से इस ज़िम्मेदारी को निभाने के लिये तैयार नहीं थे। हमारे पास ना आय को कोई साधन था, ना निकट भविष्य में कोई उम्मीद ही थी। मैं तो अपनी माँ से बच्चा गिरवाने की अनुमति माँगने भी गया था, अपनी पत्नी से सलाह-मशविरा करने के बाद ही अनुमति लेने का निर्णय लिया था। मेरी पत्नी की प्रसव-पीड़ा तो आप आसानी से समझ सकते हैं। मेरी प्रसव-पीड़ा को समझने के लिए, आप इस किताब के पहले भाग के तीसरे अध्याय में ‘पिता की प्रसव पीड़ा’ में पढ़ सकते हैं।

संभोग-जन्य वक्तिगत और सामाजिक समस्याओं पर मैं आने वाले समय में विस्तार से काम करूँगा। मेरे शोध-प्रस्ताव की पहली कड़ी ही ‘लिंग बुद्धि’ है। मैंने यह अनुमान लगाया है कि ‘संभोग’ हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार को बहुत हद तक निर्धारित करता है, जो हमारे पारिवारिक और सामाजिक जीवन को निरंतर प्रभावित करता रहता है। हमारे कई ऐसे फ़ैसलों में भी यह भूमिका निभाता है, जिनकी कल्पना का हम अनुमान तक नहीं लगा सकते हैं। वैसे तो इस विषय पर काफ़ी शोध हुए हैं। फिर भी इससे जुड़ी समस्याओं का सामाजिक वर्चस्व अभी तक क़ायम है। इसलिए, नये शोध की गुंजाइश तो है। मैं कितना योगदान दे पाऊँगा, यह तो मेरे अनुमान की सटीकता पर ही निर्भर करेगा।

 

3॰ ख़तरा: व्यक्तिगत रूप से मैं ख़ुद अपने लिए एक बड़ा ख़तरा रह चुका हूँ। कई बार आत्महत्या के विचार से जीतने के बाद ही तो मैं आज यह सब लिख रहा हूँ। आज भी वैसे ही किसी मोड़ पर हूँ, जहां जीवित रहने से ज़्यादा मर जाना आसान लगता है। इसका कारण मैं ख़ुद अकेला नहीं हूँ, परिवार, समाज से लेकर मौजूदा राजनैतिक और शैक्षणिक व्यवस्था भी मुझे इसकी ज़िम्मेदार लगती है। इसलिए, मैंने इन सब को समझने की ज़िम्मेदारी उठायी है। यह मेरा सुसाइड-नोट ही तो है। किसी ना किसी काल और स्थान पर हमारा शरीर तो नष्ट हो ही जाएगा। मेरे एक शिक्षक हैं, जिन्होंने कहा था अगर अपने योजन-प्रयोजन में हमें कोई तकलीफ़ नहीं हो रही है, तो समझ लेना चाहिए की हम ग़लत दिशा में चले जा रहे हैं। ख़तरों से डरकर नहीं, ख़तरों का आनंद लेने में ही जीवन को अर्थ मिलता है। आत्महत्या तो कमजोर लोग करते हैं, जो हर पल विचलित हैं और उनका परिवार और समाज इस निर्णय तक पहुँचने में सहायक भूमिका निभा रहा है। देखो तो, सब कितने विचलित और परेशान नज़र आते हैं। 

ख़ुद के अलावा भी कई ख़तरे हैं। रोड पर सही-सलामत चलने से लेकर रहने के ठिकाने पर कोई ना कोई ख़तरा तो मंडराता ही रहता है। कुछ दिन पहले ही अभी जिस सरकारी आवास पर हम सब रहते हैं, उसमें साँप घुस आया था। बरसात के दिनों में बाढ़ के दौरान गंगा का पानी भी इस आवास में प्रवेश कर जाता है। पिछले साल जब बाढ़ आयी थी, मैं गाँव में था। उधर मम्मी-पापा ने आवास ही बदल लिया। अपना एक छोटा-सा घर है, शहर के दूसरे कोने में, हम अचानक ही वहाँ चले गये। मुझे वहाँ घुटन होने लगी। उस वक़्त मेरी स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी चल रही थी, पिताजी का ऑफिस भी उस आवास से नज़दीक पड़ता था। मेरी पत्नी भी उसी विश्वविद्यालय से शोध कर रही थी। इस मनमाने फ़ैसले का मैंने विरोध किया। परिणामस्वरूप हम भी वापस उस सरकारी आवास पर रह रहे हैं। पर हमारी चेतना के कुछ हिस्सों की कब्र वहीं बन गई, जिसका भूत हमें आज भी डराता है।

यह सरकारी आवास मुझे इसलिए पसंद है, क्योंकि यहाँ आम के लगभग दर्जन भर पेड़ लगे हैं, अमरूद और लीची के साथ जामुन के भी दो पेड़ लगे हुए हैं। बाहर का नजारा भी सुंदर है। सामने एक छोटा-सा पोखर भी है। चेतना को प्रकृति के बीच विस्तार मिलता है, अगर मन को इसकी सुंदरता पर केंद्रित करने का प्रयास करें तो! पर मैंने बग़ावत इन कारणों से ज़्यादा, माता-पिता के तानासाही फ़ैसले पर किया था। मेरी समझ से उनका तरीक़ा लोकतांत्रिक नहीं था। इतना बड़ा फ़ैसला लेने से पहले, उन्हें उस आवास में रहने वाले हर व्यक्ति से सहमति या कम-से-कम उनकी राय तो लेनी ही चाहिए थी। इस बग़ावत के दौरान मैंने पिताजी को एक चिट्ठी भी लिखी थी। उसे भी यहाँ संकलित कर रहा हूँ। यह ख़त मैंने 17 नवंबर, 2021 को लिखा था।