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हमारी धार्मिक समस्यायें

सबसे पहले हिंसा वो लोग करते हैं, जिनके पास आस्था नहीं होती है! समस्या आस्था नहीं, आस्था का केंद्र है। इस पूरे संसार में ऊर्जा का एकमात्र स्रोत सूरज ही है। हमारी गाड़ी भी जिस पेट्रोल पर चलती है, कभी जीवन का वो हिस्सा था, जो सूरज की ऊर्जा से संचालित था। धरती की कोख में वर्षों तक रहकर वो कोयला या पेट्रोल या डीजल या रसोई का गैस बन गया। जब ऊर्जा का कोई और स्रोत नहीं है, धर्म के अनेक स्रोत कैसे संभव हैं? क्या अल्लाह राम से अलग हैं, या राम अल्लाह से?

पता नहीं कितना संशय और भ्रम लोक ने धर्म के नाम पर पाल रखा है?

विवेकानंद ने धर्म के तीन आधार बताये थे - दर्शन, मिथक और कर्मकांड। हर धर्म के स्थापना उनके मिथकों के इर्दगिर्द हुई है, जिसके दर्शन को समझने-समझाने के लिए कर्मकांड का उपयोग किया जाता रहा है। आज हमारे पास समझने-समझाने की फ़ुरसत ही कहाँ है? इसी कारण से यहाँ मैं स्वामी विवेकानंद से असहमत हूँ। मेरे अनुमान से वे धर्म को नहीं पंथ को परिभाषित करने का प्रयास कर रहे थे। मैंने उनकी मौलिक रचनायें कम ही पढ़ी हैं। इसलिए मेरी असहमति सिर्फ़ विवेकानंद की इस परिभाषा से है। जैसे ही मिथकों और कर्मकांडों को धर्म से जोड़ दिया जाता है, वह धर्म एक पंथ का रूप ले लेता है। परिणाम स्वरूप, सिर्फ़ धर्म ही दर्शन है, ज्ञान ही सत्य है और आनंद ही एक मात्र लक्ष्य है।

दर्शन के नाम पर कहीं से किसी दार्शनिक का कथन उठाकर हम अपनी उत्तर-पुस्तिका में चिपका देते हैं, इस भ्रम में की इससे नंबर थोड़े ज़्यादा आ जाएँगे। शिक्षकों को भी अपने ज्ञान पर संशय है, इसलिए वे ज्ञान से जुड़े तर्कों के लिए प्रमाण को छोड़कर नंबर बैठने में व्यस्त हैं, छात्र मस्त हैं, तंत्र पस्त है, और लोक त्रस्त है। ऐसी दशा में धर्म से ज्ञान या आनंद की अपेक्षा करना भी बेईमानी है, जब धर्म ही धंधा हो चुका है। लोक में दर्शन कहाँ से आएगा? जब शिक्षा की नीलामी हो रही है और कौड़ियों के भाव में बोलियाँ लग रही है।

दुनिया में धार्मिक आधार पर मुख्यतः दो तरह के लोग होते हैं। एक वे जो आस्तिक होते हैं, या फिर वे जो ख़ुद को नास्तिक समझते हैं। आस्तिक लोक को यह भ्रम है कि इहलोक में कई धर्म हैं। यही भ्रम हमारी व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक समस्याओं की जड़ है। नास्तिकों को यह संशय है कि वे किसी धर्म को नहीं मानते हैं। पर जहां भी वे कुछ भी मान लेते हैं, वे भी धार्मिक हो जाते हैं। उनका अपना भी एक पंथ बन जाता है, जैसे धर्म के नाम पर कई पंथ बने हुए हैं। उदाहरण के लिए हिंदू भी एक पंथ है, मुस्लिम भी एक पंथ है, ईसाई या यहूदियों का भी अलग-अलग पंथ है। किसी एक पंथ के अंदर भी कई और पंथ हैं, जिन्हें हम ‘उपपंथ’ का दर्जा दे सकते हैं। हिंदू धर्म में करोड़ों देवी-देवता हैं, अरबों गुरुओं ने मिलकर आदि काल से सिर्फ़ एक ही धर्म की स्थापना करने का प्रयास किया है, जिसे हम ‘सनातन धर्म’ के नाम से जानते हैं। यह धर्म भी धर्म तभी हो सकता है, जब जगत में कोई अन्य पंथ मौजूद ना हो, इसका प्रयास हो चुका है। सार्वभौमिक धर्म की स्थापना के लिए सनातन धर्म को वैश्विक रूप से मान लेने से संभव हो सकता था। पर यहाँ भी स्वार्थ और अहंकार का टकराव हो गया, जिस कारण पंथों की यह जंग निरंतर हमारे साथ चली जा रही है।

इंसान से स्वार्थ और अहंकार को अगर निकाल दिया जाये, तो धर्म, जाति और सांप्रदायिकता से उसका कट्टर लगाव अपने-आप ख़त्म हो जाएगा, जिस कारण पंथों की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाएगी और एक नीरस बेनाम धर्म की स्थापना हो जाएगी। अहंकार ही तो इंसान को मनुष्य बनाये रखता है, वरना देवी, देवताओं, भगवानों और इंसानों या असुर में क्या अंतर बच जाएगा? लोक पंथ-मुक्त हो जाएगा और स्वर्ग यहीं धरती पर उतर आएगा। पर ऐसा हम होने नहीं देंगे, क्योंकि इससे हमारा दैनिक जीवन नीरस हो जाएगा। स्वार्थ और अहंकार के ख़िलाफ़ जो संघर्ष है, वही तो मनुष्य-जीवन को अर्थ देता है। यहीं से तो जिज्ञासा फूटती है, चेतना को यहीं तो विस्तार प्राप्त करने का मौक़ा मिलता है।

सबकी तरह मैं पैदा तो आस्तिक ही हुआ था। पर पंथों के पाखंड और भक्तों के अंधविश्वास के कारण मैं कुछ समय के लिए नास्तिक भी बन गया था। मैं अज्ञानी भी तो हूँ। धर्म और पंथ का अंतर मुझे भी कहाँ पता था? किसी ने बताया भी नहीं! अपने अनुमान से समझा कि विज्ञान भी एक पंथ है, जिसका ज्ञान ही धर्म है। नास्तिकों का भी अपना एक पंथ है। मैं भी इन सभी पंथों का सदस्य हूँ। नास्तिक भी अधर्मी नहीं होते हैं, वे भी तो अपने तर्कों को अपना धर्म मानते और बताते भी हैं। उन्हें भी अपने तर्कों पर आस्था है, तभी तो वे भी ज्ञान की तलाश में भटक रहे हैं। पर आस्था और धर्म के नाम पर वे भावनात्मक विरोध पर उतर आते हैं, हिंसा की गलियों में कभी-कभी भटक जाते हैं। यह पाखंड नहीं तो और क्या है? जब इनके तर्कों में प्रमाण का अभाव होता जाता है, इनमें भी पाखंड प्रबल होता जाता है। पाखंड और ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते हैं, जहां इनका मिलन होता है, वहीं धर्म या सत्य या ईश्वर या अल्लाह या गॉड या आनंद मिलता है। एक सच्चा नास्तिक किसी भी धर्म के ख़िलाफ़ नहीं होता है, वह तो हर उस पंथ के ख़िलाफ़ होता है, जहां पाखंड की गुंजाइश हो। फिर चाहे वह पंथ नास्तिकों का ही क्यों ना हो!

नास्तिक लोग भी बहुत जल्दी उग्र हो जाते हैं। मैं भी धार्मिक कर्मकांड के क़रीब पहुँचते ही असहज हो जाता था, आज भी हो जाता हूँ, चाहे वह पाखंड मेरे परिवार में ही क्यों ना हो रहा हो!

मुक्ति तो आस्तिकता और नास्तिकता की मिलन बिंदु पर आनंद के रूप में हमारा इंतज़ार कर रहा है।

हम सब किसी ना किसी पंथ के पात्र हैं। हमें तो अधिक-से-अधिक पंथों का सदस्य बनने का प्रयास करना चाहिए। पंथ तो साहित्य में होते हैं। विज्ञान का भी अपना एक अलग पंथ है। दार्शनिक दुनिया में भी कई पंथ हैं, कुछ आदर्शवादी कहलाते हैं, कुछ बुद्धिवादी, कला के जगत में भी कई पंथ हैं। हर पंथ ज्ञान की तलाश में भटक रहा है। हर पंथ के अपने-अपने कर्मकांड हैं, इन सब के पास अपने लिए ग्रंथ हैं, जहां कई प्रकार के मिथकों का विवरण मिल जाता है। साथ ही हर पंथ का एक दर्शन भी है। साइंस को ही देख लीजिए, विवेकानंद ने जिस प्रकार धर्म की परिभाषा दी है, विज्ञान भी एक धर्म ही है। पर, यहाँ मैं ‘धर्म’ को ‘पंथ’ से अलग स्थापित करना चाहता हूँ। इन दोनों में जो बारीक सा अंतर है, उसी कारण लोक और तंत्र दोनों तबाह हैं।

विज्ञान के उपमान से मैं अपने इस अनुमान के तर्कों के लिए प्रमाण देने का प्रयास कर रहा हूँ। आशा करता हूँ कि आप इसे समझने का ईमानदारी से प्रयास करेंगे। विज्ञान में भी कई मिथक हैं, जिसका ज़िक्र हमें विज्ञान के ग्रंथों में मिल जाता है। जैसे, एक समय था जब वैज्ञानिक लोक मानता था कि सूर्य ही धरती की परिक्रमा करता है। पृथ्वी को ही इस जगत का केंद्र माना गया था। यह स्वाभिमान नहीं था, यह मनुष्यों का अहंकार बता रहा था। उसके बाद निकोलस कोपरनिकस आये, इनका जन्म 19 फ़रवरी, 1473 को हूआ था। मेरा जन्मदिन भी यही है। पर इसका मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है। मेरे सारे सरकारी और ग़ैर-सरकारी प्रमाणों के आधार पर मेरा जन्म 5 अगस्त, 1987 को हुआ है। 

पर, मेरे घरवाले आज भी मेरा जन्मदिन 19 फ़रवरी को ही मानते हैं। उन्होंने बताया कि जब मेरा स्कूल में दाख़िला करवा रहे थे, तब मेरी उम्र अधिक हो गई थी, इसलिए काग़ज़ों पर कमकर किसी तरह मुझे शिक्षा-तंत्र में ज़बरदस्ती डलवाना पड़ा था। यह कैसा तंत्र था जो मेरी उम्र के सच को स्वीकार नहीं कर पाया था और हमें भ्रम और संशय में रहने को विवश कर दिया गया है। अगर मेरे मौलिक जन्मदिन की तारीख़ को माना जाये, तो आज तक मैंने 13,245 बार सूरज को उगते और 13,244 बार डूबते देखा है। आज का सूरज अभी बादलों में ढँका है, डूबने में अभी देर हैं, अभी-अभी तो सवेरा हुआ है। वही अगर मैं प्रमाणों को मानूँ तो मैंने सिर्फ़ 13,077 बार ही सूरज को उगते देखा है। माँ बताती है, मैं सवेरे-सवेरे सूरज उगने से पहले ही पैदा हो गया था। जिसे शास्त्रों में ‘ब्राह्ममुहूर्त’ कहा गया है। पर इसका प्रमाण मैं नहीं हूँ, उस नवजात स्मृति का मैं प्रत्यक्ष भी नहीं बन सकता हूँ। इसके लिए मुझे मेरे परिवार की गवाही पर ही भरोसा करना पड़ेगा। भरोसा आस्था की पहली शर्त है, जो ज्ञान की शर्तों में सबसे पहले आती है।

ख़ैर, कोपरनिकस ने अपने अनुमान के लिए तर्क दिये, उन्होंने प्रमाणों के साथ बताया कि पृथ्वी अंतरिक्ष के केन्द्र में नहीं है। इस सच ने कई पंथों को धार्मिक चुनौती दे डाली, बहुत लोगों ने इस तथ्य पर भरोसा करने से इनकार कर दिया। कोपरनिकस के बहुत पहले ही भारत के ऐतरेय ब्राह्मण ऋग्वेद की एक शाखा में यही सच बताया गाया था। फिर गैलीलियो गैलिली आये, उन्होंने ने भी इस सच को स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी है। फिर सापेक्षता का सिद्धांत लेकर अल्बर्ट आइंस्टीन आये, और गति की सापेक्षता और निरपेक्षता से जुड़े तथ्यों का अवलोकन किया। आज भी वैज्ञानिक इन सिद्धांतों पर चर्चा करते रहते हैं। सामान्य समझ के लिए हम समझ सकते हैं कि अगर हम किसी वस्तु के चक्कर लगा रहे हैं, तो वह वस्तु भी हमारे अनुरूप गतिमान है। जैसे ट्रेन पर बैठे-बैठे यह महसूस होता है कि पेड़, पौधे और मकान भी चल रहे है, और एक-एक कर पीछे छूटते जा रहे हैं। इस आधार पर हम यह भी तो अनुमान लगा सकते हैं की अगर धरती सूर्य के चक्कर काट रही है, तो कहीं-न-कहीं सूर्य भी धरती के हिसाब से उसके इर्द-गिर्द ही घूम रहा है। हम धरती को उगते या डूबते नहीं देखते हैं। नित्य प्रतिदिन आकाश में तो सूरज ही उगता भी है, वही डूब भी जाता है।

विज्ञान भी कई मिथकों को काटकर आगे बढ़ता आया है। बढ़ते-बढ़ते वह बहुत पहले ही चाँद तक पहुँच गया है, अब तो मंगल आदि ग्रहों पर भी हम जीवन की तलाश में भटक रहे हैं। क्या यह एक धर्म नहीं है? इसमें ग्रंथ भी हैं, मिथक भी हैं, कर्मकांड भी हैं, जिसे हम प्रयोग कहा करते हैं। साथ ही एक दर्शन भी है, जो जीवन की तलाश है। यहाँ पाखंड भी है, जब हम अपने ज्ञान को जीवन के विपक्ष में इस्तेमाल करते हैं, जिससे जीवन नष्ट होने लगता है, क्या वह पाखंड नहीं है? जब द्वितीय विश्व युद्ध में जापान पर प्रमाणु बम गिराया गया था, तब क्या विज्ञान के पाखंड से दुनिया त्रस्त नहीं हुई थी। क्या मिल गया?

पर यह भी होना ज़रूरी होगा, तभी तो ऐसा हुआ था। प्रमाणु ऊर्जा पर आज कई देश रौशन हो रहे हैं। तीसरे विश्व-युद्ध की कल्पना से भी हम डरते हैं। इसके बाद ही तो औद्योगिक-क्रांति अपने चरम पर पहुँचकर रुक गई, फिर स्थायी सूचना के साथ चल रही है। जिसके बाद वैश्वीकरण का दौर आया और सूचना-क्रांति की शुरूर्वत हुई। जो हुआ, जैसा हुआ, अच्छा हुआ या बुरा, सुख मिला या दुख, कर्मफलों पर उसकी ज़रूरत का निर्धारण नहीं किया जा सकता है। जो हुआ क्यों हुआ? उसकी ज़रूरत को समझकर ही हमें ज्ञान मिल सकता है। बिना औद्योगिक-क्रांति हुए, सूचना-क्रांति संभव नहीं थी। आज हम ज्ञान युग में जी रहे हैं, इसलिए निरंतर सहजता सी मिलती सूचनाओं की बाढ़ से अपने ज्ञान और अपनी अज्ञानता को अलग करना आज से पहले कभी इतना ज़रूरी नहीं था। इसलिए, तो शिक्षा-क्रांति का मक़सद आप तक पहुँचाने में ही मेरे वर्तमान को अर्थ मिल रहा है, जिसके लिए मैं निरंतर ज्ञान को आकर्षित करने का प्रयत्न कर रहा हूँ। कर्म भी कर रहा हूँ, कभी-कभी कांड भी कर लेता हूँ।

क्योंकि, बिना आस्था के ज्ञान संभव नहीं है। ज्ञान की पहली शर्त ही आस्था है, जिसकी दूसरी माँग प्रमाण है। साइंस प्रमाणों पर आधारित है। यहाँ हम प्रमाणों के बिना किसी पर भरोसा नहीं करते हैं। पर ऐसा हम अपने धार्मिक पंथों के साथ करने में असमर्थ हैं, क्योंकि जो ज्ञान हमें अर्थापति के माध्यम से प्राप्त हुआ है, उसके लिए प्रमाणों की ज़रूरत ही नहीं जान पड़ती है। भक्ति का रास्ता कला और साहित्य के दरवाज़ों पर ही खुलता है। पता नहीं वहाँ भी हम विज्ञान क्यों ढूँढ रहे हैं? हर अस्तित्व और उसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग है। हर धर्म-ग्रंथ साहित्य का हिस्सा है, कर्मकांड में साहित्य के साथ कला भी हमारी सभ्यता और संस्कृति को नया आयाम देती है। पर यहाँ तो हम बस शब्दों को प्रमाण मान लेते हैं, और अंधभक्ति में लीन हो जाते हैं, सवाल-जवाब करते ही नहीं हैं। धर्म को छोड़िये, लोक को भी जाने दीजिए, इस समाज में तो विद्यार्थी भी अपने गुरुओं से सावल करने से डरते हैं। ज्ञान कैसे मिलेगा? जब जिज्ञासा को तंत्र कुचल देगा, और लोक बकलोल की तरह ताकता रहेगा। विज्ञान पर भी निरर्थक आस्था का आवेदन लिए तंत्र लोक के पास आ चुका है और लोक शांत है, क्योंकि हम सब अपने ही समाज से डरते हैं। नास्तिकता भी तो तर्कों और प्रमाणों पर आधारित है। 

यही सब कुछ तो एक सच्चा धर्म भी हमें सीखता है। सच्चे धर्म को किसी नाम की नहीं, हमारे ज्ञान और कर्म की ज़रूरत पड़ती है। उसके लिए हमें किसी कांड को अंजाम देने की ज़रूरत नहीं है। समस्या आस्था नहीं है, उसके केंद्र में है। अगर केंद्र में अज्ञानता है, तो आस्था जीवन के ख़िलाफ़ है। भले, अर्थापत्ति के रास्ते हम कुछ भी मान सकते हैं, पर हमारा ऐसा कुछ मान लेना, जो जीवन के पक्ष में ना हो, ना नैतिक है, ना ही वह आस्था धार्मिक हो सकती है। जब भी, जहां भी, केंद्र में पाखंड होगा, वहाँ अज्ञानता होगी, वहाँ आनंद नहीं होगा, तो आस्था कैसे आएगी? आस्था के बिना ज्ञान नहीं मिलेगा। यही तो काल और स्थान का अनंत चक्र है, जिसमें हमारा जीवन फँसा हुआ है। यही तो हमारी धार्मिक समस्या है, जिसे हमें ख़ुद अपने ज्ञान, कर्म और भक्ति से सुलझाना है। यही तो राज-योग है। तभी तो हमारे धर्म या पंथ को अर्थ और दर्शन मिलेगा।

अपने इस वर्तमान में मैं ना आस्तिक हूँ, ना ही मैं नास्तिक हूँ। मैं तो बस एक दार्शनिक हूँ, जो ज्ञान की तलाश में भटक रहा है। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, दार्शनिक, राजनैतिक, साहित्यिक और वैज्ञानिक सच का पीछा करते-करते ‘सत्य’ तक पहुँचने का अपना यात्रा-वृतांत लिख रहा हूँ। अभी भी वह यात्रा थोड़ी दूर है, जिसका क़िस्सा सुनाने मैं बैठा हूँ। पर कहानी तो वही है, जो निरंतर चली जा रही है। यही तो एक लेखक का धर्म है। मेरी आस्था का केंद्र तो लेखन है। जिससे मेरे व्यक्तित्व, मेरे परिवार, मेरे समाज और हमारे अस्तित्व को अर्थ मिल रहा है। यही तो ‘जीवर्थशास्त्र’ है। जिसकी अभिव्यक्ति के साधन का सौंदर्य को विवरण देना ‘अभिव्यक्तिशास्त्र’ कहलायेगा। जिसका रास्ता ज्ञान और आनंद से होकर गुजरता है, जिसके लिए या तो हमें ज्ञान को आकर्षित करना पड़ता है, या फिर ज्ञान की तरफ़ आकर्षित हो जाना पड़ता है। इसी आकर्षण का नाम ही तो, ‘ज्ञानाकर्षण’ है। नया क्या है?

नया कुछ है! तो हमारा कर्म है, जो जाने-अनजाने हर पल हम किए चले जा रहे हैं। जानकर करेंगे तो कर्म फल-रहित होगा, हमारा वही कर्म ‘निष्काम कर्म’ कहलाएगा, जिसका उपदेश गीता में कृष्ण ने अर्जुन को दिया था, यहाँ मैं आपको दे रहा हूँ। अनजाने ही तो ब्रह्मांड में हम अनचाहे ना जाने कितने कंपन फ़िलाए चले जा रहे हैं? जिसे हम कर्मकांड के नाम से पहचानते हैं। पूजा-पाठ, नवाज़, प्रार्थना आदि-अनादि रूप में बिना जाने-समझे जो किए चले जा रहे हैं, वही तो पाखंड है। धार्मिक पंथों में निहित जो कर्मकांड हैं, वे ख़ासकर हमारे जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों में हमारे सुख-दुःख के साथी हैं। जब समाज हमारे सुख-दुख में हमारा साथ देता है, साथ ही हमें सहारा भी देता है। धार्मिक कर्मकांड जीवन के तीन सबसे महत्वपूर्ण पड़ावों के साक्षी बनते हैं - जन्म, विवाह और मृत्यु! बाक़ी तो बस त्योहार हैं, जो सभ्यता और संस्कृति के नाम से हमें अपने समाज से जोड़े रखते हैं। ख़ुशी-ख़ुशी आनंद से त्योहारों का लुत्फ़ उठाइए! ऐसे की किसी को तकलीफ़ ना हो, यहाँ तो ज्ञान की देवी के सामने मुन्नी बदनाम हो रही है। माता-पिता और बच्चे पूजा-अर्चना के संसाधन के इंतज़ाम में परेशान हैं। दिवाली के पठाखे इस इंतज़ार में बैठे हैं की कब मुहूर्त निकलेगा, कब पूजन क्रिया संपन्न होगी और फिर पठाखों को फोड़ने की अनुमति मिलेगी। किसी भी त्योहार से हम रक्षा के बन्धन में बंधे घुट रहे हैं। मुहर्रम की विपदा, पूरे शहर के यातायात पर संकट बन जाती है। इसी पाखंड की दहसत से तंत्र लोक चला रहा है। ऐसा पाखंड हमें कौन-सा भावनात्मक सुख दे रहा है? जिसका समाज समर्थन कर रहा है और लोकतंत्र चला रहा है। हमारे निजी जीवन में ना ये धार्मिक पंथ, ना ये राजनैतिक सत्ता, ना ही इसका तंत्र और ना ही शिक्षा-व्यवस्था, हम लोक के पक्ष में नज़र आती है। ये कर्मकांड हमारी भावनाओं के सहायक मात्र थे। पर हम इतने विचलित हैं कि इन कर्मकांडों को हम कब पाखंड बना लेते हैं, हमें ख़ुद पता नहीं चलता है। यही अज्ञानता तो हम सब को आनंद से वंचित कर रही है।

धार्मिक समस्या पाखंड में निहित है। दर्शन, मिथक और कर्मकांड तक तो धर्म ही था, चाहे वह किसी भी पंथ का क्यों ना हो! पाखंड से ही तो धर्मालयों और राजनीति की दुकान चल रही है, जो लोक के लिए एक जानलेवा नशा है। तंबाकू या दारू से कहीं ख़तरनाक समाज की शिक्षा के प्रति उदासीनता का जो कैंसर है, वह पूरे लोक और तंत्र को तबाह किए हुए है। यही सामाजिक अज्ञानता, मेरी धार्मिक समस्या है, जिससे मेरा व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन अस्त-व्यस्त है। जिसके निवारण के लिए मैंने दर्शन की शरण ली थी। अब मेरी दार्शिनिक समस्या भी पढ़ लीजिए।

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