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एक लोकतांत्रिक अवतार

मेरे अनुमान से इस शिक्षा व्यवस्था में एक ऐतिहासिक और दार्शनिक दोष है। हमारे इतिहास में आज तक पुनर्जागरण काल नहीं आया, जब जनमानस को अपनी रचना-शक्ति पर आस्था हो। यह आस्था ही थी जिसने साहित्य, कला के रास्ते उद्योग की रचना की। हमारे आदिकाल में ही कहीं स्वर्ण-युग की तलाश में देश और काल की जवानी बर्बाद हुए जा रही है। सृजन की संभावना कुछ युवाओं को दिखती भी हैं। पर, वे छोटी-मोटी उपलब्धि से ही संतुष्ट हो जाते हैं। वे सत्याग्रह नहीं करते। वे अपने सच को ही सत्य मान बैठते हैं। मुझे उनकी दरिदता पर तरस भी आता है। मैं चाहकर भी कुछ कर नहीं पाता हूँ। हिन्दी विभाग के सृजनशील शिक्षकों की बातों से भी मुझे निराशा के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा। अनुभव में भी वे दरिद्रता ही तलाशते मिले। मैं भी किसी का अपमान नहीं करना चाहता, शौक़ से गालियाँ देता हूँ, पर किसी की भावना को चोट पहुँचाने की प्रवृति मेरी तो नहीं।

उद्योग “बनाम” सहोद्योग

जब तक जंगल के क़ानूनों पर लोकतंत्र चलता रहेगा, मुझे तो उम्मीद नहीं है कि कुछ भी जीवन के पक्ष में बदल पाएगा। जब शिक्षा-दीक्षा में प्रतियोगिता से सहयोग की भावना का संचार होगा, तभी जिस लड़ाई को हम और आप लोकतंत्र के दंगल में लड़े जा रहे हैं, उसका समाधान मिल पाएगा। धर्म और शिक्षा जिस सामाजिक अवधारणा की स्थापना हमारे अंतःकरण में करती रहेगी, उसी आधार पर हमारी दुनिया चलती रहेगी।

महंगाई: आर्थिक या काल्पनिक

महंगाई — किसी भी अर्थव्यवस्था का एक अनिवार्य अवांछनीय भाग है। अकसर, महंगाई की साहित्यिक तुलना डायन से की जाती रही है। क्यों महंगाई बढ़ जाती है? मेरी समझ से इसके तीन आयाम हैं, जिसमें तीन घटक अपनी भूमिका निभाते हैं। ये तीन घटक कुछ इस प्रकार हैं — माँग, आपूर्ति और क्रय शक्ति। आय और क्रय शक्ति का सीधा संबंध है। जितनी आय होगी, हमारी क्रय शक्ति उतनी ही होगी, वैसे कर्जा लेकर हम अपनी क्रय शक्ति बढ़ा सकते हैं।

एक गुमशुदा काल

एक समय था, जब यह देश सोने की चिड़िया कहलाता था। हमारा सत्य सनातन था, सटीक था। ब्रह्म सत्य थे, और जगत मिथ्या। संभवतः, , इसीलिए मिथकों पर ही हमने अपनी आस्था को निछावर कर दिया। अपनी ज़रूरतों पर हमने ही अपने इतिहास में ध्यान नहीं दिया। हमने इतिहास की भी ज़रूरत को नज़रंदाज़ कर दिया। हमें अपना ही इतिहास किसी मिथक से कम कहाँ लगता है? तभी, तो लोकतंत्र ना जाने कहाँ से प्रमाण ला-लाकर हमारा इतिहास ही बदलने की फ़िराक़ में क्यों रहता है?

विश्वास के प्रमाण

शिक्षा की सबसे अहम ज़रूरत हमारी ज़रूरतों के बीच संतुलन क़ायम करने का है। एक अशिक्षित तार्किक प्राणी अपनी ज़रूरतों का नीति-निर्धारण करने में असमर्थ होता है। इसलिए, शिक्षा के माध्यम से सभ्यता स्थापित करने का प्रयास, लोकतंत्र आदिकाल से करता आया है। राजनैतिक पृष्ठभूमि पर लोकतंत्र अभी बच्चा है। अभी तो इसे भी शिक्षा की ज़रूरत है। ताकि वह अपनी ज़रूरतों को समझते हुए, नीति-निर्धारण कर सके। इसके लिए ही हर लोक के बुद्धिजीवी ज़िम्मेदार हैं। हर शिक्षक, प्रशिक्षक और छात्र की यही तो बुनियादी ज़िम्मेदारी है।

इहलौकिक जिजीविषा

स्वर्ग, मोक्ष, मुक्ति, जन्नत या हेवन एक ही अभिलाषा या कल्पना के अलग-अलग रूप हैं। दुख या दर्द हो, या इंद्रियों को प्राप्त सुख ही क्यों ना हो? भोगती तो चेतना ही है, जो ख़ुद आत्मा का क्षणिक वर्तमान है। आत्मा की शाश्वतता को हमारी चेतना वर्तमान की अनंतता के साथ जोड़कर ही समझ पाती है। सुख-दुख अनुभव के पात्र हैं। अनुभूति और अनुभव में बारीक अन्तर है। अनुभव के लिए इंद्रियों का सक्रिय होना ज़रूरी है। अनुभूति विचारों और भावनाओं से भी प्रभावित होती रहती है। अनुभूति वह एहसास है, जिसे हमारी चेतना महसूस कर पाती है। अनुभूतियों का दायरा अनुभव से बड़ा है। अनुभूति शरीर और इंद्रियों से परे है। अनुभूतियों का अस्तित्व ही काल्पनिक है। अनुभव की एकरूपता भी अनुभूति की समानता को स्थापित नहीं कर सकती है। हर अनुभव में अनुभूति का योगदान है। पर, अनुभूति को अनुभव पर आश्रित नहीं रहना पड़ता है। वह विचारों और कल्पनाओं में स्वतंत्र विचरण कर सकती है। यहाँ तक कि अनुभूतियाँ, चेतना में कई काल्पनिक अनुभवों का संप्रेषण करने में सक्षम है। कल्पनाएँ इंद्रियों को भी प्रभावित करने का हुनर जानती है।

पाठशाला या मधुशाला?

लोकतंत्र दवा में भी दारू मिलकर बेच रहा है। दवा की दुकानों से जितनी मदिरा मेरा इहलोक अपने-अपने घर लाता है, उतनी कभी किसी मैखानों में भी कहाँ बिकी होगी। पर दवा की ज़रूरत वह जानता है, क्योंकि लोकतंत्र ने ही उसे बतायी है। अपनी मधुशाला की ज़रूरत समझने के लिए ही तो आत्मनिर्भर होना हमारे लिए ज़रूरी है। अगर अपनी ज़रूरतों को हम समझ पाते, तो शायद अपने बच्चों की औक़ात को तंत्र के दिये प्रमाणपत्रों के आधार पर नहीं आंकते।

बचपन से जुड़ी मेरी कुछ अवधारणाएँ

असंतोष तो हमारा पैदाइशी अवगुण है। संतोष के लिए ही तो हमें शिक्षा, ज्ञान और प्रज्ञा की ज़रूरत पड़ती है। पर यहाँ तो सारा खेल ही उल्टा है। पूरी की पूरी ज्ञान की गंगा ही उल्टी बह रही है। परिवार, समाज और शिक्षा ही हमें असंतुष्ट रहने का पाठ पढ़ाये जा रहा है। फिर, यही लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है। जो भी, जैसी भी मेरी अवधारणा इस परिवार और समाज के लिए बनी, वह कहीं से मुझे जीवन के पक्ष में तो नज़र नहीं आती है। निश्चय ही मैं ग़लत हो सकता हूँ। पर उन प्रमाणों का क्या जो मैं देता आया हूँ?

आत्म-अवधारणा

Elizabeth B॰ Hurlock ने “Self-Concept या आत्म-अवधारणा” को बड़ी बारीकी से समझाने का प्रयास किया है। जिसके लिये उन्होंने कई दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों के द्वारा दी गई परिभाषाओं और सिद्धांतों का प्रयोग किया है। उन्होंने William James और Sigmund Freud जैसे मनीषी दार्शनिकों के साथ-साथ कुछ नामचीन मनोवैज्ञानिकों का भी ज़िक्र किया है। जिसका सटीक अनुवाद करना, मुझे अपनी इस तत्कालीन परियोजना के लिए ज़रूरी नहीं प्रतीत होता है। अगर ज़रूरत पड़ी तो उसका अनुवाद करने का भी प्रयास करूँगा। फ़िलहाल, मैं आत्म-अवधारणा की अपनी समझ को प्रस्तुत करने की अनुमति चाहूँगा। क्योंकि, मेरा अनुमान है कि छात्रों में इन्हीं आत्म-अवधारणाओं के निर्माण की ज़िम्मेदारी समाज की है। ख़ासकर, शिक्षा-व्यवस्था की जवाबदेही है।

इहलोक की अवधारणा

इस लोक की अनंतता में ही उसकी समग्रता है। शून्य ख़ुद में पूरा है — ख़ुद मूल्यवान भी है, मूल्यहीन भी वही है। शून्य “०” अनंत भी है — उसके अंदर भी एक पूरी दुनिया है, उसके बाहर भी एक पूर्ण ब्रह्मांड बसता है। कल्पना के परे भी कोई दुनिया है, या हो सकती है, इससे शायद ही कोई तार्किक प्राणी एतराज रखेगा। एक बेहतर और बदतर दुनिया की कल्पना शुरुवात से हमारे साथ चलती आ रही है। आज भी साथ है, आगे भी अपना साथ निभाते ही जाएगी।