हर व्यक्ति के जीवन में उसके परिवार का प्रमुख योगदान होता है। मेरे माता-पिता कई भाई-बहन थे। आर्थिक रूप से वे सुविधा-संपन्न नहीं थे। दोनों ही मुख्यतः किसान-परिवार से आये थे। कोई नहीं चाहेगा वही तकलीफ़ें उनका बच्चा भी झेले, इसलिए जिन मुसीबतों और तकलीफ़ों का सामना मेरे माता-पिता करते आये थे, उनसे मुझे दूर रखने का हर संभव प्रयास किया। उनके प्रयास में ग़लतियाँ हो सकती है, पर उनके प्रयासों में कोई कमी नहीं थी, कोई बेईमानी भी नहीं थी। भले उनकी अभिव्यक्ति में मुझे कई कमियों का अनुभव होता है, पर उनके इरादों में ईमानदारी की कभी कोई कमी नज़र नहीं आयी है।
मैं उनकी इकलौती संतान हूँ। उनसे जो कुछ संभव हो पाया उन्होंने मेरे लिया किया है, अभी भी निःस्वार्थ कर रहे हैं। उन्होंने ने अपनी हर इच्छा का बलिदान देकर भी मेरी मनोकामना को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इस क्रम में उनसे ग़लतियाँ भी हुई, कुछ ग़लतियों को उन्होंने स्वीकार किया, कुछ से तो हम सब अनजान हैं। पर एक समस्या जो सामाजिक स्तर पर बहुत संजीदा है, वह यह है कि बाक़ी अभिभावक की तरह भी उन्होंने भी अपने बच्चे को नालायक ही समझा है। क्या आप अपने बच्चे को किसी लायक़ समझते हैं?
मेरे इस कथन से आप असहमत होंगे, ज़ाहिर है मेरे सवाल ने आपको परेशान भी किया होगा। संभव है कि आपको मुझ पर ग़ुस्सा भी आया होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो मैं आपसे माफ़ी माँगता हूँ। यहाँ मुझे आपकी ईमानदार असहमति और बेबुनियाद तर्कों की उम्मीद थी। आपने मेरी उम्मीद पर ही पानी फेर दिया, इसलिए मुझे लगता है कि आपकी परवरिश में भी कुछ तो कमी रह गई है। तर्क बेबुनियाद तभी होते हैं जब उनके अनुमान में अज्ञानता निहित होती है। जैसा की मैंने आपको पहले भी बताया था, अज्ञानता के चार मुख्य स्रोत हैं - स्मृति, संशय, भ्रम और तर्क, साथ ही आपको तर्कों की ज़रूरत भी समझायी थी। ज्ञान-पूर्ण अनुमान के लिए प्रमाण-युक्त तर्कों की ज़रूरत होती है। जब हम तर्क अपनी स्मृतियों या भावनाओं, भ्रम या संशय, या किसी तर्क के बदले तर्क दे रहे होते हैं, तब हम निरर्थक अनुमान लगा रहे होते हैं। जिनका कोई अर्थ नहीं होता है।
मुझे भी मेरे परिवार से कई बेबुनियाद तर्कों का ख़ज़ाना विरासत में मिला है। जहां मेरे माता-पिता अपनी भावनाओं के लिए तर्क देते आये हैं। प्रेम या आनंद या घृणा या किसी अन्य भावनाओं को तर्कों की ज़रूरत नहीं होती है। हाँ! कुछ प्रत्यक्षों के ज़रूरत पड़ सकती है। आज तो हर माँ-बाप तो ना सिर्फ़ अपनी, अपितु अपने बच्चों की भावनाओं का अनुमान लगाने के लिए भी ख़ुद को और अपने बच्चों को ना जाने कितने तर्क देते हैं? क्या आपने नहीं दिया है?
मुझे उम्मीद हैं, यहाँ थोड़ा रुककर आप ख़ुद की स्मृति का साक्षी बने, अपने अतीत से कुछ प्रत्यक्ष ढूँढकर लायें, जब आपने निरर्थक अनुमान के पीछे अपना वक़्त, अपनी ऊर्जा, अपनी भावनाओं और तर्कों को बर्बाद किया होगा। कुछ मिला?
आज भी जब अपनी माँ के तकलीफ़ों का मैं प्रत्यक्ष बनता हूँ, अपने पिता के दर्द का मैं अनुमान लगता हूँ, और उनके लिए ईमानदारी से कुछ करना चाहता हूँ, वे मुझे स्वार्थी होने की सिख देते हैं। वे मुझे आराम देने के लिए आज भी कष्ट उठा रहे हैं। घर के कामों से लेकर सामाजिक स्तर पर उन्हें कहीं मेरे सहयोग की ज़रूरत नहीं जान पड़ती है। घर की सफ़ाई में भी मेरे हाथ गंदे नहीं होने देते, मुझे भी धूल से एलर्जी है। साँसें फूलने लगती है, दमा का दौरा पड़ जाता है। जाने कितनी दिवाली मैंने हॉस्पिटल में गुजरी है। बाक़ी कामों में भी उन्हें मुझसे सहभागिता की कोई उम्मीद तक नहीं रहती है। उनके हिसाब से मैं ख़ुद को संभल लूँ, यही बहुत है। ऐसी उम्मीद तो हम किसी नालायक से ही लगा सकते हैं। नहीं?
यह सिर्फ़ मैंने अपने परिवार में ही नहीं देखा है। समाज में जहां तक मेरी नज़र जाती है, ऐसा ही कुछ मुझे नज़र आता है। शहरों में रह रहे मध्य-वर्गीय परिवार नौकरी करते हैं, फिर घर के कामों के लिए वे अलग से नौकर रखते हैं। अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए हर प्रकार का संसाधन जुटाने में वे इतने व्यस्त हो जाते हैं कि अपने बच्चों को बड़ा होते वे ठीक से देख भी नहीं पाते, उन्हें वे घर के कामों में कैसे लगा सकते हैं? यहाँ भी असमानता है, लड़कों की ज़िम्मेदारी इन घरों की लड़कियों से कम ही रहती हैं। बहुत हुआ तो बाज़ार से फल-सब्ज़ी ले आते हैं, या कुछ अन्य छोटे-मोटे कामों में ये बच्चे अपने माता-पिता की कुछ मदद कर पाते हैं। ऐसे अधिकांश परिवार एकल ही होते हैं। आप ही बताइए, ऐसे बच्चों में अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी का बोध कैसे आएगा? जब ये बच्चे ढंग से अपने परिवार के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं। फिर अचानक किसी दिन इनके माथे पर ज़िम्मेदारी का पहाड़ टूट पड़ता है, जिसके लिए परिवार और समाज ने इन्हें कभी तैयार ही नहीं किया है। इसी संघर्ष में लाश बने ये बच्चे टहल रहे हैं, या रस्सियों से लटक रहे हैं। इनमें दया, करुणा, सहानुभूति, प्रेम, सहृदयता, सामाजिक सहभागिता की भावना कहाँ से आएगी?
अगर बच्चों में इन वांछित भावनाओं का विकास नहीं होगा, तो समाज में ये भावनाएँ कैसे दिख जायेंगी? इनकी परिभाषा रट लेने से इनका ज्ञान नहीं मिल सकता है। आज भी गाँव के किसान घरों के कुछ बच्चे शहर के इन एकल-परिवार के बच्चों से कहीं जायदा घर के कामों में सहयोग करते हैं, कहीं ज़्यादा संवेदनशील हैं। इसलिए, इन सारे गुणों का मैं अपने माता-पिता में मौजूद होने का प्रत्यक्ष तो हूँ, पर ख़ुद में इन भावनाओं का अनुमान लगाने में असफल भी रहा हूँ। इसलिए, मैंने फ़ैसला किया है कि अपने परिवार के साथ कम-से-कम एक फसल तो साथ मिलकर उपजाऊँगा, ताकि मेरी बेटी इन भावनाओं से अवगत हो पाये। भले उसका स्कूल कुछ समय के लिए छूट जाये, पर यह ज्ञान उसके लिए बहुत ज़रूरी है। बिना जीवन को जाने वो ईमानदारी से अपना जीवन कैसे गुज़ार पाएगी?
विज्ञान भी मानता है कि हमारा शरीर उन्हें पाँच तत्वों को मानता है, जिसे भारतीय दर्शन में पंचमहाभूत माना गया है - आकाश (Space) , वायु (Quark), अग्नि (Energy), जल (Force) तथा पृथ्वी (Matter)। रट्टा मारकर इन बच्चों का क्या भला हो जाएगा? किसी तरह यह बच्चे प्रधानमंत्री या न्यायाधीश भी बन गये तो जीवन के ख़िलाफ़ ही अपना फ़ैसला सुनायेंगे। जीवन को समझकर ही तो मेरे बच्चे समाज में अपना योगदान दे पायेंगे। वरना मेरी ही तरह वे भी नालायक ही रह जाएँगे। वे किसान बनेंगे या कलेक्टर यह तो वे ही तय करेंगे। मेरा मक़सद तो उन्हें अधिकतम आजीविका और पहचान को नकारने का अवसर देना है, जैसा चाहे-अनचाहे मुझे मेरे माता-पिता ने दिया है, या समाज से मैंने छीनकर लिया है। शिक्षा-व्यवस्था को भी कुछ ऐसे ही मौक़े के चुनाव को ज्ञान-पूर्ण तरीक़े से हर छात्र को देना चाहिए। पर इसमें खर्च लगेगा, सुना है लोक राजा है, और राजा के पास किस बात की कमी है? अच्छी शिक्षा मिलेगी, तभी तो ये बच्चे ईमानदारी से ख़ुद को पहचानकर सृजनात्मक और रचनात्मक ढंग से समाज में अपना योगदान दे पायेंगे। यह मेरी पारिवारिक समस्या भी है, जहां से मेरी सामाजिक समस्या भी शुरू होती है।