मुक्ति के लिए लोक को हर काल और स्थान पर अपने ज्ञान पर आस्था बनानी पड़ती है। नास्तिकता एक बौद्धिक पंथ है, जो आस्था का ही अनादर करती है। इस कारण पंथ की समस्या बरकरार ही रहती है और रंग में भंग डालने के लिए नास्तिकों का एक अलग पंथ चला आता है। महफ़िल खूब सजती है, सबको मज़ा भी खूब आता है। कब रंगों की होली, खून की होली में बदल जाती है? इतने शोर-शराबे में किसी को पता भी नहीं चलता। जब पता चलता है, तब लोक अपनी भावनात्मक और तार्किक व्यथा व्यक्त करता है। सामाजिक समस्या में मौजूद जो दर्शन है, उसे देखने की कोई कोशिश ही नहीं करता है। इहलोक और इस तंत्र में हम अपने-अपने पद, प्रतिष्ठा और पैसे का मज़े तो ले लेते हैं, पर कभी आनंद किसी को नहीं मिलता। इसलिए, कोई ज्ञान को नहीं पूछता, इहलोक अपनी ही मस्ती की अज्ञानता में मूर्तियों और प्रतीकों के पीछे भागा जा रहा है।