इसमें कोई संशय या भ्रम की जगह नहीं है कि इंसान एक तर्कशील सामाजिक प्राणी है। हर अस्तित्व की उत्पत्ति हुई और उसके संरक्षण के कई घटक या कारक होते हैं। हमारे भी हैं, जिस माता-पिता ने हमें जन्म दिया, उसका चुनाव हम नहीं कर सकते हैं। जो स्थान और काल हमारे अस्तित्व का प्रत्यक्ष बनता है, उसका निधारण भी हम नहीं करते हैं। इन घटकों के निर्धारण हेतु दार्शनिकों ने कई सिद्धांत दिये हैं। हमारे समाज और सभ्यता में सबसे प्रचलित अवधारणा कर्म का सिद्धांत है। वैसे तो भारतीय दर्शन में कर्म-सिद्धांत पर विस्तृत चर्चा हुई है। पाश्चात्य दर्शन में भी इसका उल्लेख मिल जाता है। फिर भी इस अवधारणा के अन्तर्गत कई भ्रांतियाँ और अज्ञानता मौजूद हैं, जो समाज की चेतना को लगातार छलनी कर रही है।
इस अवधारणा की सीधी-सी व्याख्या यह है कि हम जैसा कर्म करेंगे, वैसा ही फल पायेंगे। इस सिद्धांत के दो महत्वपूर्ण आयाम कर्म और फल हैं। जिन पर काफ़ी दार्शनिक मंथन होता आया है। कई तरह के कर्मों की चर्चा भी मिलती है और कई प्रकार के फलों का भी ज़िक्र हुआ है। इनमें से मुझे जो सबसे ज़रूरी जान पड़ता है, उसकी व्याख्या मैं यहाँ करना चाहता हूँ।
कर्मों के जिन तीन प्रकारों का सर्वाधिक उल्लेख मिलता है, वे इस प्रकार हैं - प्रारब्ध कर्म, संचित कर्म और क्रियमाण कर्म। कर्मों का यह विभाजन कर्मफलों के आधार पर किया गया है। प्रारब्ध कर्म में 'प्रारब्ध' का अर्थ ही है कि पूर्व जन्म अथवा पूर्वकाल में किए हुए अच्छे और बुरे कर्म जिसका वर्तमान में फल भोगा जा रहा है। संचित कर्म उसको कहते हैं जो अतीत कर्मों से उत्पन्न होता है, परन्तु जिसका फल मिलना अभी शुरू नहीं हुआ है। इसके अलावा हम अपने वर्तमान जीवन में कुछ ऐसे कर्म कर रहे हैं, जिनका फल भविष्य में मिलेगा, जिन्हें हम क्रियमाण या संचीयमान कर्म के नाम से जानते हैं।
फलों के मुख्यतः तीन प्रकार हैं - जाति, आयु और भोग। ये फल हमें हमारे कर्मों के अनुरूप मिलते हैं। जाति द्वारा हमारे जन्मों का निर्धारण होता है। आयु से यहाँ सिर्फ़ हमारी उम्र का ही निर्धारण नहीं होता है, बल्कि हमारे फलों की आयु का भी निर्धारण होता है, अर्थात् जो फल हम भोग रहे हैं, वो हम कितनी देर तक भोगेंगे, दुख ज़्यादा होगा या सुख, इसका निर्धारण भी आयु से होता है। भोग का सीधा संबंध हमारी क्रियाएं, अनुभूतियाँ और परिणाम से है, सुख-दुःख, लाभ-हानि, भोग-रोग आदि।
इसके अलावा कर्म सिद्धांत के दो प्रमुख नियम हैं - कृतप्रणाश और कृताभ्युपगम। जहां तक मेरी समझ है, ‘कृतप्रणाश’ का अर्थ है - सिर्फ़ कर्ता ही कर्मों का फल भोग सकता है, किसी भी प्रकार के फलों का आदान-प्रदान संभव नहीं है। ‘कृताभ्युपगम’ के अन्तर्गत कोई भी कर्म बिना फल के संभव नहीं है, मतलब, हमारे हर कर्मों का कुछ-न-कुछ फल तो होगा ही, जिसको हमें हर क़ीमत पर भोगना ही पड़ेगा।
मेरी सामाजिक समस्या यहीं से शुरू होती है। आधुनिक काल में जीवन बड़ी तेज गति से भाग रहा है। कोई भी कर्म करने से पहले हमें उस पर विचार करने का भी समय नहीं है। हड़बड़ी में हम कुछ से कुछ किए जा रहे हैं। कुछ को इतनी हड़बड़ी है कि अपने कर्मों और फलों के चक्कर में वे सीधे दूसरे जीवन में छलांग लगा लेते हैं, कभी वे ऊँची इमारतों से कूद जाते हैं, तो कभी फाँसी पर ख़ुद को लटका लेते हैं, ताकि वर्तमान फलों से उन्हें किसी तरह छुटकारा मिल जाये। इस भागती-कूदती दुनिया को देखकर लगता है कि कर्मों से ज़्यादा तो हमें फलों की चिंता है। अब वो चाहे जैसे भी हमें मिल जाये। इसी हड़बड़ी में हम कृतप्रणाश के नियम पर कभी ध्यान ही नहीं देते हैं, हमें लगता है कि होम-हवन के माध्यम से हमें अपने बुरे कर्मों से छुटकारा मिल जाएगा, इसलिए धर्म का व्यापार और इसके इर्द-गिर्द राजनीति की दुकानें काफ़ी चमक उठी हैं।
दोनों ही लक्षणों में हम अपने कर्मों की अज्ञानता को ओढ़ते हुए, फलों की चिंता में जिये जा रहे हैं। तभी तो हम सब इतने परेशान रहते हैं। छात्र-जीवन में पढ़ाई से ज़्यादा हमें परिणाम की चिंता है। नैतिक-अनैतिक किसी भी तरीक़े से हम डिग्री जुटाने में लगे रहते हैं। गृहस्थ जीवन में हम भोग की कामना लिए येन-केन-प्रकारेण हम भोग-विलास का साधन जुटाने में लगे पड़े हैं। कभी नया मोबाइल चाहिए, तो कभी नयी कार, रोटी-कपड़ा और मकान तो ख़ैर हमारी ज़रूरतों में शामिल है। पर बाज़ार हमारी ज़रूरतों का विस्तार कर मुनाफ़ा कमाने की होड़ में लगा हुआ है, और हम अपनी ज़रूरतों का दायरा भी बढ़ाये चले जा रहे हैं। पता नहीं इसका अंत कहाँ होगा?
अगर हमारे पास प्रयाप्त संसाधन है, तो हम अपने कर्मों का फल भोगने के लिए भी नौकर रख लेते हैं। अपने बच्चों को शिक्षित करने के लिए अच्छे से अच्छे, महँगे से महँगे संस्थानों में उसका दाख़िला करवाते हैं। फिर भी अगर इच्छित परिणाम नहीं आया, तो कहीं से अच्छा ट्यूशन भी दिलवा देते हैं। फिर भी अगर कुछ नहीं हुआ, तो घुस-पैरवी कर हम कहीं-न-कहीं उसकी नौकरी भी लगवा देते हैं। वह भी ना कर सके तो उनके लिए कोई धंधा खोल देते हैं, जिससे हमारे बच्चे जीविकोपार्जन कर सकें, हमें अर्थ की ज़रूरत ही क्या है? जब हम जी-जान से भोग-विलास में लिप्त हैं। ऐसी दशा में समाज परेशान नहीं तो और क्या होगा? कौन सी ऐसी समस्या है, जो हमारे ज्ञान से सुलझाई नहीं जा सकती है?
पर, यहाँ तो हालात ऐसे हैं कि हमें तो ईमानदारी भी वही अच्छी लगती है, जिसकी ज़िम्मेदारी हमारी ना हो!
हमें ज्ञान की भी चिंता कहाँ है? हम तो फ़ोन पर ही अपनी स्मृतियों को क़ैद करते जा रहे हैं, जब मौक़ा मिलता है, अपनी ही स्मृतियों को कुरेदते रहते हैं। कौन सी ऐसी संस्था है, जिस पर हमें संशय नहीं है? कौन सा ऐसा भ्रम है, जिसे हमने पाल नहीं रखा है? तर्कों से तो हम अपनी स्मृतियाँ, भावनाएँ, संशय और भ्रम का ही प्रमाण इकत्रित करने में इतना व्यस्त हैं कि प्रत्यक्ष को भी नज़रंदाज़ कर देते हैं, शब्द जो हमें अच्छे नहीं लगते, उनको हम नकार देते हैं। उपमान की गरिमा का तो ऐसा पतन हुआ है कि जहां देखो वहाँ अश्लीलता ही नज़र आती है। अर्थापत्ति तो बस हम अपनी मनमानी के लिए इस्तेमाल करते हैं, हम वही मानते हैं, जो हम चाहते है। सच और सत्य ही हमारी नयी मिथ्या है। आज तो ऐसा प्रतीत होता है कि इस समाज के लिए जगत ही सत्य है और ब्रह्म ही मिथ्या है।