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लोक-माया-तंत्र-जाल

पहाड़ों से लौटकर मैं ससुराल पहुँचा। पहाड़ों पर जीवन कठिन है। उस कठिनाइयों का सामना करने के लिये लोक ने अपनी सुविधा के लिए एक तंत्र बनाया है। हर मोड़ पर जहां गाड़ियाँ फँस सकती हैं। एक हवलदार खड़ा रहता है। कई जगह तो ट्रैफिक पुलिस की वर्दी में महिलायें ही होती हैं। वे गाड़ियों को अपने इशारों पर सुलझातीं हैं। थोड़ा समय लगता है, थोड़ी परेशानी भी होती है, थोड़ी झल्लाहट भी होती है, थोड़ा ग़ुस्सा भी आता है। पर हमारी ही ऊर्जा और हमारा ही बहुत सारा समय इस तंत्र के कारण बच जाता है।

ख़ैर आज जब लौट रहा था, दो-तीन जान मेरे कारण बच गई। बिहार घुसते ही लग जाता है, नर्क के द्वार स्वागत के लिए खुल रहे हैं। जन्नत से सीधा जहन्नुम घुसने का आनंद ग़ज़ब होता है।

भागलपुर घुसते ही, बाईपास पर ३० रुपये का टोल काट लिया गया, टोल द्वार पर कोई नहीं था। टोल द्वार से घुसते ही पैसे कटने का एक मेसेज आया। आनंद मिला। तंत्र कितना मज़बूत हो गया है, इसे अब अपना काम चलाने के लिये किसी पर निर्भर तक नहीं करना पड़ता है। यही तो आत्मनिर्भर भारत है। ग़ज़ब का है, अमृत काल! तंत्र पर बेतहाशा अमृत एकतरफ़ा बरस रहा है, वो भी सीधे और सिर्फ़ उनके निवास स्थल पर! राम-राज्य और क्या होता है?

ख़ैर, जैसे ही आगे निकला, रोड के चिथड़े उड़े मिले, लोक उस पर नंगा नाच रहा था। मुश्किल से दस वर्ष का एक बच्चा, एक कुल्हाड़ी, एक फावड़ा और कुछ लकड़ियाँ लिए साइकिल पर जा रहा था। ज़रूर मजबूरी रही होगी, उसके चेहरे पर ख़ुशी का तो कोई भाव नहीं दिख रहा था। सड़क पर अचानक एक गड्ढा आया। उस लड़के का बैलेंस बिगड़ गया, बटोरी हुई लकड़ियाँ सड़कों पर बिखर गई, वह अपनी साइकिल समेत मेरी गाड़ी के नीचे आने ही वाला था। 

मैं तो अमृत काल में राम-नाम जपते चला जा रहा था। जब वो बच्चा पैसेंजर साइड के रियर-व्यू मिरर में मेरी गाड़ी के नीचे आते दिखा, तो मुझे एक बार फिर अचानक होश आया, और मैंने ज़ोर से ब्रेक मार दिया। मेरी सोती हुई पत्नी और बेटी जाग गई। झटके से बेटी रो पड़ी, उसका सपना जो टूट गया था। 

पिछली सीट पर लेटी हुई मेरी साली सीट से पलटकर गिर गई। पत्नी की नींद पतली थी। उसने देखा कि क्या हुआ था? इसलिए चुप रही। किसी को कोई नुक़सान नहीं हुआ। मैंने उस लड़के की जान नहीं बचायी थी। वह तो अपनी क़िस्मत से बच गया था। मैंने तो ख़ुद को उसके पिता का वध करने से रोक लिया था। 

कैसा पिता होगा, जिसने स्कूल की जगह, किताबों, कॉपियों और पेंसिल की जगह, इतने छोटे बच्चे के हाथ में कुल्हाड़ी पकड़कर इसे लकड़ी काटने भेजा होगा?

अच्छा हुआ, उस लड़के को कुछ हुआ नहीं, वरना लोक मुझे पक्का पीटता। कुछ दिन पहले ही इसी बाईपास के पास पिताजी के ड्राइवर राहुल जी की कुटाई हुई थी।

शायद! इस लड़के का पिता भी अपने हक़ का मुआवज़ा माँगने आ जाता।

मैं ऐसे नालायक बाप का वध कर देना चाहता था।

फिर ख़याल आया, ऐसा अगर करने मैं निकला तो शायद ही इस शहर या इस राज्य या इस देश या इस दुनिया में कोई बच पाएगा! क्या पता उस पिता कि क्या-क्या सामाजिक मजबूरियाँ या परेशानियाँ रही होंगी, जो उसके बेटे को यह सब करना पड़ता है।

इस समाज को तो अभी भी यही लगता है कि एक पिता के लिये बेटियाँ पराया धन होतीं हैं। 

अफ़सोस! इन्हें यह नहीं दिखता है कि आजकल बेटों की विदाई ही पहले होती है। मैं तो शायद ही अपने किसी मित्र को जानता हूँ, जो अपने माँ-बाप के साथ रहता है। कोई रहना भी क्यों चाहेगा? कौन सा बाप अपने बेटे से प्यार करता है?

मैंने रियर-व्यू मिरर में देखा, वह बच्चा संभल चुका था। लकड़ी और अपने औज़ार सड़कों से बटोर रहा था। मैं आगे निकल गया।

जहां टोल रोड ख़त्म होता है, वहाँ से सड़क पर काम चल रहा है। वैसे तो जब से टोल रोड बना है, उस पर भी मैं ने कोई-ना-कोई काम ही चलते देखा है। ख़ैर, मेरी ही नज़रें शायद कमजोर है। तभी तो बचपन से ही चश्मा पहना घूमता हूँ।

अक़बरनगर तक सड़क के दोनों छोर खुदे पड़े थे। इन पाँच-दस दिनों में कोई ख़ास परिवर्तन नज़र नहीं आया है। ख़ैर, आखें तो मेरी ही ख़राब हैं। बाक़ी तो, बिना किसी शिकायत के आराम से चल रहे हैं!

थोड़ा आगे गया, तो कांट्रेक्टर साहब का ट्रक बीच रोड पर खड़ा था। एक पार्ट-टाइम नौकर इंजीनियर वाली टोपी लगाये खड़ा था। गाड़ी आगे जाने का सवाल ही नहीं था। कोई हवलदार या चौंकीदार वहाँ नहीं था। ख़ैर, इन लोगों को यहाँ क्या मिलेगा? यहाँ तो बिना हेलमेट के पैसे वसूलना भी मुश्किल है। क्या पता सड़क की ऐसी दशा और उस फाइन माँगने पर, किसी की सटक जाये और उसने तंत्र से कोई सवाल ही कर दिया, तो चौक़ीदार साहब क्या जवाब देंगे? इसलिए वे यहाँ नहीं हैं, वे वहाँ हैं, जहां से उन्हें कुछ मिल सके! 

इस ग़रीब लोक से वे सब ऊपर उठ चुके हैं। हम ही नालायक या पापी पैदा हुए, जो यहाँ फँसे हैं!

जब मेरे सब्र का बांध जब टूटा, तो मैंने हॉर्न पर हाथ रखा और उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करने लगा। एक मिनट भी नहीं लगा, इंजीनियर साहेब को ग़ुस्सा आ गया। उसने आँख दिखाते हुए, मुझे शांत रहने का इशारा किया। मैंने भी आँखें दिखायी, और हॉर्न पर हाथों से थोड़ा और दबाव दिया। 

गाड़ी लॉक थी। मुझे पीटने के लिए, साहेब को गाड़ी की खिड़की तोड़नी पड़ती। मेरे आगे और पीछे लंबी बौखलाई गाड़ियों की क़तार भी उन्हें दिख रही है। अपनी नज़र झुकाए उन्होंने तुरंत ट्रक को साइड होने का आदेश दिया। किसी तरह जगह मिली, तो मैं आगे बढ़ा।

चार कदम ही आगे गया था। वहाँ एक पेड़ टूटकर गिरा पड़ा था। वह पेड़ भी शायद सड़क-निर्माण के नाम ही क़ुर्बान हुआ होगा। पहाड़ों पर तो सड़कों के बीच भी मैंने पेड़ देखाकर आया था। वहाँ तो गाड़ियाँ आराम से पेड़ के दोनों बग़ल से गुजर रही थी। इस शहीद पेड़ की टहनियों को कुछ लोग काटकर रास्ता बनाने का प्रयास कर रहे थे। वहाँ भी दोनों तरफ़ सड़क खुदी पड़ी थी। पतले से बचे रास्ते में, साइकिल का घुसना भी मुश्किल था। सुबह तीन बजे से बिना रुके गाड़ी हांकते-हांकते मेरी घड़ी में नौ बज चुके थे। तीन बजे निकलने की भी अलग ही कहानी है, कभी और सुनाऊँगा! 

ख़ैर, सबसे आगे मैं ही था, जहां मैं मज़दूरों को उस टूटे पेड़ की लकड़ियों को काटते देख रहा था। यहाँ मैंने हॉर्न बिलकुल नहीं बजाई, गाड़ी बंदकर सड़क के साफ़ होने का इंतज़ार कर रहा था।

जाने का रास्ता थोड़ा साफ़ हुआ, तो मैं उस जगह पर था, जहां से गुजरने का पहला तार्किक अधिकार मेरा ही था। क्योंकि, मैं सड़क के सही साइड पर था। पर मुझे लगा ऐसा करने से जाम लग सकता है। अगर उस तरफ़ से भी कोई आ गया तो जाम लगना पक्का था। मेरे पीछे खड़ी गाड़ियों के हॉर्न बज पड़े, पर मैं रुका रहा। मैं भी थका हुआ था, आराम कर रहा था। कहीं भी पहुँचने की मुझे कोई हड़बड़ी भी नहीं थी।

सामने से जो गाड़ियाँ इसी दशा में पड़ी थी। उनके मालिकों को बहुत जल्दी थी। पहले कुछ बाइक वालों ने ग़लत साइड से गाड़ी निकाली। फिर एक ऑटो वाले ने, फिर सारी गाड़ियों ने भीड़ लगा दी। किसी ने उन दो मज़दूरों की मदद करने का नहीं सोचा होगा। मैंने सोचा, पर मेरे शरीर में इतनी शक्ति नहीं है। बचपन से ही मुझे किसी ने शारीरिक श्रम का महत्व ही नहीं बताया है, ना ही कोई तरीक़ा समझाया गया है। उल्टे हमें तो शिक्षा ही इसलिए दी गई ताकि हम किसान परिवार को छोड़, गाँवों के परिवेश से आगे निकल सकें। जब मुझे नंबर थोड़े कम आ जाते थे, तब माँ कहती थीं - “पढ़ोगे-लिखोगे नहीं, तो क्या भैंस चराओगे? या घास छीलोगे?”

मैं डरकर पढ़ने बैठ जाता था। पर ज़बरदस्ती किसी काम में किसी का मन कैसे लग सकता है? माँ-पिता ने मेहनत कर धीरे-धीरे मेरे लिये सारी सुविधाएँ ख़रीद ली है। मेरी बेटी ने भी उनके पैसों पर ऐयाशी करते हुए होश सम्भाला है। अब वे सेवा-निवृत्त होने वाले हैं। पता नहीं अपनी बेटी को इतनी ऐयाशी आगे कैसे करवा पाऊँगा? क्या मैं एक असफल पिता बनकर ही रह जाऊँगा? मेरे माता-पिता कहते हैं कि क्या नहीं किया उन्होंने मेरे लिए! 

मैं उनसे बिलकुल सहमत हूँ। उनके बिना यहाँ तक मैं कैसे पहुँच पाता?

हाल ही में पिताजी के एक छात्र ने मुझे इस हक़ीक़त का एहसास दिलाया है। उन्होंने कहा मेरा कहना और लिखना तो बिलकुल सही है, पर व्यावहारिक नहीं है। मेरे गुरु भाई ने मुझसे यह भी कहा - “एक बार अपने पिताजी की छत्रछाया से बाहर निकल कर दुनिया देखो, तब तुम्हें हक़ीक़त का पता चलेगा!” 

लगता है, वो समय भी अब दूर नहीं है। सेवा-निवृत्ति के बाद तो गिने-चुने ही छात्र पिताजी से कभी मिलने भी आयेंगे, वैसे भी उनके लिये मेरे पिताजी तब बेकार हो चुके होंगे!

पता नहीं मैं अपनी बेटी को ठीक से पढ़ा भी पाऊँगा या नहीं? ना रोज़गार है, ना आय का कोई साधन, ना ही कमाने की कोई इच्छा!

ईमानदारी से भी कभी किसी धंधे में बरकत हुई है?

मैंने तो लोगों को अनाथालय से भी मुनाफ़े कमाते देखा है। अपना काला धन छिपाने का इससे बेहतर उपाय तो बस धर्मालयों में बचा है। ख़ैर, मंदिर-मस्जिद के बारे में लिखता हूँ, तो कुछ लोग नाराज़ हो जाते हैं। धमकी देते हैं कि अब वे चुप नहीं बैठेंगे। लगता है, मार डालने की अपरोक्ष धमकी दे रहे हैं। 

मर गया तो मेरी बेटी भी इन अनाथालयों के रोज़गार का एक हिस्सा बन जायेगी। इसलिए, मैंने फ़ैसला किया है कि मैं अभी तो नहीं मारूँगा, अभी मुझे बहुत काम करना है। कोशिश करूँगा कि आगे से किसी भी पंथ पर टिप्पणी नहीं करूँगा। इसलिए, एक नये शब्द की तलाश की है - “धर्मालय”, इस उम्मीद में की बहुत सारे पढ़े-लिखे अशिक्षितों को ये समझ नहीं आएगा। जिसे समझ भी आ जाये, वो भी बुरा नहीं मानेंगे। 

इस शब्द में ही धर्मनिरपेक्षता का भाव निहित है। हर पंत के लोग अपने पंत को धर्म ही तो बुलाते हैं, और ख़ुद को धार्मिक!

अच्छा-ख़ासा समय लग गया, ग़लत साइड से सारी गाड़ियों को निकलने में, मैं खड़ा रहा। तब तक, जब तक सड़क के दोनों छोर सुरक्षित नहीं हो गये। कार में बाक़ी लोग सो रहे थे। खिड़की चढ़ी हुई थी। मद्दम धुन में जगजीत जी ग़ज़ल सुना रहे थे। सुबह से मैं उन्हें ही सुन रहा था। जैसे ही रास्ता ख़ाली हुआ, मैं चला। पीछे से कार वाले निकलते हुए, मुझे अपनी-अपनी आँखें दिखाते निकलने लगे। मैं नज़रें झुकाए, किनारे-किनारे चलता रहा। कुछ ने माँ-बहन की गालियाँ भी दी, मैंने उनकी गालियों को स्वीकार करने से ख़ुद को मनाकर दिया। इनसे मेरी कोई निजी दुश्मनी तो थी नहीं, मैं तो किसी को जानता तक नहीं था। ख़ैर वे भी मुझे कहाँ जानते हैं?

फिर लगा लोक को ही जब ख़ुद की कद्र नहीं है, तो तंत्र को इनकी चिंता क्यों होगी, भला?

जब शिक्षक ही लोग घुस दे कर बनते हैं, तो लोक को ईमानदारी सिखाएगा कौन?

हर नुक्कड़ पर एक निजी बीएड कॉलेज खुला है, जहां हर चीज कर भाव तय है। अनुपस्थिति पूरी करने के लिए १०-५०,००० लग जाते हैं। असाइनमेंट की भी क़ीमत तय है। मुझसे बेहतर तो आप ही जानते होंगे।

मेरी पत्नी ने सिर्फ़ अपने कॉलेज में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्वविद्यालय में सबसे अधिक अंक लाये थे। कुछ लोगों को लगा, यह चमत्कार मेरे पिताजी की मेहरबानी से संभव हुआ है। 

मुझे तो नहीं लगता है। अगर ऐसा होता तो उसे परीक्षा दिये बिना ही पास सर्टिफिकेट मिल जाना चाहिए था। पहले वर्ष की वार्षिक परीक्षा में जब वह बैठी थी, उसे हमारी बेटी हुई थी। डॉक्टरों ने पैसे के चक्कर में ज़बरदस्ती ऑपरेशन किया था। किसी तरह अपने फटे पेट को संभले वो नवजात बेटी से दूर, पूरे तीन घंटे पता नहीं क्या लिख कर आयी थी? जो उसने विश्वविद्यालय टॉप कर लिया। उसके कॉलेज ने उसे सम्मानित भी किया है।

देश में ना मौजूदा प्रशासन और ना ही वर्तमान राजनीति को लोक या जनता की ज़रूरत है। प्राइवेट सेक्टर को तो आपकी या मेरी, या हमारे बच्चों की कभी चिंता थी ही नहीं! 

इसलिए तो तंत्र तानाशाह बन गया है। इनकम टैक्स से लेकर टोल टैक्स तक सीधे जनता के खाते से तंत्र के खाते में पहुँच रहा है। 

इधर, इहलोक में शायद ही कोई बचा है, जो अपने बच्चे से भी प्यार करता है।

फिर भी आपको लगता है कि लोकतंत्र बचा हुआ है, और उसे बचाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। तो मेरी तरफ़ से आप सबको हार्दिक शुभकामनाएँ! 

मेरी समझ से तो मौजूदा समाज में लोकतंत्र भी आभासी या वर्चुअल जो चुका है। जैसे इंटरनेट पर फ़ेसबुक पर हम अभिव्यक्ति की आज़ादी तलाश रहे हैं! 

ख़ैर, मेरा भ्रम टूट चुका है। 

इस मायाजाल में फँसा ना मैं परिंदा हूँ, ना इस मायाजाल को बिछाने वाला दरिंदा हूँ। मैं तो बस दर्शक हूँ! साथ में एक दार्शनिक और लेखक भी हूँ। अब कोई मुझसे पूछता है कि मैं जीविकोपार्जन के लिए क्या करता हूँ?

मैं पूरे स्वाभिमान के साथ कहता हूँ कि मैं एक दार्शनिक लेखक हूँ।

पता नहीं आगे मैं क्या करूँगा? फ़िलहाल तो घर-परिवार के सदस्यों ही मुँह छुपाये भटक रहा हूँ। जो भी हो, इहलोक और इसके तंत्र से मेरा दम घुट रहा है। क्या आपकी साँसें बुलंद हैं?

या अभी तक आप अपनी क़िस्मत ही आज़मा रहे हैं।