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A Dream to Behold...

6 July, 2024

Acknowledging my failures, I gained a reason to succeed. Knowing my reason of failure, I estimated a probable roadmap to success. With a map of treasure in hand, I traveled far & wide, both in physical space and temporal zones. I reached the precise destination dictated by the map. There were no treasure waiting for me, where ever I went. But, at each destination I found guards guarding their ignorance of the absence of treasure. They sucked pleasure from the payment they received in return for their services they offered.

शुभारंभ

कल्पनाएँ असीमित हो सकती हैं। शब्द भी अनगिनत हैं। अभिव्यक्ति की संभावनाएँ भी अनंत हैं। इसी अनंत में अपने अर्थ की तलाश का हमें शुभारंभ करना है। संभवतः मैं ग़लत हो सकता हूँ। मेरा सही होना ज़रूरी भी नहीं है। ज़रूरी तो जीवन है। जीवन की अवधारणा सिर्फ़ और सिर्फ़ वर्तमान में ही संभव है। इसकी उम्मीद हम भविष्य से भी लगा सकते हैं। पर, अपने भूत में जीवन की तलाश अर्थहीन है। अनुमान में ज्ञान की संभावना होती है, तर्कों में नहीं। पर, किसी भी अनुमान के लिए व्याप्ति का होना अनिवार्य है। व्याप्ति के लिए प्रमाण लगते हैं। और इन प्रमाणों की सत्यता के लिए ही तर्कशास्त्र की ज़रूरत होती है। अर्थहीन होकर भी तर्क के बिना अनुमान का ज्ञान संभव नहीं है। ज्ञान के लिए अनुमान की अवधारणा को समझना बेहद ज़रूरी है। मैं ही नहीं यह इस लोकतंत्र का भी मानना है। तभी तो तर्कशास्त्र से कई प्रश्न लोकतंत्र विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं पूछता ही रहता है। पर, ना जाने क्यों लोकतंत्र इसे पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझता है। शायद! अनुशासित, आज्ञाकारी और सदाचारी नागरिकों पर शासन करना आसान पड़ता होगा। तभी तो अज्ञानता का इतना प्रचार-प्रसार लोकतंत्र ही करते रहता है। हमें लोकतंत्र के इस अत्याचार का प्रतिकार करना है। इस महाभारत में सत्य और अहिंसा ही हमारा हथियार बन सकता है। क्योंकि, यह महाभारत कहीं और नहीं हमारे अंदर ही चल रही है। यह अनुमान तो हमें लगाना ही पड़ेगा। इसलिए, अनुमान को समझना ज़रूरी है। यह समझ शायद एक नये शुभारंभ का शंखनाद कर पाये।

एक गुमशुदा काल

एक समय था, जब यह देश सोने की चिड़िया कहलाता था। हमारा सत्य सनातन था, सटीक था। ब्रह्म सत्य थे, और जगत मिथ्या। संभवतः, , इसीलिए मिथकों पर ही हमने अपनी आस्था को निछावर कर दिया। अपनी ज़रूरतों पर हमने ही अपने इतिहास में ध्यान नहीं दिया। हमने इतिहास की भी ज़रूरत को नज़रंदाज़ कर दिया। हमें अपना ही इतिहास किसी मिथक से कम कहाँ लगता है? तभी, तो लोकतंत्र ना जाने कहाँ से प्रमाण ला-लाकर हमारा इतिहास ही बदलने की फ़िराक़ में क्यों रहता है?

अंधविश्वास: “विचारहीन विश्वास”

भरोसे को कोई प्रमाण नहीं चाहिए। इसलिए, आस्था भी अंधी हो सकती है। हम कल्पनाओं के साथ-साथ अपने भ्रम पर भी भरोसा कर सकते हैं। पर, ऐसा कर लेने से हमारी कल्पनाएँ सामाजिक इतिहास का हिस्सा नहीं बन जायेंगी। निःसंदेह, वे साहित्यिक इतिहास का भाग हैं। पर, इससे लोकतंत्र की राजनीति क्यों प्रभावित होती जा रही है? मेरी समझ से ‘आस्था’ केंद्र-विहीन ही हो सकती है। क्योंकि, केंद्र के आ जाने से ही सत्य सच से अलग हो जाता है। सत्य — अखंडित है, अटल है, स्थापित है। सत्य शून्य है। केंद्र के आ जाने से शून्यता ख़त्म हो जाती है। जहां से गणित की शुरुवात होती है — पहला, दूसरा, तीसरा ॰॰॰ और ना जाने कहाँ तक? अनंत, सच तक!

इहलौकिक जिजीविषा

स्वर्ग, मोक्ष, मुक्ति, जन्नत या हेवन एक ही अभिलाषा या कल्पना के अलग-अलग रूप हैं। दुख या दर्द हो, या इंद्रियों को प्राप्त सुख ही क्यों ना हो? भोगती तो चेतना ही है, जो ख़ुद आत्मा का क्षणिक वर्तमान है। आत्मा की शाश्वतता को हमारी चेतना वर्तमान की अनंतता के साथ जोड़कर ही समझ पाती है। सुख-दुख अनुभव के पात्र हैं। अनुभूति और अनुभव में बारीक अन्तर है। अनुभव के लिए इंद्रियों का सक्रिय होना ज़रूरी है। अनुभूति विचारों और भावनाओं से भी प्रभावित होती रहती है। अनुभूति वह एहसास है, जिसे हमारी चेतना महसूस कर पाती है। अनुभूतियों का दायरा अनुभव से बड़ा है। अनुभूति शरीर और इंद्रियों से परे है। अनुभूतियों का अस्तित्व ही काल्पनिक है। अनुभव की एकरूपता भी अनुभूति की समानता को स्थापित नहीं कर सकती है। हर अनुभव में अनुभूति का योगदान है। पर, अनुभूति को अनुभव पर आश्रित नहीं रहना पड़ता है। वह विचारों और कल्पनाओं में स्वतंत्र विचरण कर सकती है। यहाँ तक कि अनुभूतियाँ, चेतना में कई काल्पनिक अनुभवों का संप्रेषण करने में सक्षम है। कल्पनाएँ इंद्रियों को भी प्रभावित करने का हुनर जानती है।

पाठशाला या मधुशाला?

लोकतंत्र दवा में भी दारू मिलकर बेच रहा है। दवा की दुकानों से जितनी मदिरा मेरा इहलोक अपने-अपने घर लाता है, उतनी कभी किसी मैखानों में भी कहाँ बिकी होगी। पर दवा की ज़रूरत वह जानता है, क्योंकि लोकतंत्र ने ही उसे बतायी है। अपनी मधुशाला की ज़रूरत समझने के लिए ही तो आत्मनिर्भर होना हमारे लिए ज़रूरी है। अगर अपनी ज़रूरतों को हम समझ पाते, तो शायद अपने बच्चों की औक़ात को तंत्र के दिये प्रमाणपत्रों के आधार पर नहीं आंकते।

पॉवलोव महाराज का कुत्ता

श्रीमान पॉवलोव ने अपने कुत्ते पर प्रयोग किया था। कुत्ते को ख़ाना देने से पहले उन्होंने घंटी बजाना शुरू किया। कुछ ही समय में कुत्ते को यह बात समझ में आ गई कि जब भी घंटी बजती है, उसे ख़ाना मिलता है। एक दिन मुहूर्त निकालकर पॉवलोव भाई ने घंटी तो बजाई, पर कुत्ते को ख़ाना नहीं दिया। बेचारा, कुत्ता लार टपकता ही रह गया। इस प्रयोग को कई मनोवियज्ञानिकों ने दुहराया और इसी निष्कर्ष पर पहुँचे। इसलिए, इसे सिद्धांत का दर्जा दे दिया गया। पॉवलोव महाराज के कारण ना जाने कितने कुत्तों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ हुआ होगा?

बचपन से जुड़ी मेरी कुछ अवधारणाएँ

असंतोष तो हमारा पैदाइशी अवगुण है। संतोष के लिए ही तो हमें शिक्षा, ज्ञान और प्रज्ञा की ज़रूरत पड़ती है। पर यहाँ तो सारा खेल ही उल्टा है। पूरी की पूरी ज्ञान की गंगा ही उल्टी बह रही है। परिवार, समाज और शिक्षा ही हमें असंतुष्ट रहने का पाठ पढ़ाये जा रहा है। फिर, यही लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है। जो भी, जैसी भी मेरी अवधारणा इस परिवार और समाज के लिए बनी, वह कहीं से मुझे जीवन के पक्ष में तो नज़र नहीं आती है। निश्चय ही मैं ग़लत हो सकता हूँ। पर उन प्रमाणों का क्या जो मैं देता आया हूँ?

आत्म-अवधारणा

Elizabeth B॰ Hurlock ने “Self-Concept या आत्म-अवधारणा” को बड़ी बारीकी से समझाने का प्रयास किया है। जिसके लिये उन्होंने कई दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों के द्वारा दी गई परिभाषाओं और सिद्धांतों का प्रयोग किया है। उन्होंने William James और Sigmund Freud जैसे मनीषी दार्शनिकों के साथ-साथ कुछ नामचीन मनोवैज्ञानिकों का भी ज़िक्र किया है। जिसका सटीक अनुवाद करना, मुझे अपनी इस तत्कालीन परियोजना के लिए ज़रूरी नहीं प्रतीत होता है। अगर ज़रूरत पड़ी तो उसका अनुवाद करने का भी प्रयास करूँगा। फ़िलहाल, मैं आत्म-अवधारणा की अपनी समझ को प्रस्तुत करने की अनुमति चाहूँगा। क्योंकि, मेरा अनुमान है कि छात्रों में इन्हीं आत्म-अवधारणाओं के निर्माण की ज़िम्मेदारी समाज की है। ख़ासकर, शिक्षा-व्यवस्था की जवाबदेही है।

इहलोक की अवधारणा

इस लोक की अनंतता में ही उसकी समग्रता है। शून्य ख़ुद में पूरा है — ख़ुद मूल्यवान भी है, मूल्यहीन भी वही है। शून्य “०” अनंत भी है — उसके अंदर भी एक पूरी दुनिया है, उसके बाहर भी एक पूर्ण ब्रह्मांड बसता है। कल्पना के परे भी कोई दुनिया है, या हो सकती है, इससे शायद ही कोई तार्किक प्राणी एतराज रखेगा। एक बेहतर और बदतर दुनिया की कल्पना शुरुवात से हमारे साथ चलती आ रही है। आज भी साथ है, आगे भी अपना साथ निभाते ही जाएगी।