पब्लिक पालिका का बजट
सूचना क्रांति आज एक नए मुकाम पर खड़ी है। ज्ञान अर्थव्यवस्था में सूचना ही नई मुद्रा है। कृत्रिम बुद्धि के उपयोग से हम हर विद्यार्थी के लिए एक अनूठा रास्ता तराश सकते हैं। अब स्कूलों में परीक्षाएं नहीं होंगी। ये सारी सामग्री हर विद्यार्थी को जनहित में उपलब्ध रहेगी। स्थानीय स्कूल को इंटरनेट से जोड़कर देश भर की पब्लिक पालिकाएँ यह सुविधा हर छात्र तक पहुंचाएगी। यहाँ हर कल, विज्ञान की विधा पर विशेषज्ञों के व्याख्यान अखीकृत तौर पर उपलब्ध होंगे। छात्र और शिक्षक मिलकर बेहतर सामग्री करने हेतु शोध और सृजन का रास्ता अपनायेंगे। इस उम्मीद के साथ इस बजट में कुछ और जरूरी संशोधन किए गए हैं। अब देश के नागरिक अपनी मांगों को पब्लिक पालिका को दे सकती है, और जहाँ आयकर एक ख़ास सीमा से ऊपर होगा, वहाँ से राज्य पालिका तक अर्थ के रास्ते खुलेंगे। अब नागरिक नहीं, स्थानीय सरकार ही कमाकर राज्य सरकार को पाल रही होगी। राज्य सरकार की जिम्मेदारी उन क्षेत्रों में संसाधनों की आपूर्ति करने की रहेगी जहाँ आय कम हैं। इस तरह अर्थ की आपूर्ति वहाँ भी होगी जहाँ अब तक बिजली नहीं पहुंची। इसी तरह मुद्रण का प्रवाह राज्य से अब केंद्र की ओर होगा, जहाँ से केंद्र उन राज्यों पर विशेष ध्यान देगा जहाँ अभाव का बोध होगा।
Need I say more?
We are living in a state of personal anarchy. A person is a state in the manner it maintains a sustainable equilibrium with the society one lives in. However, ethical virtues are invariantly applied on a person only in a social environment. Ethics is not at all a personal affair. Before, we delve into the current affairs need I point out that the Eternal Triad is the utmost concern of the Law of the Land. Because, since generations we have been rules under Divine Rule blessed under the Lordship of God. The fall of the medieval ages of Western civilisation is the stark example we must adhere to in the devastating nature of religion hold up by the righteousness of Crusades. No one can count number of dead during the partition of India, and we might be in the midst of Thrid World War. I wonder how many those who lived to see the light of Independence Day, 1947 knew they had just came out of a world war? Even today given the level of education we get I wonder...
हिंदू राष्ट्र बनाम पब्लिक पालिका
Pushpa 2: the Tragedy
अंधविश्वास: “विचारहीन विश्वास”
भरोसे को कोई प्रमाण नहीं चाहिए। इसलिए, आस्था भी अंधी हो सकती है। हम कल्पनाओं के साथ-साथ अपने भ्रम पर भी भरोसा कर सकते हैं। पर, ऐसा कर लेने से हमारी कल्पनाएँ सामाजिक इतिहास का हिस्सा नहीं बन जायेंगी। निःसंदेह, वे साहित्यिक इतिहास का भाग हैं। पर, इससे लोकतंत्र की राजनीति क्यों प्रभावित होती जा रही है? मेरी समझ से ‘आस्था’ केंद्र-विहीन ही हो सकती है। क्योंकि, केंद्र के आ जाने से ही सत्य सच से अलग हो जाता है। सत्य — अखंडित है, अटल है, स्थापित है। सत्य शून्य है। केंद्र के आ जाने से शून्यता ख़त्म हो जाती है। जहां से गणित की शुरुवात होती है — पहला, दूसरा, तीसरा ॰॰॰ और ना जाने कहाँ तक? अनंत, सच तक!
लोक-माया-तंत्र-जाल
देश में ना मौजूदा प्रशासन और ना ही वर्तमान राजनीति को लोक या जनता की ज़रूरत है। प्राइवेट सेक्टर को तो आपकी या मेरी, या हमारे बच्चों की कभी चिंता थी ही नहीं! इसलिए तो तंत्र तानाशाह बन गया है। इनकम टैक्स से लेकर टोल टैक्स तक सीधे जनता के खाते से तंत्र के खाते में पहुँच रहा है। इधर, इहलोक में शायद ही कोई बचा है, जो अपने बच्चे से भी प्यार करता है। फिर भी आपको लगता है कि लोकतंत्र बचा हुआ है, और उसे बचाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। तो मेरी तरफ़ से आप सबको हार्दिक शुभकामनाएँ!
हमारी धार्मिक समस्यायें
धार्मिक समस्या पाखंड में निहित है। दर्शन, मिथक और कर्मकांड तक तो धर्म ही था, चाहे वह किसी भी पंथ का क्यों ना हो! पाखंड से ही तो धर्मालयों और राजनीति की दुकान चल रही है, जो लोक के लिए एक जानलेवा नशा है। तंबाकू या दारू से कहीं ख़तरनाक समाज की शिक्षा के प्रति उदासीनता का जो कैंसर है, वह पूरे लोक और तंत्र को तबाह किए हुए है। यही सामाजिक अज्ञानता, मेरी धार्मिक समस्या है, जिससे मेरा व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन अस्त-व्यस्त है। जिसके निवारण के लिए मैंने दर्शन की शरण ली थी। अब मेरी दार्शिनिक समस्या भी पढ़ लीजिए।
कुछ राजनैतिक समस्यायें
कौन सी ऐसी सामाजिक समस्या है, जिसका निदान तंत्र नहीं कर सकता है? पर इस लोक की समस्या ही तो यही है कि तंत्र ख़ुद ही एक समस्या बन चुका है और लोक उस समस्या की अग्नि में उधार लेकर घी डाल रहा ह। जो आग एक-न-एक दिन उसका घर ही जला डालेगी। लोक तो बस जलने का इंतज़ार करता प्रतीत होता है। हालत तो ऐसी है कि देश में ना मौजूदा प्रशासन और ना ही वर्तमान राजनीति को लोक या जनता की ज़रूरत है। इनकम टैक्स से लेकर टोल टैक्स तक सीधे जनता के खाते से तंत्र के खाते में पहुँच रहा है। आज कोई असहयोग आंदोलन की कल्पना तक नहीं कर सकता है। जो चालक हैं, वो इतिहास से सत्ता सुख भोगने का नुस्ख़ा निकाल ही लेते हैं। मेरी समझ से तो मौजूदा समाज में लोकतंत्र भी आभासी या वर्चुअल जो चुका है। जैसे, सोशल मीडिया पर हम अभिव्यक्ति की आज़ादी तलाश रहे हैं! कहीं कुछ होता है, हम शोक मनाने लगते हैं, या जश्न! अर्थशास्त्र के नाम पर लोक बस चंदा दे रहा है, तंत्र बटोर रहा है, और हम तमाशा देख रहे हैं। प्राइवेट सेक्टर को तो आपकी या मेरी, या हमारे बच्चों की कभी चिंता थी ही नहीं। इसलिए तो तंत्र तानाशाह बन गया है।
कुछ सामाजिक समस्यायें
फलों के मुख्यतः तीन प्रकार हैं - जाति, आयु और भोग। ये फल हमें हमारे कर्मों के अनुरूप मिलते हैं। जाति द्वारा हमारे जन्मों का निर्धारण होता है। आयु से यहाँ सिर्फ़ हमारी उम्र का ही निर्धारण नहीं होता है, बल्कि हमारे फलों की आयु का भी निर्धारण होता है, अर्थात् जो फल हम भोग रहे हैं, वो हम कितनी देर तक भोगेंगे, दुख ज़्यादा होगा या सुख, इसका निर्धारण भी आयु से होता है। भोग का सीधा संबंध हमारी क्रियाएं, अनुभूतियाँ और परिणाम से है, सुख-दुःख, लाभ-हानि, भोग-रोग आदि।
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