|| राष्ट्रकवि दिनकर को एक विनम्र परंतु व्यंग्यबाणयुक्त पत्र ||
शब्द नतमस्तक हैं, पर व्याकरण इस समय थोड़ा बौखलाया हुआ है। आपके चरणों में यह पत्र इस आशा के साथ समर्पित है कि आप वहाँ स्वर्ग में भी किसी को धिक्कार रहे होंगे — किसी श्लोकविहीन मंत्री को, किसी भाषा-प्रेमी अफसर को, या फिर किसी ऐसे आलोचक को जिसने ‘हिंदी’ के नाम पर अपने ड्रॉइंग रूम की दीवारों को सजाया और दिल को कभी छुआ ही नहीं।