Chapter 3: Allies in the Making
अध्याय 2: एक विद्यार्थी की आत्म-धारणा
Chapter 2: The Scholar’s Self-Concept
Chapter 1: The Beginning of a Journey
अध्याय 1: यात्रा की शुरुआत
Richest son that ever lived
मैं कितना असमर्थ हूँ!
मेरा एक सहपाठी मित्र है, जो अब मुझसे बात नहीं करता। पेशे से वह वकील है। उसने देश के सबसे अच्छे केंद्रीय महाविद्यालय से वकालत की पढ़ाई की, फिर कुछ साल इस देश के सर्वोच्च न्यायालय में उसने प्रैक्टिस भी की। फ़िलहाल वह देश के समृद्ध महाविद्यालय के निजी कॉलेज में व्याख्याता है। बच्चों को न्याय पढ़ाता है। वह बताता है कि उसके महाविद्यालय में देश के संभ्रांत घरानों के कौन कौन से बच्चे पढ़ते हैं। कई लाख रुपयों की सालाना फ़ीस है। एक आम आदमी की इतनी औक़ात ही नहीं है कि अपने बच्चों का नामांकन करवाकर, किसी अच्छे निजी स्कूल में पढ़ा सके। बच्चों को पढ़ाने में ज़मीन-जायदाद नीलम करने को मजबूर लोक जय-जयकर कर
शुभारंभ
कल्पनाएँ असीमित हो सकती हैं। शब्द भी अनगिनत हैं। अभिव्यक्ति की संभावनाएँ भी अनंत हैं। इसी अनंत में अपने अर्थ की तलाश का हमें शुभारंभ करना है। संभवतः मैं ग़लत हो सकता हूँ। मेरा सही होना ज़रूरी भी नहीं है। ज़रूरी तो जीवन है। जीवन की अवधारणा सिर्फ़ और सिर्फ़ वर्तमान में ही संभव है। इसकी उम्मीद हम भविष्य से भी लगा सकते हैं। पर, अपने भूत में जीवन की तलाश अर्थहीन है। अनुमान में ज्ञान की संभावना होती है, तर्कों में नहीं। पर, किसी भी अनुमान के लिए व्याप्ति का होना अनिवार्य है। व्याप्ति के लिए प्रमाण लगते हैं। और इन प्रमाणों की सत्यता के लिए ही तर्कशास्त्र की ज़रूरत होती है। अर्थहीन होकर भी तर्क के बिना अनुमान का ज्ञान संभव नहीं है। ज्ञान के लिए अनुमान की अवधारणा को समझना बेहद ज़रूरी है। मैं ही नहीं यह इस लोकतंत्र का भी मानना है। तभी तो तर्कशास्त्र से कई प्रश्न लोकतंत्र विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं पूछता ही रहता है। पर, ना जाने क्यों लोकतंत्र इसे पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझता है। शायद! अनुशासित, आज्ञाकारी और सदाचारी नागरिकों पर शासन करना आसान पड़ता होगा। तभी तो अज्ञानता का इतना प्रचार-प्रसार लोकतंत्र ही करते रहता है। हमें लोकतंत्र के इस अत्याचार का प्रतिकार करना है। इस महाभारत में सत्य और अहिंसा ही हमारा हथियार बन सकता है। क्योंकि, यह महाभारत कहीं और नहीं हमारे अंदर ही चल रही है। यह अनुमान तो हमें लगाना ही पड़ेगा। इसलिए, अनुमान को समझना ज़रूरी है। यह समझ शायद एक नये शुभारंभ का शंखनाद कर पाये।
लोक-माया-तंत्र-जाल
देश में ना मौजूदा प्रशासन और ना ही वर्तमान राजनीति को लोक या जनता की ज़रूरत है। प्राइवेट सेक्टर को तो आपकी या मेरी, या हमारे बच्चों की कभी चिंता थी ही नहीं! इसलिए तो तंत्र तानाशाह बन गया है। इनकम टैक्स से लेकर टोल टैक्स तक सीधे जनता के खाते से तंत्र के खाते में पहुँच रहा है। इधर, इहलोक में शायद ही कोई बचा है, जो अपने बच्चे से भी प्यार करता है। फिर भी आपको लगता है कि लोकतंत्र बचा हुआ है, और उसे बचाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। तो मेरी तरफ़ से आप सबको हार्दिक शुभकामनाएँ!
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