एक कमरा है। उस कमरे में पाँच लोग बैठे हैं। दादा किताब पढ़ रहे हैं। दादी की गोद में चार महीने की बच्ची सो रही है। बहू बच्ची के सूखे कपड़े समेट कर रख रही है। बेटा खिड़की के बाहर देख रहा है। घर का मिज़ाज साहित्यिक है। रीत के नियमों में बँधे सब, कुछ-कुछ सोच रहे हैं।
बाहर तेज बारिश है। गंगा पास से ही गुजरती है, जो आज कल उफान पर है। घर के चारों ओर पानी भरा हुआ है। आँगन डूब चूका है। देहरी पर पानी चढ़ गया है। अब घर घुसने की धमकी दे रहा है।
दादी दो दिन पहले ही आँगन में चढ़ते पानी और बारिश की चेतावनी से डर कर सारा सामान पहली मंज़िल पर चढ़ा चुकी है। दादी थोड़ी ज़िद्दी है, ज़ुझारु है। धार्मिक है, डर उसके स्वभाव में है। भावुक है, सबकी चिंता में ख़ुद के दर्द को भूल चुकी है। शायद ही शरीर का कोई हिस्सा होगा जो दर्द नहीं करता होगा। पर सुबह से शाम तक लगी रहती है। कुछ ना कुछ करती रहती है। तब तक, जब तक शरीर त्राहिमाम-त्राहिमाम चिल्लाना शुरू ना कर दे।
बेटा अपनी माँ से नाराज़ है। दो दिन पहले जब माँ सारे सामान को ऊपर चढ़ा रही थी, वह मना कर रहा था। उसका अंदाज़ा था कि पानी घर नहीं घुसेगा। शायद माँ भी जानती थी, पर वह काम को कभी नहीं टालती। बेटे के लिए माँ की ज़िद्द बेवक़ूफ़ी थी। पर वह परेशान है - माँ की तकलीफ़, उसकी ख़ामोशी और उसके कभी-कभी आने वाले तीखे कटाक्ष से। पर उसकी परेशानी की जड़ - माँ का ज़िद्दी स्वभाव है, जो उसके अस्तित्व को बड़ा नहीं होने देता।
माँ की हालत उससे देखी नहीं जाती। पर उसे घर के काम में कोई रुचि नहीं है और माँ को उसकी इतनी चिंता है की उससे कभी कुछ करने नहीं कहती। वह पूछता भी है कि वह कैसे मदद कर दे, तो वह हंस कर कहती है बस अब तो हो गया और कोई काम नहीं बचा है। दोनों सच्चाई जानते हैं, पर बरसों से ऐसे ही चलता आया है। बेटा रोज़ सोचता है कल से जल्दी आ कर मदद करूँगा। माँ और जल्दी काम निपटा लेती है। सच में कल कभी नहीं आता। थक कर बेटे ने शादी कर ली। पर माँ की आदतों और तकलीफ़ में कोई अंतर नहीं आया। उसके पास कमाई का कोई पुख़्ता साधन नहीं था, इसलिए शादी को टालता रहता था।
बेटा अक्सर माँ का मज़ाक़ उड़ता रहता है। उसके भगवान से उसे चिढ़ है। माँ स्कूल जाती है, पढ़ाने। रोज़ सुबह घर में सबसे पहले उठती है। घर का सारा काम करती है। फिर नहा कर पूजा करती है। जो सम्भव हो पाया कुछ हड़बड़ी में खा कर स्कूल चली जाती है। बेटे को पूजा से चिढ़ है क्यूँकि उसे लगता है माँ अगर पूजा नहीं करेगी तो उसके पास खाने का थोड़ा और समय मिलेगा। ठीक से खा कर जा पाएगी। उसने माँ से कई बार कहा। भगवान से ज़्यादा उसे माँ की चिंता है। पर माँ बहुत ज़िद्दी है। माँ जब सामान ऊपर चढ़ा रही थी, वह कहता है - “अच्छा है माँ तुम मौसम विभाग में नहीं हो, वरना कई लोग तो ख़बर सुन कर ही मर जाते।” माँ को हँसी नहीं आयी थी। पर बेटे को थोड़ी शर्म ज़रूर आ गयी।
अचानक बच्ची ज़ोर ज़ोर से रोने लगती है। दादा का ध्यान किताब से हट जाता है। दादी जो थकी हुई थी, बच्ची को गोद में लिए सो चुकी थी - उठ गयी है। बहू भी कपड़ों को छोड़, बच्ची की ओर लपकी। शायद बच्ची को भूख लगी होगी। वह दूध पिलाने लगी, और बच्ची चुप हो गयी। पर इस वक़्त इन चारों की सोच एक हो गयी है - वह बच्ची और उसके जन्म का दिन।
उस दिन सबेरे-सबेरे ही सब एक निजी हॉस्पिटल में पहुँच चुके थे। सरकारी हॉस्पिटल की हालत देख कर डर लगता है, कहीं कोई और बीमारी घर ना ले आएँ। बहू को भर्ती कर दिया गया। सब के चेहरे पर आशा, आकुलता और दर्द का मिश्रित भाव था। लेबर रूम से आती चीख़ें माँ और बेटे के रोंगटे खड़ी कर देती थी। दादा के सहन शक्ति से बाहर थी वह चीख़ें, वह दूर ही खड़े थे।
दो घंटे बीत गए, कोई ख़बर नहीं आयी। आती-जाती नर्सों से दादी पूछती रहती, सब धैर्य दिला कर चल देती। बेटा माँ से पूछता रहता। माँ सब्र रखने कहती। बहू की एक मौसी नर्स हैं। उन्होंने उससे कहा था कि डॉक्टर अक्सर ऑपरेशन की फ़िराक़ में रहता है। इसलिए धैर्य से काम लेना। वह किसी व्यस्तता के कारण अभी तक यहाँ नहीं आ पायी हैं। उनसे बात हुई है, वह जल्द से जल्द आने की कोशिश में हैं।
दोपहर होने को आया। चीख़ें अब थक गयीं थी। दर्द अब अपने चरम से ढलने लगा है। इसलिए नहीं की कम हो रहा है। बल्कि इसलिए कि अब सहन-शक्ति आदी हो चुकी है। डॉक्टर ऑपरेशन करने की सलाह देने लगे हैं। जल्द फ़ैसला करने को कह रहे हैं। साथ में धमकी भरा भी हिस्सा है - अगर और विलम्ब किया तो माँ और बच्चे, दोनों के जान को ख़तरा होगा। बहू ने सास और पति से कई बार आग्रह किया था - कुछ भी हो जाए ऑपरेशन नहीं करवाने का।
मौसी के आने का अभी तक कोई लक्षण नहीं दिख रहा है। दादी परेशान, बेटे की हालत बेहद ख़राब। दादी लगातार बहू के घरवालों से बात करने कोशिश कर रही हैं। पर सब मिल कर भी किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पा रहे हैं। समय गुज़रता जा रहा है। बहू थक चुकी है। किसी को उससे मिलने की इजाज़त नहीं है। बेटे से रहा नहीं जा है। वह लेबर रूम के पास जाने की कोशिश में है।
लेबर रूम और प्रतीक्षा कक्ष के बीच दो दरवाज़े हैं। वह किसी तरह पहले दरवाज़े के भीतर घुस जाता है। उसी वक़्त डॉक्टर वहाँ आती हैं। शायद आज सुबह से पहली बार दर्शन दिया है। बेटे को देखते ही वह चिल्लाती हैं - “पागल हो गए हो क्या तुम?”। बेटे को उनके ग़ुस्से का कारण समझ में नहीं आया। पहले तो वह आवक था। डॉक्टर कुछ-से-कुछ बक रही थीं। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। उन्होंने फिर पूछा - “पागल हो गए हो क्या तुम?”। समझ तो अभी भी कुछ नहीं आया था उसे, पर ग़ुस्सा ज़रूर आ गया था। उसने भी पलट कर बोल दिया - “हाँ पागल हूँ मैं। वहाँ जो दर्द से चीख़ रही है वह मेरी बीवी है, होने वाला बच्चा मेरा बच्चा है। मुझे चिंता है। मैं मिलना चाहता हूँ। अगर ये पागलपन है, तो हाँ मैं पागल हूँ।”
डॉक्टर को शायद ऐसे जवाब की अपेक्षा नहीं थी। वह भी शायद थोड़ा डर गयी। पर अश्मिता बचाते हुए ऊँचे स्वर में बोल दी तो चले जाओ अंदर। बेटे को तो मौक़ा चाहिए था। वह अंदर चला गया। अंदर का दृश्य देख कर उसकी रूह काँप गयी। उसकी पत्नी लेबर बेड पर थकी हारी लेटी है। जितनी हिम्मत बची है उसमें मदद माँग रही है। नर्सों का जोड़ा कोने में बैठ कर हँसी मज़ाक़ कर रहा है। बेटे का ग़ुस्सा आसमान छू गया। वह नर्सों पर बिगड़ पड़ा। नर्सों ने कहा डॉक्टर ने मरीज़ को हाथ लगाने से मना किया है।
बेटा अपनी पत्नी के पास पहुँचा। पूछा कैसी हालत है। वह दर्द से थक चुकी है। फिर भी धैर्य से बोलती है - “ठीक है”। ऑपरेशन की बात पर बोली मौसी को आ जाने दें तभी कोई फ़ैसला करें। इसी बीच नर्सों ने बच्चे की धड़कन की जाँच की। बेटे को भी सुनायी। सुनकर एक पल को हर्षित हुआ। पर ग़ुस्से ने उसे फिर आ घेरा। वह फिर नर्सों पर बिगड़ पड़ा। हल्ला सुन कर माँ अंदर आ गयी। बात कहीं और ना बिगड़ जाए उसने बेटे को किसी तरह वहाँ से निकाला।
बाहर आ कर फिर वही घबराहट, पर अब ग़ुस्सा भी था दोनों में। माँ तो ग़ुस्से पर क़ाबू कर लेती है। पर बेटा आग-बबूला है। माँ उसी पर ग़ुस्सा जाती है। ठीक ही था, बेटे के ग़ुस्से से कुछ हासिल नहीं होने वाला था। बेटा भी समझ रहा था। पर ग़ुस्से पर फ़िलहाल उसका क़ाबू नहीं था। इसलिए वह सड़क पर बाहर चला जाता है।
थोड़ी देर बाद वह वापस आता है। हालत में कोई अंतर नहीं आया था। माँ और पिता को परेशान देख कर भी चुप है। दोनों ऑपरेशन करवाने की चर्चा कर रहे थे। बहू के घर से अभी तक कोई नहीं आया था। शाम होने को थी। डॉक्टर लगातार ऑपरेशन जल्द से जल्द करवाने की सलाह दे रही थी। आख़िर में दादा ने फ़ैसला किया अब और देर करने का कोई फ़ायदा नहीं।
बहू को ऑपरेशन कक्ष में ले जाने लगे। बेटा अपनी पत्नी के हाथ पकड़े उससे कह रहा है - “सब ठीक हो जाएगा। चिंता ना करे। सब लोग यहीं उसके साथ हैं।” उसने भी नियति के इस खेल से हार कर ऑपरेशन को मानसिक रूप से स्वीकार कर लिया।
आधे घंटे तक ऑपरेशन चला। सब बाहर बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। थोड़ी देर बाद नर्स बाहर आयी और बोला - “मुबारक हो! राजकुमारी आयी है!!” सब बहुत ख़ुश हुए। इस घर में बेटे और बेटी में कोई फ़र्क़ नहीं किया गया था कभी। तभी डॉक्टर ने दादी और बेटे को ऑपरेशन कक्ष में बुलाया। पोती को देख कर दादी के आँख में आँसू आ गए। पिता बनने की ख़ुशी अभी तक बेटे के चेहरे पर नहीं आयी थी। वह अभी तक स्तब्ध था। दोनों के चेहरे भाव-विहीन थे।
तभी डॉक्टर के इन शब्दों ने दोनों के होश उड़ा दिए - “आप लोगों ने तो बेटी को मारने का पूरा इंतज़ाम कर लिया था।” बेटे के समझ में ज़्यादा कुछ तो नहीं आया, पर इस पल में ग़ुस्सा उसके सिर के ऊपर से बह गया। माँ को भी ग़ुस्सा ज़रूर आया होगा, पर उस पर क़ाबू करते हुए पूछा - “क्या हुआ?” डॉक्टर ने कहा ऑपरेशन में देरी की वजह से बच्ची के सिर में आंतरिक चोटें आयी हैं, और उसके शरीर में आक्सीजन की भारी कमी है। वह रोयी भी नहीं है।
बेटे का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था। ऑपरेशन की नौबत ही क्यूँ आने दिया डॉक्टर ने। पहले ही क्यूँ नहीं डॉक्टर ने सामान्य प्रसव के लिए प्रयास किया। क्यूँ किसी नर्स ने उसके पत्नी की मदद नहीं की। जाने और कितने ग़ुस्से की वजह से वह शांत रहा, पर अंदर से जलकर भस्म हो गया। माँ का संयम भी उसके ग़ुस्से का एक कारण बन बैठा था। बेटी के असहाय शरीर को देख हैरान था। वह कुछ भी करने को तैयार था।
दादी ने डॉक्टर से पूछा क्या करना चाहिए। डॉक्टर ने बच्ची को दूसरे डॉक्टर के पास ले जाने को कहा। कोई और चारा भी तो नहीं था। सब बच्ची को ले कर चल पड़े। वहाँ डॉक्टर ने उसे भर्ती किया। अगले दस दिनों तक बच्ची वहाँ भर्ती रही।
एक हफ़्ते तक बहू भी हॉस्पिटल में भर्ती रही। बेटा, दादा, दादी और बाक़ी परिवार के लोग सब कुछ सम्भालते रहे। बेटे ने देखा बाक़ी सारे मरीज़ों का भी ऑपरेशन ही हुआ। क्या जब ऑपरेशन का विकास नहीं हुआ था तब बच्चे नहीं होते थे। सिर्फ़ पैसे के लिए डॉक्टर मरीज़ से खेलता रहता है - वह सोचता रहा। डॉक्टर ने बिल से भी ज़्यादा पैसों की माँग की। नर्सों ने बक्शीश माँगने में भी कोई शर्म नहीं दिखायी। महँगी से महँगी दवाई मंगवायी गयी। पैसे का मोह बहुत नहीं था, बेटे में। पर सब के लालच को देख कर वह सर पीट कर सोच रहा था - “ऐसे समाज में क्यूँ उसने बच्चा पैदा कर दिया।”
लेकिन ये पीड़ा बहुत ज़रूरी होती है, वरना बिना पीड़ा के सृजन कहाँ होता है? आख़िर माँ बनने से बड़ी कोई शारीरिक पीड़ा इंसान शौक़ से कहाँ सहता है?