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गलती

यह घटना बहुत पुरानी है। मुश्किल से मैं तीसरी या चौथी कक्षा में पहुँचा था, उम्र ८-१० साल की रही होगी।

स्कूल में छुट्टी गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थी। घर पर माँ नहीं थी। पिताजी मुझे पढ़ा रहे थे। अचानक उन्हें कुछ काम याद आया। उन्होंने कहा - “तुम पढ़ो, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।”

पिताजी निकल गये। मुझे मौक़ा मिल गया। फ़ौरन सामने वाले घर से अपने दोस्त बिट्टू को बुलाया। बाहर के बरामदे पर तीन किल्लियाँ टिकायी, पहली बैटिंग के लिए थोड़ी बहस हुई। बिट्टू बहस में या टॉस जीत गया, ठीक से याद नहीं। उसने बल्ला सम्भाला मैंने गेंद उठायी। इतने में गली के कोने से पिताजी आते नज़र आये, कुछ भूल गए थे शायद।

दुविधा हुई, इतनी जल्दी कैसे वापस आ गये, पिताजी?

पिताजी पढ़ने को बोल कर गये थे। और मेरे हाथों में किताब-कॉपी की जगह गेंद थी। मुझे शर्म आ गई। थोड़ी देर में आते तो मेरे पास बहाना तैयार होता - “बस अभी खेलना शुरू किया था।”

पर इतने कम समय में इस बहाने का उपयोग आत्मघाती साबित होता। मुझे कुछ सूझा नहीं, तो मैंने गेंद फेंकी। बिट्टू को छुपने का इशारा किया। किल्लियाँ और बल्ले को ठिकाना लगाया। तब तक पिताजी घर तक पहुँच चुके थे। मुझे पक्का यक़ीन था, अब तो डाँट पड़ने ही वाली है।

मैं सहमा हुआ था। पर पिताजी ने मुझे अनदेखा कर, घर में दाखिल हुए। जो कुछ भी छूट गया था, उसे समेट कर फिर निकल गये। ना कुछ बोला, ना डाँटा। बस समान लिया और चले गये।

शर्म से मैं सर झुकाए खड़ा रहा।उनके जाने के बहुत देर बाद तक मैं वैसे ही खड़ा रहा। छिपा हुआ बिट्टू बाहर निकल कर आया। मैंने उससे जाने को कहा। वो भी चला गया। घबराया हुआ, अकेला पता नहीं कब तक मैं बैठा रहा।

पिताजी लौट कर आये, कोई बात नहीं हुई। माँ भी लौट कर आयी। कोई चर्चा नहीं हुई। सबने ख़ाना खाया, लगभग चुप-चाप। फिर हम सब सो गये। उस वक़्त तक मैं मम्मी-पापा के बीच सोया करता था। बग़ल में लेटे पिताजी से घबराहट हो रही थी। 

वे कुछ बोल क्यों नहीं रहे हैं?

मुझे डाँटते क्यों नहीं हैं?

कुछ बोल देते, डाँट ही देते तो चैन से सो जाता। पर वे चुप-चाप लेटे रहे। पता नहीं, वे रात भर सोये या नहीं। मैं सो गया। सुबह हुई। पिताजी उठ चुके थे। माँ भी। मैं उठा। पापा को खोजने लगा।

नहीं मिले, तो माँ से पूछा। उन्होंने बताया - “अख़बार लेने गये होंगे शायद। बोले हैं तुम्हें तैयार कर देने। आयेंगे तो बाल कटवाने जाना है। अगले हफ़्ते स्कूल भी खुल रहे हैं ना।”

मायूस सा मैं तैयार हुआ। पिताजी आये। मुझे आगे साइकिल पर बैठाये और चल दिये।

कुछ देर चुप-चाप साइकिल चों-चों करते चलती रही। फिर पिताजी बोले, जिस अवाज को सुनने को मैं तरस गया था। उन्होंने पूछा - “पिछले हफ़्ते मेरे दाढ़ी बनाने वाला आईना टूट गया था। याद है?”

मेरी सिट्टी-पिट्टी गम हो गई। वो आईना मुझसे ही टूट गया था। पिताजी ने जब पूछा था - “कैसे टूट गया?” तो मैंने बोला था - “मुझे नहीं पता!” शायद, पिताजी उसी आईने की बात कर रहे थे।

मेरी चुप्पी को थोड़ी देर मुझे झेलने दिया। मौक़ा दिया वो दृश्य एक बार फिर अनुभव करने का। फिर बोले - “मैंने देखा था, वो आईना तुमसे टूटते हुए।”

मेरे तो होश सातवें आसमान पर उड़ने निकल पड़े थे। पिताजी ने उन्हें नयी ऊँचाइयों को छूने की थोड़ी आज़ादी दी, चुप रहे। उस दिन भी मेरे ‘पता नहीं’ वाले जवाब के बाद वे कुछ नहीं बोले थे।

फिर बोले - “कल गली के कोने पर तुम मुझे देख कर छुपने क्यों लगे थे?”

इस क्षण तो मन-मन ही अपने ही होश से ये गुज़ारिश कर रहा था, कि थोड़ी देर के लिए कहीं ग़ायब हो जाये, तो सुकून मिलेगा। पर पिताजी का सवाल बिलकुल सीधा था और मन बेहोश होने को तैयार नहीं था। ऐसी दशा में मुझे जवाब तो देना ही पड़ेगा।

हकलाते हुए मैं बोला - “आपने पढ़ने को… कहा था, और… मैं बिट्टू के साथ… खेलने लग गया था।… इसलिए आपको आता देख कर… डर गया था।”

उत्तर सुनकर पिताजी फिर चुप।

मेरा मन बेचैन था, पर बिलकुल विचारहीन। कोई शब्द, कोई वाक्य, कुछ भी अंतर्मन से नहीं गुजर रहा था। खामोशी थी, पर शांति नहीं, जैसे लगातार मद्धम-सुर में कोई सिटी बज रही हो। मन की इसी खामोशी के करण शायद यह बात, जो पिताजी ने कही वो चेतना में व्याप्त हो गई।

वे बोले - “देखो बेटा! वो आईने वाली गलती तुम अगली बार भी करोगे। मैं ये बात दावे के साथ कह सकता हूँ। पर कल छुपने वाली गलती दुबारा नहीं करोगे, इसका भी मुझे पूरा भरोसा है। पता है - क्यों?”

मेरे मन में गूंजती वो व्याकुल कर देने वाली सिटी अचानक बंद हो गई। उसकी जगह शास्त्रीय संगीत बजने लगा। मधुर सी एक तान सुनायी देने लगी। उसकी धुन दिल को दिलासा दे रही थी। मन की खामोशी को भेद कर एक शांति छाने लगी थी। पिताजी ने मेरे मन को शांत होने का समय दिया।

फिर बोले - “क्योंकि, कल की गलती तुमने मान ली थी। इसलिए दुबारा करने के पहले कई बार सोचोगे। इतना सोच-विचार कर कोई गलती थोड़े ही करता है। इसलिए इस गलती को तुम दुबारा नहीं दुहराओगे।

“पर आईने वाली गलती को तुमने स्वीकार नहीं किया था। इसलिए अगली बार भी ‘गलती’ गलती-से हो ही जाएगी।”

फिर वे चुप हो गये। हम नाई की दुकान पर पहुँच चुके थे। हमारे बाल काट रहे थे। मेरा दिमाग़ नयी मिली सूचनाओं को संग्रहित करने में व्यस्त था।

लगभग २५ साल गुजर चुके हैं, इस बात को बीते, पर आज भी पिताजी की दी इस सीख का मैं साक्षी बना बैठा हूँ।