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मैं प्रधानमंत्री बनना चाहता हूँ!

जब मैं बच्चा था, लोग पूछते थे बड़ा हो कर तुम क्या बनना चाहते हो? जवाब आप सब जानते ही होंगे - नहीं पता। पर ‘पता नहीं’ तक पहुँचने से पहले, मैंने जवाब ढूँढने की कोशिश पूरी तन्मयता से कि थी। एक दिन अपने पिताजी से मैंने पूछा दुनिया का सबसे बड़ा पद कौन सा होता है? इसका कोई सटीक जवाब नहीं दे पाये मेरे पापा, शायद इसका निर्धारण करना संभव नहीं होगा। तब मैंने उस सवाल के दायरे को थोड़ा और सीमित किया, पूछा - इस देश का सबसे बड़ा पद कौन सा है? इस पर पिताजी का ज्ञान अच्छा था, उन्होंने समझाया इस देश का सबसे ऊँचा पद हमारे राष्ट्रपति का होता है, मगर सबसे ज़्यादा ताक़त हमारे प्रधानमंत्री के पास होती है। दिमाग़ चक्कर खा गया - मेरे बाल मन को परिभाषा में तार्किक समस्या नज़र आयी। जो सबसे ज़्यादा ताकतवर होगा उसका ही पद सबसे ऊँचा होना चाहिए ना। ख़ैर वक़्त के साथ मैं भी समझ गया वही जो हम आप जानते हैं। मैंने सोचा तब तो प्रधानमंत्री ही बनने कि कोशिश करनी चाहिए। जब राष्ट्रपति सिर्फ़ नाम का बड़ा, तो फिर किस काम का।

निश्चय कर लिया अगली बार कोई पूछेगा कि बड़ा हो कर क्या बनोगे तो कह दूँगा - “मुझे तो प्रधानमंत्री बनना है।” पहले तो अपने ही पिता से कह दिया, उनके बिना पूछे ही - उन्होंने कहा - क्यों नहीं बन सकते हो, ज़रूर बन सकते हो। पर कैसे बनूँगा ये नहीं बता पाये। पर उन्होंने कोशिश कि, जितना समझा पाये, समझाया। आज भी वे जवाब ढूँढ रहे हैं। ख़ुद चुनाव लड़ कर अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रहे हैं। पर ये सब बहुत बाद कि बात है। बचपन का वक़्त कुछ ज़्यादा ही तेज़ी से गुजरता है। समय गुजरा ज़िंदगी के बोझ तले, मेरा सपना भी मर गया। नौकर बनने की दौड़ में वक़्त गुजरता गया। हारता गया, पर सोचता गया - आगे क्या?

ख़ैर उस बच्चे को तब अक्ल कहाँ थी। अगली बार जब किसी ने पूछा तो उसने अपना खोजा उत्तर दे ही दिया। वो चेहरा याद नहीं, ना ही उसका नाम, पर उसकी हंसी और वो ठहाका आज भी चेतना में गूंज उठता है जब कोई पूछता है - आगे क्या? यह ठहाका हम में से किसी का भी हो सकता है, मेरा भी। पर सवाल है क्या हम में से किसी को शर्म आयेगी जब हमारा बच्चा यही जवाब देगा। क्या तब भी हम ठहाका लगायेंगे? और तब भी अगर उस बच्चे ने पूछ दिया - “मैं प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकता?” क्या हम उसका जवाब दे पायेंगे? क्या उसे बता पायेंगे कोई प्रधानमंत्री कैसे बनता है इस देश का और बच्चे तुम क्यों नहीं बन सकते। क्या बता पायेंगे प्रधानमंत्री बनने के लिए बहुत सारा पैसा, अच्छी ख़ासी पहुँच और ना जाने ऐसा क्या लगता है जो किसी आम आदमी की औक़ात के बाहर है? क्या हम  समझा पायेंगे? फिर भी वो ना माना और लोकतंत्र की परिभाषा ही पूछ डाली, तो क्या हम उस परिभाषा को यथार्थ के साथ जोड़कर समझा पायेंगे? क्या चायवाले की कहानी से हम लोकतंत्र का उदाहरण दे पायेंगे?

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होते हुए भी हम कितने असहाय हैं, अपने जीवन में सही अभिव्यक्ति को तलाशने में। हम जब कहना चाहते हैं - क्यों नहीं हो पाएगा.. हमारी अभिव्यक्ति में कहीं छिपा होता है - ये नहीं हो पाएगा। हम ख़ुद को जब अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम नहीं तो कैसे हम लोकतंत्र को समझ पायेंगे? कैसे वोट कर चुन पायेंगे अपनों को जो हम लोगों के लिये काम कर पाये? Democracy में demoशोध लोगों के लिए था, भारत पहुँचते पहुँचते वो लोकतंत्र हो गया। लोक की सीमा नहीं है, पूरा संसार ही नहीं, उसके परे की भी सलतनत इस परिभाषा में शामिल है - इहलोक भी और परलोक भी। तभी तो मंदिर और मस्जिद के नाम पर वोट करते हैं हम, परलोक के भरोसे। Democracy के लिए हिन्दी में सही शब्द “लोगतंत्र” होना चाहिए था, मेरी समझ से। वैसे लोक ज़्यादा उचित है क्योंकि उसमें इंसान ही नहीं पशु पक्षी भी शामिल किए जा सकते हैं, परियावरण भी। पर ये तभी हो पाएगा जब लोगतंत्र स्थापित हो जाये तब अगला पड़ाव लोकतंत्र का हो सकता है। जब बात विस्तार की आये, तब। जब ज्ञान अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाये, तब। और ये तब हो पाएगा जब हम जीवन का अर्थ यानी मतलब और अर्थ यानी मूल्य को समझ पायेंगे।

इसी प्रयास में मैंने पढ़ाई शुरू कि, इतिहास और अर्थशास्त्र पढ़ा, भूगोल भी, राजनीति विज्ञान पढ़ा और दर्शन भी। थोड़ा मनोविज्ञान भी पढ़ा और समाजशास्त्र की पढ़ाई अब शुरू करूँगा। मेरा मानना है की ज्ञान में ही संभावना है ऐक्षिक परिवर्तन करने कि, वरना परिवर्तन तो होता ही रहेगा। इतिहास इस बात का गवाह है, जब बुद्ध या गांधी या मंडेला ने समाज में एक नयी क्रांति का बिगुल फूंका। भूगोल हमें अपनी कर्मभूमि का ज्ञान देता है। दर्शन हमें भविष्य का आँकलन करने में तार्किक सहायता करता है। और आख़िर में सब पढ़ाई का एक उद्देश्य सामने बाहर आया - हम जो कुछ भी पढ़ते हैं या कोई शोध करते हैं, हम भविष्यवाणी करने के लिए ही तो करते हैं। शायद इसी कारण सबसे पहले हम लोगों ने ज्योतिषविद्या का निर्माण किया था - Astrology। मैंने इस प्रक्रिया को एक नया नाम देने का प्रयत्न किया है - ज्ञानाकर्षण(Learnamics), क्योंकि लगा ज्ञान हर क्षण गतिशील है। दो ही संभावना है उस तक पहुँच पाने कि, पहली तो यह की ज्ञान ख़ुद ही हम तक पहुँच जाये या फिर हम ज्ञान तक पहुँच जायें। पर ये निर्भर करता है हमारी जिज्ञासा पर। और जिज्ञासा निर्भर करती है हमारे जीवन के मूल्यों के अंदाज़े पर। इसलिए मैंने जीवर्थशास्त्र(Lifeconomics) की कल्पना कि। और जब हमारा ज्ञान प्रखर होगा तब हम सही और सच्ची अभिव्यक्ति कर पायेंगे। और उसे समझने और समझाने के लिये मैंने अभिव्यक्तिशास्त्र(Expressophy) को आकार देने की कोशिश कि। काम अभी बीज अवस्था में ही है। अभी और ज्ञान को आकर्षित करने की ज़रूरत जान पड़ती है।

ख़ैर इन तीन दार्शनिक स्तंभ पर मैं “Devloved academy” का गठन करना चाहता हूँ, जो ज्ञान की मौलिकता पर ज़ोर दे सके। मेरे हिसाब से एक अच्छा छात्र वो नहीं है जो सही उत्तर दे सके, बल्कि वो है जो सही सवाल कर सके। मैं इस अकैडमी में सवाल करना सिखाना चाहता हूँ। इस अकादमी की बुनियाद पर मैं लोगतंत्र की स्थापना की कल्पना करता हूँ, जहां कोई भी छात्र इस देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख सके, मैं भी। पिछले कई सालों में मैंने लगभग संसाधन और प्रणाली तैयार कर रखी है। हाल ही में मैंने अभिव्यक्तिशास्त्र पर पाँच दिवसीय कार्यशाला भी करवाने की कोशिश कि, सफल भी रही। पर उसे आगे बढ़ाने में कई कारणवश विफल रहा। एक नयी शुरुआत करना चाहता हूँ। इसलिए अपनी कल्पना आपके साथ साझा करता हूँ। आप ही कोई रास्ता सुझाएँ। और अगर संभव हो तो इस यात्रा में हमसफ़र बनने कि कामना रखते हुए, आप के बीच पहुँचने का प्रयास करता रहूँगा। आपकी शुभकामनाओं और आपके साथ का अभिलाषी॥

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.