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A Dream to Behold...

6 July, 2024

Acknowledging my failures, I gained a reason to succeed. Knowing my reason of failure, I estimated a probable roadmap to success. With a map of treasure in hand, I traveled far & wide, both in physical space and temporal zones. I reached the precise destination dictated by the map. There were no treasure waiting for me, where ever I went. But, at each destination I found guards guarding their ignorance of the absence of treasure. They sucked pleasure from the payment they received in return for their services they offered.

मेरा शोध-प्रस्ताव 

अपने लेखन-परियोजना के दूसरे खंड - "आगे क्या?" पर मैंने काम करना शुरू किया। पर क़रीब 9 अध्याय लिखने के बाद, मुझे अपने लेखन से संतुष्टि नहीं मिली। इसमें सुधार करने की हिम्मत नहीं है। सुधार करने से आसान, मुझे नयी शुरुवात करना ज़्यादा उचित लगा। नौवाँ अध्याय पूरा नहीं हो पाया, अधूरा ही है, शायद ही पूरा हो। पर इसी क़िस्से को एक नये अन्दाज़ में फिर से लिखूँगा।

मैं प्रधानमंत्री बनना चाहता हूँ!

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होते हुए भी हम कितने असहाय हैं, अपने जीवन में सही अभिव्यक्ति को तलाशने में। हम जब कहना चाहते हैं - क्यों नहीं हो पाएगा.. हमारी अभिव्यक्ति में कहीं छिपा होता है - ये नहीं हो पाएगा। हम ख़ुद को जब अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम नहीं तो कैसे हम लोकतंत्र को समझ पायेंगे? कैसे वोट कर चुन पायेंगे अपनों को जो हम लोगों के लिये काम कर पाये? Democracy में demoशोध लोगों के लिए था, भारत पहुँचते पहुँचते वो लोकतंत्र हो गया। लोक की सीमा नहीं है, पूरा संसार ही नहीं, उसके परे की भी सलतनत इस परिभाषा में शामिल है - इहलोक भी और परलोक भी। तभी तो मंदिर और मस्जिद के नाम पर वोट करते हैं हम, परलोक के भरोसे। Democracy के लिए हिन्दी में सही शब्द “लोगतंत्र” होना चाहिए था, मेरी समझ से। वैसे लोक ज़्यादा उचित है क्योंकि उसमें इंसान ही नहीं पशु पक्षी भी शामिल किए जा सकते हैं, परियावरण भी। पर ये तभी हो पाएगा जब लोगतंत्र स्थापित हो जाये तब अगला पड़ाव लोकतंत्र का हो सकता है। जब बात विस्तार की आये, तब। जब ज्ञान अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाये, तब। और ये तब हो पाएगा जब हम जीवन का अर्थ यानी मतलब और अर्थ यानी मूल्य को समझ पायेंगे।

आगे क्या?

लगभग २० वर्षों के बाद आज भी वही सवाल सामने है - आगे क्या? आज भी वही जवाब है - नहीं पता। आपके पास अगर कोई सुझाव हो तो बतायें। दूसरों की नज़र में तो ख़ुद को असफल देखता ही आया हूँ, आदत सी हो गई है। पर अब तो अपनी नज़रों में भी असफलता का चश्मा पहने घूमता हूँ। माँ पिता की मेहनत और ईमानदारी से कमाई संपत्ति भी बेवजह खर्च करता आया हूँ। आज भी कर रहा हूँ। अब तो मैं ही नहीं मेरे बच्चे की परवरिश की ज़िम्मेदारी उनके माथे पर है। शर्मिंदा हूँ, और असमर्थ भी। लौट कर किसी कंपनी में जूनियर इंजीनियर की तरह काम करने की ना हिम्मत बची है, ना चाहत। हाँ ज़रूरत सी ज़रूर जान पड़ती है। लगभग २० वर्षों के बाद आज भी वही सवाल सामने है - आगे क्या?