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आगे क्या?

जीवन और उसके लक्ष्य को समझने का प्रयास आदिकाल से मनुष्य करता आया है। कोई सटीक जवाब नहीं मिला आज तक, क्योंकि ये सवाल वस्तुनिष्ठ नहीं, बल्कि व्यक्तिनिष्ठ है। सब अपने हिसाब से मूल्यांकन करते हैं। और कोई सही ग़लत नहीं होता। हाँ सफल असफल हो सकते हैं। सफलता या असफलता भी दो तरह की होतीं हैं। एक अपनी नज़रों में, दूसरी दूसरों के दर्पण में तलाशती अपनी ख़ुद की आँखों में।

दसवीं के बाद क्या करूँगा, मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था। जब भी कोई पूछता था क्या करोगे ज़िंदगी में, बड़ा तेज ग़ुस्सा आता था उस पर। कितनी बार बताऊँ नहीं पता। सारे दोस्त बड़े बड़े शहरों की तरफ़ लपके। मैं लगभग अकेला अपने शहर में रह गया। एक साल ग्याहरवीं का किसी तरह गुजरा। मैं विचलित भी हुआ और कुंठित भी। पिताजी से कहा मुझे भी बाहर जाना है। उन्होंने समझाने की पूरी कोशिश भी कि। पर क्या समझते क्या नहीं, ना उन्हें पता था शायद ना ही मैं सुनने को तैयार था। सो फ़ैसला हुआ कोटा जाने का, क्योंकि वहीं सीधे बहराहवीं में दाख़िला मिल सकता था। इक्के, दुक्के दोस्त भी थे वहाँ। पहले तो कोशिश की पढ़ने की, रोज़ इंस्टिट्यूट जाता। पर एक आध टेस्ट के बाद ही औक़ात पता चल गई। बाक़ी समय सिग्रेट दारू पीना ही सीखने में साल गुज़ार गया। और नतीजा हुआ वही जिसकी उम्मीद घर वालों ने कभी नहीं रखी होगी। किसी कॉलेज में दाख़िला नहीं मिला। पर मैं अकेला नहीं था, मेरे बाक़ी कई दोस्तों का भी वही हाल रहा।

अफ़सोस तो हुआ पर क्या करता। उदास मन से बोरिया बिस्तर बाँध कर घर लौटा। फिर वही सवाल सामने था, आगे क्या? और फिर वही जवाब मेरे पास था - पता नहीं। पापा ने कहा यहीं किसी कॉलेज में दाख़िला ले लो। मन अचानक भारी हो गया। लगा ऐसे तो उमर भर यहीं रह जाऊँगा। कुछ नहीं कर पाऊँगा। कुछ तो करना होगा। किसी तरह सबको भरोसा दिलाया एक बार फिर से पूरी तन्मयता से इंजीनियरिंग की तैयारी करूँगा कोटा से। अधूरे मन से उन्होंने सहमति दे दी। 

मैं निकला, और पहुँचा कोटा। पर फिर वही समस्या, विज्ञान समझ भी आ जाता पर उसके सवाल नहीं बनते समय से। कुछ वक़्त तक संघर्ष भी किया। पर लगातार कक्षा में फिसलते देख ख़ुद से उम्मीद भी समाप्त हो गई। और नतीजा फिर वही। हार गया मैं, और अपने ही नज़रों में असफल साबित हुआ दुबारा। अब और कहने सुनने की हिम्मत नहीं बची थी घरवालों से। सो अपने भाग्य की पतवार उनके हाथ में दे डाली। एक सुगबुगाहट अभी भी बची थी, कहीं बाहर रहने की। घरवालों की नज़रों से कहीं दूर। क्योंकि  घरवालों और रिश्तेदारों की नज़रों में ख़ुद को असफल देखने की हिम्मत किस में होती है, कोई होगा बिरला, मैं नहीं था। माँ पिता ने इस कुंठा को भाँप लिया होगा और किसी तरह पैसे दे कर मेरा दाख़िला एक इंजीनियरिंग कॉलेज में करवा दिया। यहाँ की कहानी का कभी और आँकलन करूँगा।

ख़ैर किसी तरह मैंने सूचना प्राध्योगिकी से इंजीनियरिंग कि, सेकंड डिवीज़न में। पर पता नहीं कैसे कैंपस प्लेसमेंट से जॉब भी मिल गई, एक अच्छी कंपनी में। पर एक-आध साल में ही मन भर भी गया, और ऊब भी गया। एक दिखावटी से माहौल में, दम घुटने लगा और मैं लौट आया, बिना किसी योजन या प्रयोजन के। कुछ वक़्त के लिए लगा आगे किसी अच्छे कॉलेज से मास्टर्स की डिग्री ली जाये। गेट की तैयारी में लग गया। पाँच छह महीने ही बचे थे। ख़ुद से घर में बैठ कर तैयारी कि, परिणाम  भी बहुत बुरा नहीं रहा। कुछ लाख प्रतिभागियों में मेरा स्थान क़रीब ५००० के आसपास रहा। पर इतने में कोई अच्छा कॉलेज नहीं मिलता, तो मैंने आगे पढ़ाई की उम्मीद छोड़ दी। वस्तुनिष्ठ सवालों में मैं उलझ जाता हूँ। आज भी शायद। कितना सही है इस ज़रिए से प्रतिभागियों का आँकलन करना इस पर मुझे हमेशा ही संदेह रहता है। आज भी है। कोई और रास्ता भी होना चाहिए, मेरे हिसाब से।

फिर सवाल सामने था आगे क्या? जवाब सीधा था - पता नहीं। पुनः तलाश शुरू हुई। देखा सरकारी नौकरों को इज़्ज़त, पैसा और रुत्बा सब पर्याप्त मात्रा में मिलता है। ज़िंदगी अच्छी गुजरेगी यह सोच कर तैयारी शुरू की। लक्ष्य नौकर बनना नहीं था। सुखद जीवन का था। थोड़ा गौर से देखा तो वे भी खुश नज़र नहीं आये। मन हार सा गया। तैयारी भी बोझिल हो गई। पर पढ़ने में मन लगा रहा, शायद जिज्ञासावश। पर तैयारी अधूरी रही, उतना ही पढ़ा जीतने में मज़ा आया। बाक़ी छोड़ दिया। पर परीक्षा तो परायी ही होती है, वरना वो स्वेक्षा नहीं कहलाती। सो स्वाभाविक रूप से नतीजा मेरे पक्ष में नहीं रहा। अफ़सोस हुआ, मन भी दुखा, पर ऐसा नहीं लगा की मेरा कुछ खो गया हो। समय रहा होगा २०१३-१४ का।

फिर एक नया शौक़ जागा, अपनी कंपनी खोलने का - एंटरप्रेन्योर बनने का। कुछ बेरोज़गार दोस्तों से बात की, घर वालों से भी। सब राज़ी ख़ुशी तैयार हो गये। एक सपना था फ़ेसबुक जैसे सोशल नेटवर्किंग साईट सा, मगर सोशल की जगह मैं पोलिटिकल नेटवर्किंग साईट बनाना चाहता था। आज भी वो सपना संजोए बैठा हूँ। पर उस वक़्त इतना संसाधन जुटाने में ना मैं, ना मेरे दोस्त, ना मेरे परिवार में कोई सक्षम था। ना ही मेरी कल्पना में कोई निश्चित आकार था। सो शुरू हुई बाज़ार में टिके रहने की जद्दोजहद। वहाँ कल्पना काम नहीं आयी। कभी अपनों ने साथ नहीं दिया, कभी परायों ना। समय के साथ सबने साथ छोड़ दिया। मैं अकेला पड़ गया। और सबकी नज़रों में ख़ुद को असफल होते देखते मैंने भी मान लिया मैं किसी लायक़ नहीं।

कुछ दिनों तक मायूस बैठा रहा। एक लड़की ने भी दिल तोड़ा था। मुझे नालायक समझ, मेरा साथ छोड़ा था। ग़लत नहीं थी वो। वैसे तो उसने बहुत पहले ही मुझे छोड़ा था। पर मैं उसे अभी तक नहीं छोड़ पाया था। वो कह गई थी मेरा प्यार मेरी हवस मात्र थी। सही थी वो अपनी जगह, इसे मानने के अलावा अब कोई और रास्ता नहीं देख मैंने हार मान ली। कुछ और दिनों तक मायूसी छायी रही। पर कब तक वसंत के रास्ते सर्दी खड़ी रहती। समय के साथ कोहरा छँट ही गया। और मेरी शादी हो गई।

शादी के बाद एक नयी ज़िम्मेदारी का एहसास हुआ। रास्ते और संकीर्ण लगने लगे थे। अवसर अब और कम नज़र आने लगे थे। उमर भी अच्छी ख़ासी गुजर गई थी। लगभग ३० साल का मैं, निराश और हताश। क्या करूँ अब, कुछ समझ नहीं आता था। याद आया सरकारी नौकरी में विद्यमान सुख सुविधा की, जो भले मुझे खुश ना रख पाये पर मेरे घर को समृद्ध ज़रूर कर देगी। मैंने इस बार और मेहनत से तैयारी शुरू की। जी जान से जुट गया। रात दिन एक कर दिया। जो पढ़ने में कभी मन नहीं लगा था वो सब भी पढ़ गया। पूरी उम्मीद से परीक्षा देने गया। पर वो मुहावरा है ना उम्मीद पर पानी फिरने वाला, मेरे साथ बिलकुल वैसा ही हुआ। कोलकत्ता में मेरा सेंटर था। जून का महीना। और मेरा स्थान खिड़की के ठीक बग़ल में। लगभग सवाल बना चुका था, की अचानक एक हवा का झोंका आया और मेरी उत्तर पुस्तिका उड़ी और पास पड़े सुबह हुई बारिश के बचे फ़र्श पर पानी में जा गिरी। जो बुलबुले मैंने अब तक रंगे थे, मिट से गये। मैंने साफ़ करने की कोशिश भी कि, पर वे और पसार से गये। मैंने अपनी परेशानी वहाँ के संचालक को बतायी, थोड़ा झगड़ा भी, रोया भी, गिड़गिड़ाया भी। पर वह भी मजबूर रहा होगा, और मैं भी। जो भी हो जब नतीजे आये, मैं असफल घोषित हुआ। अफ़सोस हुआ पर अंदर से एक ख़ुशी भी थी। उस दलदल में जाने से क़िस्मत से बच गया शायद।

ख़ैर घर में एक ख़ुशखबरी मेरा इंतज़ार कर रही थी। मैं बाप बनने वाला था। कोलकत्ता से लौट कर आया तो मुझे एक बेटी हुई। उसका पैदा होना भी एक दर्दनाक अनुभव था। ख़ैर ये कहानी मैं पहले लिख चुका हूँ, तो यहाँ दुहराने की ज़रूरत नहीं है। पर अब ज़िम्मेदारी और बढ़ चुकी थी और उसे निभाने कि कोई छमता मुझमें किसी को नज़र आती भी नहीं थी। सफलता तो कभी क़रीब भी नहीं आयी थी। और ख़ुद को कोसते मैं फिर उसी सवाल के सामने खड़ा था - आगे क्या? दुबारा नौकर बनने की तैयारी करने कि हिम्मत नहीं बची थी। 

पिताजी को अपनी चिंता बतायी, उन्होंने कहा यहीं से स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल कर लो। कम से कम प्रोफेसर बनने का रास्ता खुल जायेगा। मैंने बात मान ली, कोई और रास्ता भी नज़र के सामने नहीं था। उसी साल भागलपुर यूनिवर्सिटी में प्रस्ताव आया था किसी अन्य विषय के छात्र मन चाहे विषय https://www.amazon.in/-/hi/Sukant-Kumar-ebook/dp/B09ZHSSHW7/ref=sr_1_1?crid=2A12SWE400UKG&keywords=lifeconomics&qid=1688300976&sprefix=lifeconomics%2Caps%2C280&sr=8-1&language=en_INसे स्नातकोत्तर कर सकते हैं। अब सवाल बदला - कौन सा विषय मेरे मन की चाहत बनेगी। कुछ सोचा, थोड़ी जाँच पड़ताल भी की, लगा ज्ञान की गंगा जहां से बहती है वहीं से नयी शुरुआत कि जाये, अर्थात् दर्शनशास्त्र से। नामांकन में ज़्यादा कठिनाइयों का सामना नहीं करनी पड़ी। दर्शन विभाग में छात्रों की भारी कमी थी। जहां ४०-५० छात्रों की जगह थी उसमें २०-२५ आवेदन भी नहीं आये थे। सो आराम से दाख़िला मिल गया। 

विषय मनचाहा था तो पढ़ने में और मज़ा आया। दूसरे ही सेमेस्टर में यूजीसी नेट की परीक्षा निकल गई, जो व्याख्याता बनने की पहली सीढ़ी है। पर कोरोना की महामारी और विश्वविद्यालय की कमज़ोरियों के कारण जो सत्र दो साल का होना था वो चार साल में समाप्त हुआ। और फिर पता चला बिना पीएचडी किए व्याख्याता बन पाना लगभग असंभव है। और मज़ेदार बात यह भी की स्नातकोत्तर का परिणाम घोषित किए बिना इस विश्वविद्यालय ने पीएचडी में इस सत्र का नामांकन ले लिया, और हम जैसे छात्रों का रास्ता इस साल के लिये रोक दिया। मेरी उम्र ३५ पार कर चुकी है। आने वाले साल में पिताजी भी सेवानिवृत हो जाएँगे। और तब मैं शुरू करूँगा पीएचडी करना। पता नहीं कब जा कर किसी मुक़ाम पर पहुँच पाऊँगा, इसका कोई अंदाज़ा नहीं लगा पाता हूँ। जीविकोपार्जन के रास्ते कब तलाश पाऊँगा, नहीं जानता। दुखी भी हूँ और परेशान भी। सोचा लेखक बनने का प्रयास करूँ। एक किताब भी लिखी - Lifeconomics नाम कि। Amazon पर ख़ुद से प्रकाशित भी कर दी। पर किसी ने शायद ही पढ़ी होगी, जब अपने ही दोस्तों या घरवालों ने नहीं पढ़ी। किसी ने पूछा तक नहीं लिखे क्या थे बेटा। ख़ैर इससे बेहतर उम्मीद भी नहीं रखी थी मैंने।

दूसरों की नज़र में तो ख़ुद को असफल देखता ही आया हूँ, आदत सी हो गई है। पर अब तो अपनी नज़रों में भी असफलता का चश्मा पहने घूमता हूँ। माँ पिता की मेहनत और ईमानदारी से कमाई संपत्ति भी बेवजह खर्च करता आया हूँ। आज भी कर रहा हूँ। अब तो मैं ही नहीं मेरे बच्चे की परवरिश की ज़िम्मेदारी उनके माथे पर है। शर्मिंदा हूँ, और असमर्थ भी। लौट कर किसी कंपनी में जूनियर इंजीनियर की तरह काम करने की ना हिम्मत बची है, ना चाहत। हाँ ज़रूरत सी ज़रूर जान पड़ती है। लगभग २० वर्षों के बाद आज भी वही सवाल सामने है - आगे क्या? आज भी वही जवाब है - नहीं पता। आपके पास अगर कोई सुझाव हो तो बतायें।

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.