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मेरा शोध-प्रस्ताव 

शिक्षा और जीविकोपार्जन एक गंभीर मसला है। बेरोज़गारी से सिर्फ़ वे नहीं जूझ रहे हैं, जिनके पास नौकरी नहीं है। बल्कि वे भी जिनके पास नौकरी है। नौकरी सिर्फ़ आय का साधन बन कर रह गया है। अधिकांश लोग जो नौकरी कर भी रहे हैं, अपने हालात से खुश नहीं हैं। शोषण के सिवाय कुछ हासिल नहीं हुआ, और जितना शोषण होता है उसके अनुरूप आमदनी नहीं मिलती। कुछ ख़ास ही नौकरी बची है, जहां दोनों मिल सके।

पढ़ाई की पद्धति सिर्फ़ नौकरी तक ही सीमित रह गई है। पढ़ाई का उद्देश्य ज्ञान नहीं रह गया है। जिसके कारण अगर पढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरी नहीं मिली तो छात्र ना घर का रह जाता है, ना घाट का। धोबी के कुत्ते जैसी हालात हो जाती है। 

इसलिए पहली ज़रूरत तो यह है की शिक्षा व्यवस्था को सही मुक़ाम - जो ज्ञान है, उसके अनुसार स्थापित करने की चेष्टा समाज को हर क़ीमत पर करनी ही पड़ेगी। क्योंकि डिग्री धारी लोग भी नाकाबिल रह जाते हैं। 

मैं भी ज़िंदगी के ऐसे दोराहे पर खड़ा हूँ, जहां नौकरी तो मेरे पास भी नहीं है। पर नौकरी करनी भी नहीं है, ये फ़ैसला भी मेरा ही है। मैंने भी शिक्षा व्यवस्था में ज्ञान के आभाव का दंश झेला है। इसलिए मैंने स्वयं अध्ययन का रास्ता अपनाया। इंजीनियरिंग के बाद दर्शनशास्त्र, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र का अद्ध्यन कर रहा हूँ। पारिवारिक परिस्थिति अनुकूल रही इसलिए अपना समय और अपनी ऊर्जा का सदुपयोग कर पाया। अब मेरा एक ही मक़सद है - शिक्षा व्यवस्था को एक नया ढाँचा देना, जो हर प्रकार के छात्र को उसकी इक्छित मंज़िल की तरफ़ बढ़ने में सहायक हो। इसी संदर्भ में मैं पढ़ भी रहा हूँ, लिख भी रहा हूँ और आगे शोध भी करूँगा। 

किसी भी समाज का भविष्य उस समाज में पल रहे विद्यार्थी निर्धारित करते हैं। वो कहावत है ना - “जैसा बीज बोओगे वैसा ही फल मिलेगा”, अब बीज रोपा नीम का, तो आम कहाँ से पाओगे? वैसे ही अगर बच्चों को सिखाओगे नौकर बनना, तो वो राजा कहाँ से बन पायेंगे? किसी ने सही कहा है - अगर आप अपना भविष्य जानना चाहते हो तो उसे ख़ुद रचने में लग जाओ।

एक व्यक्ति शिष्य तब बनता है, जब उसे एक ऋषि या गुरु मिलता है, और विद्यार्थी तब, जब वो विद्या को ग्रहण करता है। यहाँ समाप्त होता है, एक मनुष्य-जीवन का - ब्रह्मचर्य आश्रम। इसके बाद वो व्यक्ति अपनी विद्या का इस्तेमाल करता है, (रोज़गार या नौकरी के रूप में) समाज और जगत की भलाई में, तब जा वो एक इंसान बन पाता है। इस दौरान, जगत और समाज में उसका सबसे महत्वपूर्ण योगदान होता है - उसकी संतान। इस संतान को नैतिक पोषण दे कर, एक विद्यार्थी बनाना उसकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है। यहाँ समाप्त होता है - गृहस्थ आश्रम और इंसान अपने पितृ और ऋषि ऋण से मुक्त हो जाता है।

इसके बाद आते हैं - वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम। पर इंसान ने अपनी लालसा युक्त जीवन में वन से पलायन कर शहरों के जंगल में बसेरा तलाश लिया है, जहां संन्यास के लिए फ़ुरसत किसे है। इसलिए वैसे बेचैन व्यक्ति अपने देव ऋण से मुक्ति के लिए, ना जाने कितने पाखंडों को ईजाद करते आये हैं। कितना सरल है, ये देख पाना की पूजा-पाठ, मंदिर-मस्जिद से आज तक सिर्फ़ उनका भला हुआ है, जो उसे चलाते हैं। इस मुक्ति के लालच में हम अपने बच्चों को भी शुरू से देव ऋण से मुक्ति के ग़लत रास्ते पर धकेल देते हैं। वे इस बात से इतना अभिज्ञ हो जाते हैं कि पितृ ऋण और ऋषि ऋण चुकाए बिना देव ऋण नहीं उतर सकता है। पर सबको बड़ी जल्दी है, पता नहीं कहाँ जाना है?

पितृ और ऋषि ऋण से मुक्ति के लिए सबसे ज़रूरी क्रिया है - संभोग की क्रिया, क्योंकि उसके बिना संतान की तो उत्तपत्ति हो ही नहीं सकती है। उम्मीद है, आप इस बात से सहमत होंगे। फिर भी आज हम अपने समाज में इसकी चर्चा करना भी पाप समझते हैं। सेक्स-एजुकेशन को ही अश्लीलता मान बैठते हैं। ‘सेक्स’ या ‘संभोग’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना भी कुसंस्कृति और अश्लील मानते हैं। पर उसी समाज में माँ-बहन के गालियाँ सहज हैं। आज किसी भी वेब-सीरीज को देख लीजिए, माँ-बहन की गलियों से भरी मिलती हैं। सड़क पर आज युवा माँ-बहन की गलियों से एक-दूसरे को संबोधित करते हैं। हद तो तब हो गई जब मैंने देखा एक 5-6 साल का बच्चा अपनी तोतली आवाज़ में अपने मित्र को बोलता है - ‘लुक जा माडल चोर!’ 

मैं भी अपने इंजीनियरिंग कॉलेज में दोस्तों से गलियों में बात करता था। बिना गाली-गलौच के मित्रता कैसी? जब तक दो-चार पेग लगाकर कुछ तमाशा नहीं किया, तो क्या ख़ाक इंजीनियर बना। ये सोच काफ़ी हावी थी, एक पीयर-प्रेशर भी था। हाँ! अपना शौक़ अपनी जगह था। रोमांच था और नशे में कोई ख़ास बुराई अभी भी नज़र नहीं आती। हाँ! उसके नैतिक मूल्य थोड़े ओछे हैं, और उसके प्रभाव में आयी उत्तेजना और हिंसात्मक प्रतिक्रिया में नैतिकता तो नष्ट हो ही जाती है। पर आज के दौर में मुझे लगता है - ये एक स्वाभाविक माँग है, आज के तनावग्रत माहौल में मन की शांति के लिए, क्योंकि आज-कल तो होम-हवन भी लाउडस्पीकर पर होता है। 

आज भी ये गालियाँ मैं इस्तेमाल करता हूँ, पर ये महसूस किया की जब इन गलियों का प्रयोग होता है तब इसके प्राथमिक अर्थ गौण हो जाते हैं। दार्शनिक भाषा में कहूँ तो उन शब्दों की अभिधा-शक्ति समाप्त हो जाती है और उसकी जगह ले लेती है - उन शब्दों में निहित लक्षणा और व्यंजना शक्ति उभर आती है। उसमें एक प्यार भी संलग्न होता है। उसमें संभोग के मादकता की महक होती है, इसलिए जब एक दोस्त, दूसरे दोस्त को माँ-बहन की गाली देता है तो एक तरह से वो अपनी माँ-बहन, जो उससे बहुत दूर है, उसे ही याद कर रहा है। 

जहां तक बात नशे की है, तो एक हद तक तो उसमें कोई नुक़सान है भी नहीं। ऐसे ही वाइन प्रसाद में थोड़े ही बाँटती है। डॉक्टर भी सलाह देते हैं। लगभग सारी दवाओं में अल्कोहल तो मौजूद होता ही है। भांग और गंजा तो शिव-भक्तों का प्रसाद है। होली की हुड़ंग में थोड़ी मस्ती नहीं हुई तो क्या मज़ा आया? मादकता का कोई ना कोई देवता हर धर्म में मौजूद होता है, समाज में नशे की भूमिका को नैतिक आधार देने के लिए। फिर भी नशा एक सामाजिक समस्या है। इसका कारण नशा नहीं, अज्ञानता प्रतीत होती है और साथ में पितृ और ऋषि का बोझ भी।

समाज ने अपनी असफलता छुपाने के लिए, सेक्स, नशा और शब्दार्थों पर अपना ध्यान केंद्रित कर दिया, और धर्म के ढकोंसलों में शरण ले ली, इस उम्मीद में की मुक्ति मिल जाएगी। कितनी बचकानी है ये सोच, इसका निर्धारण आप ख़ुद करें। सेक्स को धंधा बना दिया, नशा को अंधकार में धकेल दिया, जहां अब वह मज़े में फलता, फूलता है, सबकी नज़रों से दूर और शब्द के अर्थों पर मारा-मारी करने लगे, ताकि अपना और सबका ध्यान भटका रहे। जो सृजन की शक्ति भी है और श्रोत भी, उसे ही हमने प्रदूषित कर दिया - सेक्स को सारे आम नंगा कर, उस पर कालिख पोत दी। 

ऋषि या गुरु आज जंगलों में तो मिलते नहीं, अब वे मिलते हैं मंडियों में, जहां शिक्षा की ख़रीद-फ़रोख़्त धड़ले से चालू है। शिक्षा व्यवस्था ऐसी है यहाँ छात्र, छात्र ही रह जाता है, कभी विद्यार्थी तक नहीं बन पाता, जो इंसान बनने की पहली शर्त है। सेक्स-एजुकेशन इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि जब तक आप अपने शरीर की शुक्ष्मता को नहीं समझेंगे, उसके विराट रूप से आप कभी मिल ही नहीं पायेंगे। सेक्स-एजुकेशन में ध्यान, योग, शरीर के विभिन्न ऊर्जा श्रोत को समझने और समझाने का प्रयास होना चाहिए, जो एक समृद्ध शिक्षा का अभिन्न अंग होना चाहिए, ताकि व्यक्ति स्वस्थ रहने का हर-संभव प्रयास कर सके, जो बिना अपने शरीर को समझे संभव नहीं है। पर हम आलसी हैं, ये काम हमने डॉक्टर के हाथों सुपुर्द कर दिया है। उनकी दुकान मस्त चल रही है, और हम पस्त चल रहे हैं।

शब्दों या प्रदार्थों के संतुलित और ज्ञान-पूर्ण प्रयोग से नुक़सान नहीं है। पर समस्या ये है की सूचना-क्रांति के बाद, प्राथमिकता ‘सूचना' को मिल गई और ‘ज्ञान' गौण हो गया। हमें चिंता अपने शरीर से ज़्यादा अकड़ों की हो गई है। शराब, सिग्रेट इसलिए नहीं पीना की उसमें कोई नैतिक बुराई है, बल्कि इसलिए उससे जान जाने का ख़तरा है। ये तर्क कितना बेमतलब है। हर नशेड़ी के पास इसका काट है - जो शराब नहीं पीते, वे अमर हो जाते हैं क्या? या, जो सिग्रेट नहीं पीते उन्हें कैंसर नहीं होता है क्या? मैंने अपने जीवन में कैंसर से हुई दो-चार मृत्यु का अनुभव किया है, जिसमें से वैसा कोई भी व्यक्ति नहीं था जिसने कभी शराब या सिग्रेट को हाथ भी लगाया हो। एक मेरे दोस्त की माँ थी, काफ़ी धार्मिक महिला। मैंने कई बुड्ढों को चैन से बीड़ी का कश भी मारते देखा है, जिन्हें इन आँकड़ों से कभी पाला नहीं पड़ा होगा।

इसलिए अगली अगर कोई क्रांति हमारी वैश्विक फ़लक पर संभव है तो वो क्रांति शिक्षा जगत में ही संभव है। पठन-पठान का तरीक़ा व्यक्तित्व के विकास की धारा में बांध बन गया है। इसलिए मैं अपना दार्शनिक शोध उपर्युक्त अवधारणा को स्थापित और कार्यान्वित करने की दिशा में करना चाहता हूँ। यही तथ्य मेरे शोध की रूप-रेखा और आगे की दिशा का निर्धारण करेंगे।

आख़िरकार आप सब के सहयोग से मेरे लेखन की दिशा को एक मुकम्मल आकार मिल गया है। मैं बड़े हर्ष के साथ आप लोगों के समक्ष अपने साहित्य का प्रारूप साझा कर रहा हूँ।

मेरी तत्कालीन परियोजना में कुल ६ किताबों का योग होगा, जो दो खंडों में विभक्त होगा। उनके नाम कुछ इस प्रकार हैं -

 

१. लिंग बुद्धि - The Sex Brain

२. आगे क्या? - What Next?

३. लोगतंत्र - Logtantra

४. जीवर्थशास्त्र - Lifeconomics

५. ज्ञानाकर्षण - Learnamics

६. अभिव्यक्तिशास्त्र - Expressophy

 

इन शीर्षकों में पहले ३ साहित्यिक होंगे। पहली पुस्तक - “लिंग बुद्धि” में सेक्स, नशा और धर्म पर अपने अनुभव और हासिल ज्ञान को संजोने का काम करूँगा। यह पुस्तक सेक्स एजुकेशन को केंद्र में रख कर लिखी जाएगी। दूसरी पुस्तक - “आगे क्या?” में अपने शैक्षणिक अनुभव और संघर्ष पर चर्चा करूँगा। तीसरी पुस्तक - “लोगतंत्र” में एक बेहतर सामाजिक और राजनीतिक ढाँचे को अपनी कल्पित दुनिया में अंजाम देने का प्रयास रहेगा।

अगली तीन पुस्तक में मैं सैद्धांतिक रूप से दर्शन पर काम करूँगा। जिसकी पहली कड़ी मैंने लिख कर आमेजन पर डाल रखी है, अंग्रेज़ी में - Lifeconomics: Handling Economy of Life, उपलब्ध है। जो भी चाहें इसे पढ़ कर अपनी राय और टिप्पणी दें, आपकी समझ से मेरी समझ और परिपक्व होगी और मैं आपके सहयोग के लिए सदैव आभारी रहूँगा। अगली कड़ी जो “ज्ञानाकर्षण” होगी उसमें शिक्षा जगत से जुड़ी समस्यायें और संभावनाओं पर अपना मत आप तक पहुँचाने का प्रयास रहेगा। और आख़िरी अंग केंद्रित होगा - अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम को तलाशने और तराशने में ही जीवन को सफलता मिलती है, इस विषय पर एक तार्किक समीक्षा करने की कोशिश करूँगा। आख़िरी तीन पुस्तकों का मक़सद है अकादमिक जगत में अपने सिद्धांतों को मज़बूती से रखना, ताकि बाक़ी लोग भी अपने अनुभव और ज्ञान से इसे समृद्ध कर सकें।

एक तरह से ये लेखन की श्रृंखला अनुभव, विचारों और सिद्धांतों का एक जैविक चक्र पूरा करेगी। जहां से शुरू हुई है वहीं ख़त्म भी होगी - सेक्स ऊर्जा से शुरू होगी और उसके यथोचित संचार पर समाप्त। व्यक्ति से शुरू होते हुए समाज की गलियों से गुजरते हुए, व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का रास्ता तलाशते ये यात्रा अपने मुक़ाम तक पहुँचेगी।

आगे भी आप सबके सहयोग और समर्थन का आकांक्षी। 

आपके प्रोत्साहन और सकारात्मक समीक्षा का अभिलाषी।

आपके क़ीमती सुझाव और आलोचना का साक्षी।

अपने लेखन-परियोजना के दूसरे खंड - "आगे क्या?" पर मैंने काम करना शुरू किया। पर क़रीब 9 अध्याय लिखने के बाद, मुझे अपने लेखन से संतुष्टि नहीं मिली। इसमें सुधार करने की हिम्मत नहीं है। सुधार करने से आसान, मुझे नयी शुरुवात करना ज़्यादा उचित लगा। नौवाँ अध्याय पूरा नहीं हो पाया, अधूरा ही है, शायद ही पूरा हो। पर इसी क़िस्से को एक नये अन्दाज़ में फिर से लिखूँगा।

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.