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कुछ राजनैतिक समस्यायें

राजनीति तो समाज की क़र्ज़दार है। तभी तो हमारे प्रतिनिधि उनका कर्जा उतारने में लगे हुए हैं, जिनसे कर्जा लेकर वे चुनाव जीते थे। जहां लोक ही अज्ञान है, वहाँ तंत्र को उसकी क्या चिंता हो सकती है? वो भी अपने भोग-विलास में मगन है। लोक को उसके हाल पर छोड़ देना ही तो आत्मनिर्भरता की नयी परिभाषा है। सब अपना-अपना देख लो, भाई! जिसको जहां जो मिला लूट लो, मस्त रहो। तंत्र आस्था के नाम पर चल रहा है, और लोक चार्वाक दर्शन से - ‘यदा जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा, घृतं पिबेत्’ (जब तक जीओ सुख से जीओ, उधार लो और घी पीयो।) 

कौन सी ऐसी सामाजिक समस्या है, जिसका निदान तंत्र नहीं कर सकता है? पर इस लोक की समस्या ही तो यही है कि तंत्र ख़ुद ही एक समस्या बन चुका है और लोक उस समस्या की अग्नि में उधार लेकर घी डाल रहा ह। जो आग एक-न-एक दिन उसका घर ही जला डालेगी। लोक तो बस जलने का इंतज़ार करता प्रतीत होता है। हालत तो ऐसी है कि देश में ना मौजूदा प्रशासन और ना ही वर्तमान राजनीति को लोक या जनता की ज़रूरत है। इनकम टैक्स से लेकर टोल टैक्स तक सीधे जनता के खाते से तंत्र के खाते में पहुँच रहा है। आज कोई असहयोग आंदोलन की कल्पना तक नहीं कर सकता है। जो चालक हैं, वो इतिहास से सत्ता सुख भोगने का नुस्ख़ा निकाल ही लेते हैं। मेरी समझ से तो मौजूदा समाज में लोकतंत्र भी आभासी या वर्चुअल जो चुका है। जैसे, सोशल मीडिया पर हम अभिव्यक्ति की आज़ादी तलाश रहे हैं! कहीं कुछ होता है, हम शोक मनाने लगते हैं, या जश्न! अर्थशास्त्र के नाम पर लोक बस चंदा दे रहा है, तंत्र बटोर रहा है, और हम तमाशा देख रहे हैं। प्राइवेट सेक्टर को तो आपकी या मेरी, या हमारे बच्चों की कभी चिंता थी ही नहीं। इसलिए तो तंत्र तानाशाह बन गया है।

प्रतियोगिता जंगल का क़ानून है, जहां सबसे ताकतवर जीव ही बच जाता है। 

सभ्यता ही तो हमें इंसान बनती है, जहां सहयोग, सहभागिता, सहृदयता के दम पर हम लोकतंत्र तक पहुँच पाये हैं। यहाँ आकर हमने वापस जंगलराज स्थापित कर लिया है। जिसकी शुरुआत शिक्षा से ही तो हो रही है। नया ज्ञान ही क्रांति ला सकता है। वरना, धर्म की अर्थी उठाये तो लोक ना जाने कहाँ चला जा रहा है?

मेरी वर्तमान राजनैतिक समस्या तो पिताजी के चुनाव में हार जाने से शुरू हुई है। वह भी एक ऐसे प्रत्याशी से है, जिसने शायद ही कभी किसी शिक्षक से पिछले 20-25 वर्षों कभी संवाद स्थापित किया होगा, जिनका वह अपने बाप के गुजर जाने बाद से ना-जाने कबसे प्रतिनिधित्व करता आया है? कम-से-कम पिताजी ने अपनी ईमानदारी का सबूत और संदेश इस कोसी शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र के शिक्षकों तक पहुँचा कर आये, हार गये, तो क्या हुआ? वे आज भी शिक्षकों के पक्ष में खड़े हैं। मैं तो बस इतना चाहता हूँ, वे अपने पक्ष का विस्तार करें और शिक्षा को अपने राजनैतिक दायरे में लेकर आयें, इस अशिक्षित जानता को ज्ञान की सिख दें, तभी तो मेरी शिक्षा-क्रांति आएगी, तभी तो उनकी पोती समय आने पर ईमानदारी, स्वाभिमान और आज़ादी से अपने भविष्य का अनुमान लगा पाएगी।

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.