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विश्वास एक भावनात्मक प्रतिक्रिया है, जो हमारे MidBrain की उपज है। पर, अवधारणाएँ और विचार हमारी ज़रूरतों और भावनाओं की कल्पना है, जिसे रचने की क़ाबिलियत सिर्फ़ और सिर्फ़ NewBrain में है। दिमाग़ के इस मनोवैज्ञानिक विभाजन के बारे में मैं पहले भी चर्चा कर चुका हूँ। एक बार फिर से यहाँ दुहरा देता हूँ।

जीवन के विकासक्रम में सबसे पहले दिमाग़ के जिस भाग का विकास सबसे पहले हुआ, वह सबसे पुराना माना गया और उसे OldBrain का नाम दिया गया। दिमाग़ का यह हिस्सा हमेशा सक्रिय रहता है। पाचन से लेकर साँस लेते रहने की हुकूमत, हमारे शरीर पर यही चलता रहता है। इसका मक़सद सिर्फ़ हमारे शारीरिक अस्तित्व को सुनिश्चित करना है। इसलिए, यह हर पल खाने, संभोग और ख़तरे के मौक़ों की फ़िराक़ में ही रहता है। मनुष्य सभ्यता के विकासक्रम में इसकी ज़रूरतें कम होती जा रही है। लोकतंत्र में हम ख़ुद को सुरक्षित महसूस जो करते हैं। ऐसी सुरक्षा हमारे पूर्वजों को जंगलों में नहीं थी। संभवतः, इसलिए उनके वंशजों ने जंगल ही कटवा दिये।

ख़ैर, जब जीवन सुरक्षित होने लगता है, चेतना में भावनाएँ अपना घर बनाने लगती हैं। फिर ना जाने कब हमारी कल्पनाओं का यह आशियाना भावनाओं की बाढ़ में बह जाता है? हमारी भावनात्मक प्राइक्रियाओं को पूरी ज़िम्मेदारी MidBrain की है। अपने MidBrain की दशा को हम अपने अंतःमन से देख तो सकते हैं। पर, हमारा NewBrain इसकी व्याख्या कर पाने में प्रायः असफल ही रहता है। अपने शारीरिक कष्ट का भी हम विवरण अपने चिकित्सक को कहाँ पूरी दे पाते हैं? हमारी भावनाओं को समझने के लिए लोकतंत्र को फ़ुरसत ही कहाँ है? अपने ही इहलोक के लिए हम प्रयाप्त समय निकाल पायें, जीवन इतना भी बड़ा कहाँ है?

रही बात विश्वास की, तो हमें सबसे ज़्यादा विश्वास की ज़रूरत कहाँ पड़ती है? गौर से देखा जाये, तो हमारी ज़रूरतें ही नित्य हमारी विश्वासभाजन बनने की फ़िराक़ में रहती हैं। हमारे ज्ञान का आधार भी तो हमारी ज़रूरतें ही निर्धारित करती हैं। इनमें भी शारीरिक या OldBrain की ज़रूरतें सबसे प्रबल दावेदार होती हैं। उसके बाद हमारी भावनात्मक ज़रूरतें आती हैं, जहां हम अपने MidBrain को सुख देने का हर संभव प्रयास करते हैं। इन दोनों की ज़रूरतें जब पूरी हो जाती हैं, तब कहीं जाकर हमें NewBrain की ज़रूरतों की चिंता सताती है। जहां हम सृजन करने की कल्पना करना प्रारंभ करते हैं। तब कहीं जाकर हम नीतिशास्त्र के दायरे में आते हैं। क्योंकि, इसके पहले तक हम जिन ज़रूरतों की पूर्ति के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं, वे ज़रूरतें इंसानी होती भी नहीं हैं। पशु-पक्षियों से लेकर पेड़-पौधों में भी जीवन इस समृद्धि के लिए निरंतर प्रयत्नशील है।

शिक्षा की सबसे अहम ज़रूरत हमारी ज़रूरतों के बीच संतुलन क़ायम करने का है। एक अशिक्षित तार्किक प्राणी अपनी ज़रूरतों का नीति-निर्धारण करने में असमर्थ होता है। इसलिए, शिक्षा के माध्यम से सभ्यता स्थापित करने का प्रयास, लोकतंत्र आदिकाल से करता आया है। राजनैतिक पृष्ठभूमि पर लोकतंत्र अभी बच्चा है। अभी तो इसे भी शिक्षा की ज़रूरत है। ताकि वह अपनी ज़रूरतों को समझते हुए, नीति-निर्धारण कर सके। इसके लिए ही हर लोक के बुद्धिजीवी ज़िम्मेदार हैं। हर शिक्षक, प्रशिक्षक और छात्र की यही तो बुनियादी ज़िम्मेदारी है।

शिक्षा का सामाजिक योगदान अर्थोपार्जन है, जीविकोपार्जन तो हमारे पूर्वज आदिकाल से करते आये हैं। अर्थोपार्जन और जीविकोपार्जन के बीच व्युत्क्रमानुपाती संबंध है। मतलब, दोनों ही अवधारणाएँ का क्रमिक विकास एक दूसरे से ठीक विपरीतार्थक है। जैसे, यहाँ जीविकोपार्जन में हमारी ज़रूरतों का विकास प्राकृतिक क्रम से होता है — पहले हमारी शारीरिक ज़रूरतें आती हैं, फिर भावनात्मक अपेक्षायें लिए हमारे MidBrain की ज़रूरतें हमारे सामने आती है, और अंत में हमें NewBrain की ज़रूरतों की चिंता सताती है। पर, अर्थोपार्जन में सबसे पहले हमारे NewBrain की ज़रूरतें ही सामने आ जाती हैं, उसके बाद ही हम MidBrain या OldBrain की फ़िक्र करते हैं।

शिक्षा हमारी तीनों ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम है। हमारे दिमाग़ की तीनों ही प्रकृति को प्रशिक्षित करने में शिक्षा समर्थ है। उदाहरण के लिए, विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए NewBrain की ज़रूरतें ज़्यादा अहमियत रखती हैं। किसी खिलाड़ी या सैनिक के OldBrain को प्रशिक्षण से सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, ताकि उनकी शारीरिक प्रतिक्रिया ज़रूरत के अनुसार फुर्तीली और उपयोगी हो पाये। उस सैनिक की जान कैसे बच पाएगी, अगर वह दुश्मनों से तेज भागने में सक्षम ना हो? एक अभिनेता के लिए उसके MidBrain को प्रशिक्षण की सबसे ज़्यादा ज़रूरत पड़ती है। ताकि, बिना कष्ट सहे भी वह उस ख़ुशी की अभिव्यक्ति कर पाये, जो उसे ज़ख़्म के रूप में उपहार मिले हैं। एक साहित्यकार या कलाकार के लिए NewBrain के साथ-साथ MidBrain की ज़रूरतों को बिह अभिव्यक्त करना ज़रूरी होता है। हर व्यक्ति की ज़रूरतें अलग होती हैं। इसलिए, हर छात्र किसी निर्धारित पाठ्यक्रम में सफल हो ही पाये, यह संभव ही नहीं है। विज्ञान की भाषा गणित में ही इसकी संभावना कहाँ है? एक परीक्षा में अगर १० छात्र बैठे हैं, तो हर छात्र को बराबर नंबर ही आ जायें, इसकी संभावना का अनुमान गणित में लगाया तो जा ही सकता है। पर, क्या यह संभावना हमारे इहलोक में संभव है?

क्या छात्रों को ज्ञानोपार्जन की स्वतंत्रता भी लोकतंत्र नहीं दे सकता है?

ज्ञान की पहली शर्त ही भरोसा है। विश्वास किए बिना, हम किसी को भी भगवान नहीं मान सकते हैं। मान लेना ही तो आस्था का आधार है। विश्वास के लिये किसी प्रमाण की व्यक्तिगत ज़रूरत नहीं होती है। पर, हम भरोसा कर पायें इसके लिए सामाजिक स्वीकृति कि भी ज़रूरत पड़ती है। अपने इहलोक के समर्थन के बिना हम हर फ़ैसला ख़ुद से कहाँ ले पाते हैं? जिन फ़ैसलों को हम स्वतंत्र नहीं ले सकते हैं, क्योंकि उन फ़ैसलों का असर विस्तृत इहलोक पर पड़ता है। इसलिए, कुछ फ़ैसलों के लिए लोकतंत्र की ज़रूरत पड़ती है। पर, मेरे चाहने वालों को अपने इहलोक से ज़्यादा परलोक की चिंता खाये जा रही है। ख़ुद के भ्रम को ब्रह्म रूप देकर लोकतंत्र ही अपने स्वार्थ की दुकानें विद्यालयों और धर्मालयों में खोल रखी है। ज्ञानोपार्जन और अर्थोपार्जन की फ़िक्र भी कोई कैसे करेगा, जब जीविकोपार्जन की जंग में ही वह लगातार मात खा रहा है?

बचपन से मेरे पिताजी ने मुझे एक ज्ञान दिया है — शून्य से शुरू करो!

शून्यता का ज्ञान निःसंदेह ज़रूरी है। क्योंकि, एक शून्य ही तो है, तो हमारी आस्था का केंद्र हो पाने के लायक़ है। जहां कुछ नहीं मिलता है, वहीं ब्रह्म मिलते हैं।

शिक्षा हमारी ज़रूरतों की अवधारणा को एक ढाँचा देती है। अपनी अहमियत और प्राथमिकता की संरचना करने में शिक्षा ही सबसे अहम भूमिका निभाती है। पहले यह भूमिका परिवार उठाता था। पर अब मेरे इहलोक ने अपनी इस ज़िम्मेदारी के लिये नौकर रख लिए हैं, और हम सब ख़ुद अपनी-अपनी नौकरी निभा रहे हैं। ज़िम्मेदारियों के बंदरबाँट में लोकतंत्र अपना ही उल्लू सीधा करने में लगा हुआ है। ना जाने उसने मेरे इहलोक की जिजीविषा पर कितने चौकीदार लगा रखे हैं?

क्या विद्यालयों की शैक्षणिक संरचना नहीं बदली जा सकती है?

क्या शिक्षा के केंद्र में व्यक्ति को नहीं रखा जा सकता है?

क्या हम अपनी जिज्ञासा का अध्ययन नहीं कर सकते हैं?

आज सूचना क्रांति के दम पर तंत्र हर उत्पाद और सुविधा की पूर्ति के लिए वैयक्तिकरण की तरफ़ बढ़ रहा है। प्राइवेसी पर तभी तो लोकतंत्र में सवाल उठ रहे हैं। हर कोई अपनी निजता को सुरक्षित करने को प्रतिबद्ध है। अब तो मशीनें भी होशियार आने लगी हैं, जो सिर्फ़ हमारी ज़रूरतों का अनुमान लगाने में ही सक्षम नहीं हैं, बल्कि हमारी ज़रूरतों की पूर्ति का सामर्थ्य भी अब उनके पास मौजूद है। घर बैठे ही लोक कमा भी रहा है, उड़ा भी रहा है। क्या शिक्षा में वैयक्तिकरण संभव नहीं है?

क्या मेरा इहलोक इस लोकतंत्र के साथ मिलकर हमारी शिक्षा-दीक्षा की ज़िम्मेदारी नहीं ले सकता है?

मेरी जानकारी के अनुसार आज दसवीं के छात्रों को औसतन पाँच से दस विषय ही पढ़ाए जाते हैं। जिनका चुनाव करने को भी वे स्वतंत्र नहीं होते हैं। हर किसी को वही परीक्षाएँ देनी पड़ती है, जिनका निर्धारण तंत्र करता है। हर कायदा-क़ानून तंत्र ही निर्धारित किए जा रहा है। क्या लोक इतना ग़ुलाम है कि हर नियम-क़ानून पर विचारहीन विश्वास किए जा रहा है। क्या हमें दस की जगह पचास विषय नहीं पढ़ाए जा सकते हैं?

भाषा ज्ञान और कुछ सामान्य ज्ञान के बाद क्या छात्र को अपनी कक्षाओं और शिक्षकों को चुनने के लिए स्वतंत्र और स्वब्लांबी नहीं बनाया जा सकता है?

सामान्य ज्ञान में ज्ञान मीमांसा के तथ्यों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। ताकि, ज्ञान को अज्ञानता से अलग करने में छात्र आत्मनिर्भर बन पायें। फिर, हर उन पचास विषयों की ज़रूरतों पर प्रकाश डाला जाये जिसके पढ़ाई स्कूल में होती है। स्कूल की समय-सारिणी विषय और शिक्षक की जगह पाठ पर निर्धारित की जाये। हर हफ़्ते की समय-सारिणी निर्धारित की जाये। हर कक्षा शिक्षकों को ही संचालित करने की ज़िम्मेदारी भी ना दी जाये। कई कक्षाओं में तो बच्चों को मूवी-सिनेमा दिखाने की व्यवस्था कि जानी चाहिये। सूचना क्रांति से पहले यह सब संभव नहीं था। पर आज हम घर बैठे दुनिया भर के चलचित्र देख सकते हैं। यहाँ सिर्फ़ हमारी ठरक मिटाने की ही सामग्री मौजूद नहीं है। हमारी अवधारणाओं और जिज्ञासा को आकार देने लायक़ भी सामग्री यहाँ मौजूद है।

सिर्फ़ सास-बहू के झगड़ों से लेकर बाबाजी का प्रवचन ही यहाँ मौजूद नहीं हैं। शायद, “Planet Earth” नाम के धारावाहिक का नाम आपने सुना होगा। संभवतः, आप में कइयों ने इसे देखा भी होगा। पृथ्वी की प्रकृति का बड़ा सुंदर और ज्ञानवर्धक चित्रण इस चलचित्र में किया गया है। शायद ही कोई पूरी सृष्टि की सुंदरता अपनी आखों से देख पाएगा। ऐसे कई चलचित्र इंटर पर मौजूद हैं, जो हमें आभासी ही सही, पर अनुभव देने में सक्षम तो हैं। तकनीक निरन्तर प्रगति कर रही है। 2D से लेकर आज हम 3D में आभासी दुनिया का अनुभव करने में समर्थ हैं। 4D पर भी प्रयोग हो रहे हैं। अगले ही साल Augmented Reality पर Apple अपना नया उत्पाद लाने वाली है — Apple Vision Pro, जो कंप्यूटर की अवधारणा में एक नये काल कि शुरुआत का काम करेगी।

  

इस उत्पाद के बारे में आप Apple की ऑफिसियल वेबसाइट पर देख सकते हैं। यूट्यूब पर भी इसकी व्याख्या करते कई वीडियो उपलब्ध है। कभी फ़ुरसत निकालकर यह सब भी हमें अपने बच्चों को दिखाना चाहिए। ताकि, वे नयी कल्पनाएँ कर पाने के काबिल बन पायें। स्कूल-कॉलेजों में ज्ञान-विज्ञान के बढ़ते कदमों पर लगातार चर्चा होती ही रहनी चाहिए। और भी बहुत कुछ है, जो हमारे विद्यालय हमें दिखा सकता है। कक्षाओं में प्रोजेक्टर तो लगाये ही जा सकते हैं। एक अच्छा साउंड सिस्टम कितना ही महँगा पड़ेगा?

स्कूलों की समय सारिणी में दो-चार निर्धारित कक्षाओं के बाद क्या पूरे स्कूल को मूवी थिएटर नहीं बनाया जा सकता है? जहां कई डाक्यूमेंट्री का शो दिखाया जाता रहे। इनसे जुड़ी जिज्ञासाओं के लिए शिक्षक भी मौजूद हों। क्या हर हफ़्ते, महीने, साल में कई बार परीक्षा लेना ज़रूरी है? क्या परीक्षाओं में चोरी को लोकतंत्र अपने नियम-क़ानून में शामिल नहीं कर सकता है? राजनीति ने ख़ुद के लिए भ्रष्टाचार के हर रास्ते खोल रखे हैं। क्या हमारे लिए खुली किताबों वाली परीक्षाओं का आयोजन नहीं करवाया जा सकता है? ज्ञान की परीक्षा में हमारी अवधारणाओं की जाँच ज़रूरी है। हमारी स्मरणशक्ति कब तक जाँची जाएगी?

इसलिए, हमारी उत्तर-पुस्तिका में कोई मौलिकता नहीं होती है। तभी तो तीन घंटे में लिखी उत्तर-पुस्तिका को जाँचने में एक कुशल परीक्षक को तीन मिनट भी नहीं लगते हैं। कुछ शिक्षक तो ऐसे हैं, जो घर पर अपने ही बच्चों को स्कूल के बच्चों की कॉपियों की ज़िम्मेदारी दे देते हैं। नंबर तो प्रायः हर शिक्षक अपनी ही संतानों से जुड़वा रहा है। या फिर, अपनी कॉपियों के नंबर जोड़ने की ज़िम्मेदारी हमारे शिक्षकों ने हमें ही सौंप दी थी। शिक्षा व्यवस्था की इसी काहिलियत का नाजायज़ फ़ायदा उठाकर मैंने लोकतंत्र से इंजीनियर वाली डिग्री निकलवा ली। जब डिग्री मिली थी, तब तो मुझे कुछ आता-जाता नहीं था। जब ज़रूरत पड़ी, तब जाकर मैंने कोडिंग सीखी और कई लाख लाइन की कोडिंग भी की। यह अलग बात है कि मैं अपने उत्पाद को मनचाहा नहीं बना पाया। कहीं ना कहीं कमी रह गई, जिसकी पूर्ति भविष्य में करने की अवधारणा भी मेरी चेतना में व्याप्त है। अपने लिए मैंने दो-चार वेबसाइट पर काम भी शुरू कर दिया। अपने इहलोक और उसके तंत्र को अभिव्यक्त करने के पाश्चात्य मैं इन माध्यमों पर भी ख़ुद को अभिव्यक्त करने का प्रयास करूँगा। साथ ही इसके बाद मैं “ज्ञानाकर्षण” परियोजना पर भी काम करना चाहूँगा। अभी तो शुरुआत है। अभी तो कल्पनाओं का लंबा सफ़र तय करना है, जिसका अंत शिक्षा-क्रांति होगी। जहां से एक नयी कहानी शुरू होगी। अभी, अभियक्तिशास्त्र तक पहुँचने की लालसा मुझमें बड़ी प्रबल है। मैं अपनी बेटी को विश्व की दूसरी सबसे घटिया शिक्षा-व्यवस्था में नहीं, जीवन की सबसे सुंदर पाठशाला में उसका दाख़िला करवाना चाहता हूँ। उसके लिए पहले अपनी कल्पनाओं की पाठशाला को अवधारणाओं के रास्ते विचारों का रूप देते हुए, उनके लिए प्रयाप्त प्रमाण जुटाने पड़ेंगे, या बनाने पड़ेंगे। यहाँ मैं प्रमाण ही बनाने की कोशिश तो कर रहा हूँ। ताकि मेरी कल्पनाओं पर मेरा इहलोक भरोसा कर पाये। क्योंकि, विश्वास के लिये ही तो प्रमाण लगते हैं। बिना अपने ज्ञान पर सवाल किए, कोई दार्शनिक भी कहाँ बन पाया है?

हर ज्ञान में ब्रह्म और भ्रम की बराबर संभावना होती है। हमारी आस्था ही उनका निर्धारण कर सकती है। फ़ैसला तो हमेशा ही हमारे ऊपर निर्भर करता है। हमारी मौलिक आज़ादी ख़ुद के लिए ज्ञान के फ़ैसले लेने तक ही तो सीमित है। हमारा विश्वास ही हमारी अज्ञानता को हमारे ज्ञान से अलग कर सकता है। क्या शिक्षा हमें ज्ञान का यह हुनर नहीं सीखा सकती है?

बुरे को नकार देने से बुराई नहीं नष्ट होती है। बुराई को समझकर हम जब अच्छाई का चुनाव करते हैं, तब कहीं हमारी प्रज्ञा की अभिव्यक्ति संभव हो पाती है। क्या अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता को लोकतंत्र क़ायम नहीं रख सकता है? क्या हमारे स्कूलों को हमारे अभिभावक नहीं चला सकते हैं? क्या मेरा इहलोक अपनी ज़रूरतों को समझते हुए निरंतर पाठ्यक्रम को निर्धारित और विकसित नहीं कर सकता है? ना जाने किस काल से एक ही समय-सारिणी का पालन करना अनुशासन माना जाता रहेगा? अनुशासन की ज़रूरत रचना को पड़ती है, या फिर सैनिकों को। हम बच्चों से अनुशासन की अपेक्षा लोकतंत्र क्यों पाले बैठा है, जब उसके ख़ुद के अनुशासन का कहीं कोई पता-ठिकाना नहीं है?

ज्ञान को अर्जित नहीं किया जा सकता है। क्योंकि, ज्ञान कोई संपत्ति नहीं है। ज्ञान किसी की जागीर नहीं है, जो लोक को ज्ञान का कराया भरना पड़े। पर जहां देखो वहाँ शिक्षा की दुकानें खुली हुई है, और ज्ञान की बिक्री खुलेआम चालू है। शिक्षा के बदले ज्ञान नहीं मिलता है, बस कुछ सूचनाएँ मिलती हैं। जो हमारी अवधारणाओं को प्रभावित करती जाती है। जिसके कारण व्यक्तिगत व्यवहार में भी परिवर्तन देखा गया है। और इस तरह एक सामाजिक व्यवस्था कि संरचना होती है। शिक्षा की अहमियत का अनुमान सिर्फ़ लोकतंत्र ही नहीं, मेरा इहलोक भी कहाँ लगा पाता है? जीविकोपार्जन को ही केंद्र में रखकर लोकतंत्र चले जा रहा है। अर्थ की चिंता लोकतंत्र को कब सताएगी? अब तो ऐसा लगता है कि कलयुग भी अपने चरम पर पहुँच चुका है।

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए!

दुष्यंत महोदय तो ना जाने कब से लाशों से हाथ लहराने की उम्मीद लगाये बैठे हैं। ना जाने इस लोकतंत्र में कब जान-प्राण का संचार होगा? ना जाने अपने विश्वास और अवधारणाओं के लिए मेरा इहलोक कब प्रमाण माँगेगा?

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.