भारतीय संस्कृति में ‘शरीर’ को जड़ माना गया है। शरीर नश्वर होने के साथ-साथ अचेत भी है। ‘चेतना’ अलग है। मेरे अनुसार चेतना और शरीर के बीच प्लग और सॉकेट जैसा बाह्य संबंध है। मेरे सामने जो भी है, मेरा सच है। पर, मेरे शब्दकोश में सच और सत्य समानार्थी शब्द नहीं हैं। ‘सत्य’ की मेरी परिभाषा, गांधी के दर्शन से प्रभावित है। वही सत्य है जो ‘अखंडित’ है, वही जिसे हम भगवान मानते हैं। पहले, गांधी ‘सत्य’ की तुलना ‘भगवान’ से करते हैं। फिर, भगवान को अखंडित बताते हैं। आख़िरकार, सत्य और भगवान को समतुल्य मान लेते हैं।
जिसका खंडन ही नहीं हो सकता हो, वह ज्ञात कैसे होगा?
ज्ञान और विज्ञान तो विखंडन से ही संभव हो पाता है। कभी अणु अखंडित था। आज हमने परमाणु को भी खंडित कर रखा है। अनुभव इंद्रियों तक सीमित है, ज्ञान नहीं। यह सीमा हमारी अनुभूतियों और कल्पनाओं पर भी लागू नहीं होती हैं। इस अखंडित सत्य की भी कई कल्पनाएँ हैं। कोई इसे ‘ब्रह्म’ का नाम देता है, कोई ‘ऐब्सलूट’ कहता है। हर पंथ ने इस सत्य को कोई ना कोई ना नाम दे रखा है। आज, साइंस इसे ‘गॉड-पार्टिकल’ के रूप में देखता है। धार्मिक पंथों ने इस सत्य का असंख्य विवरण अपनी कला और सभ्यता में दिया है, दे भी रहा है, देता ही रहेगा। मुझे हर कहीं अगर कुछ अखंडित नज़र आयी है, तो वह कल्पना है — जीवन की कल्पना!
अब वह शंकर के ‘ब्रह्म’ हों, या मीरा के ‘कृष्ण’!
या चाहे वह हेगेल के ‘ऐब्सलूट’ हों, या शेक्सपियर के ‘सीज़र’!
अख़िरकार हैं, तो यह किसी न किसी की कल्पना ही ना?
हर लोकतंत्र कल्पनाओं की लड़ाई लड़ रहा है। यही तो उसकी ज़िम्मेदारी है — एक बेहतर लोक की कल्पना करना। मेरी समझ में यह नहीं आता है कि यह लोक और इसका तंत्र मेरे इहलोक में पाताल की कल्पना के बीज क्यों बो रहा है? क्यों हर कोई यहाँ डरा हुआ लगता है?
आज इस देश का लोकतंत्र पौराणिक मिथकों और सामाजिक पाखंडों से लेकर व्यक्तिगत भ्रम की महाभारत छेड़े हुए है। आख़िर क्यों?
‘राम’ को काल्पनिक कह देना ही इस लोक-तंत्र के लिए अनैतिक हो गया है।
‘सत्य’ अखंडित होता है। किसी भी अवधारणा के अखंडित होने के लिए प्रमाण लगता है। सिर्फ़ कह देने से कोई वैज्ञानिक नहीं बन जाता है। हर वो शक्स जो आज देश-विदेशों की प्रयोगशालाओं में कार्यरत है, क्या वह विज्ञान की सेवा कर रहा है? या जिसे किसी प्रयोगशाला में कोई उपाधि नहीं मिली, वह क्या वैज्ञानिक नहीं है?
जब तक किसी तथ्य का खंडन ना हो जाये, तब तक उसे ही सामाजिक सत्य माना जाता है। सच काल और स्थान के हिसाब से बदल रहा है और हर क्षण के सत्य में तब्दील होता जा रहा है। आनंद बन जाने में नहीं है, आनंद तो बनते जाने में है। आज अगर कल से बेहतर नहीं है और आज कल की बेहतर कल्पना से वंचित है, तो यह एक व्यक्तिगत ही नहीं, लोकतांत्रिक समस्या है। पर बिना व्यक्ति के लोकतंत्र की ज़रूरत ही क्या बची रह पाएगी?
अहं ब्रह्मास्मि!
मैं ही तो हूँ, जो बन रहा हूँ। बनकर बढ़ रहा हूँ। तभी तो मैं भी ब्रह्म हूँ।
'ब्रह्म' शब्द 'बृह' धातु से निष्पन्न हुआ है; जिसका अर्थ होता है - बढ़ना या आगे की ओर प्रस्फुटित होना, आगे निकल जाना, अतिशयन करना, सत्य, नित्य, ऋचा इत्यादि। ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य में इसे नित्यशुद्ध कहा गया है।
बस इतना ही सत्य है। संक्षित में!
यही मेरा परिचय भी है।
यही आपका भी परिचय है। आपसे मिलकर अच्छा लगा। आपको जानकर बेहद ख़ुशी हुई। आपका आभार! आपने मुझे अपनी चेतना का हिस्सा बनने का मौक़ा दिया।
इसलिए, एक संक्षिप्त ‘सुकान्त’ से आपको और मिलवा देता हूँ — मैं रचयिता हूँ, ख़ुद को रचता हूँ। मैं दार्शनिक हूँ, ख़ुद के दर्शन करता हूँ। मैं लेखक हूँ, अपनी ही सफलता-असफलता की कहानी लिख रहा हूँ। वही आप पढ़ रहे हैं। मेरी समझ से सफल हो जाने में कोई सुख नहीं है। आनंद तो मुझे अभी आ रहा है, जब मैं रच रहा हूँ। अपने अतीत को इस वर्तमान में दुबारा रचते हुए मैं आनंदित हूँ। आनंद तो मुझे यह अनुमान लगाने में आ रहा है कि मेरी रचना को पढ़कर — क्या आप मेरे इस ज्ञान को मेरी अज्ञानता समझ पा रहे होंगे भी या नहीं?
किताबों ख़ुद में कोई ज्ञान नहीं है। ज्ञान वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकता है। ज्ञान तो एक व्यक्तिनिष्ठ प्रक्रिया है। हर व्यक्ति का ज्ञान अलग है, क्योंकि एक ही तथ्य की हम सबके पास अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। किताबों से मिली सूचनाओं के आधार पर बनी अवधारणायें ही ज्ञान रूप में हमारी चेतना का हिस्सा बन पाने में सक्षम हैं। आज मेरा जो यह ज्ञान है, आप तक पहुँचते-पहुँचते मेरी अज्ञानता बन चुका होगा। इसकी सुगंध मेरे साथ होकर भी ये शब्द मेरी स्मृर्तियों का हिस्सा बन चुके होंगे। स्मृतियों को यूँही अज्ञानता की उपाधि नहीं दी गई है! बहुत ज़रूरी कारण रहा होगा। वरना, रावण में ही ज्ञान की क्या कमी थी?
राम का इहलोक, रावण की लंका से अलग था। राम-राज्य की कल्पना सोने की लंका से बेहतर थी, तभी तो राम-राज्य आज भी वांछनीय है। मेरी समझ से ‘इहलोक’ की अवधारणा, एक व्यक्तिगत अवधारणा है। हम सब अपना-अपना इहलोक ख़ुद रचते हैं। हर लेखक और उनके पाठक का अपना अलग-अलग इहलोक होता है। जैसे, “हैरी पॉटर” की रचियता जे. के. रोलिंग का एक अपना ही मायावी इहलोक है। एक स्कूल है, जहां बच्चों को जादू सिखाया जाता है। वह स्कूल एक समांतर दुनिया में चल रहा होता है, जो यदा-कड़ा हमारे इहलोक से भी टकराता नज़र आता है। कल्पनाओं को शब्द देने वालों ने ना जाने कैसी-कैसी मायावी दुनिया और उसकी अवधारणाओं को हमारी चेतना के साथ जोड़ रखा है। वहाँ ज्ञान भी है, थोड़ा विज्ञान भी, कहीं अज्ञानता भी है, तो कहीं भावनाएँ भी — इन सब के बीच पाठकों की अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएँ भी हैं। पर अंत भला तो सब भला! हर साहित्य अख़िरकार, अंत में जीवन का गुणगान ही करता है।
साहित्य हमारी आत्म-अवधारणाओं, ख़ासकर सामाजिक आत्म-अवधारणाओं पर गहरा और वृस्तित असर डाल पाने में सक्षम है। जीवन की जटिलताओं से मुक्त करने की क्षमता कहीं है, तो वह साहित्य में ही है। विज्ञान का ज्ञान खंडन से ही संभव है, पर साहित्य हमें एकत्ववाद तक ले जाता है, विभिन्नता में एकता सिर्फ़ साहित्य के ज्ञान में संभव है। विज्ञान का ज्ञान वस्तु को तोड़कर या जोड़कर ही संभव है। विज्ञान के लिए तो व्यक्ति और वस्तु में कोई अंतर ही नहीं है। एक कुशल डॉक्टर के लिए मरीज़ का शरीर सिर्फ़ एक बिड़गी हुई जैविक मशीन है, जिसे ठीक करने की ज़िम्मेदारी उसकी है। समग्रता का संदेश भले विज्ञान भी देता हो, पर समग्रता का दर्शन तो साहित्य से ही संभव है। वैसे, तो विज्ञान की भाषा मूलतः गणित है। पर क्या गणित की अवधारणा भी साहित्य के बिना संभव है?
इस लोक की अनंतता में ही उसकी समग्रता है। शून्य ख़ुद में पूरा है — ख़ुद मूल्यवान भी है, मूल्यहीन भी वही है। शून्य “०” अनंत भी है — उसके अंदर भी एक पूरी दुनिया है, उसके बाहर भी एक पूर्ण ब्रह्मांड बसता है। कल्पना के परे भी कोई दुनिया है, या हो सकती है, इससे शायद ही कोई तार्किक प्राणी एतराज रखेगा। एक बेहतर और बदतर दुनिया की कल्पना शुरुवात से हमारे साथ चलती आ रही है। आज भी साथ है, आगे भी अपना साथ निभाते ही जाएगी।
अनगिनत ग्रहों और तारों के बीच पृथ्वी की अपनी एक स्वतंत्र समग्रता है। प्रमाण के लिए हमने आसमान के बादलों को चीरकर अंतरिक्ष से इस समग्रता की तस्वीर निकाली है। लगातार निकाल भी रहे हैं। तभी तो मौसम से लेकर हमारी मंज़िलों का पता, हमें अंतरिक्ष से मिल रहा है। सैटेलाइट से निरंतर हम पर निगरानी भी रखी जा रही है। क्या जीना इतना आसान कभी रहा होगा? क्या कभी सोचा है — सिकंदर या पोरस ने कभी ऐसी दुनिया की कल्पना भी की होगी? अगर, किसी सनकी सम्राट ने यह सब सोच लिया होता, तो पृथ्वी की समग्रता को वह बैठे-बैठे ही भंग कर देता। इधर से सिकंदर एक एटम बम मारता, उधर से पोरस भी हाइड्रोजन वाला फोड़ डालता। लोग बड़े सनकी होते हैं। उनका क्या ठिकाना?
इसलिए जिस काल-सारिणी को हम इतिहास में पढ़ते-खोजते रहते हैं। उसके अनुसार हर काल में इंसान समग्रता की तलाश में बेचैन ही रहा है। यही बेचैनी हमारी ‘जिजीविषा’ है — हमारे जीने की जिज्ञासा, जो हमें निरंतर एक बेहतर जीवन की तलाश में तैयार करती रहती है। हम सबकी एक काल-सारिणी है, जिसमें हम अपने अनुभव और अनुभूतियों को रचते जाते हैं। यही धरोहर हमें हमारी समृद्धि और समग्रता का एहसास दिलाता है। तुहिन ही सही हम सबका अपना एक समग्र इहलोक है, जो ख़ुद में संपूर्ण और समृद्ध है।
मेरी दार्शनिक समझ के अनुसार ब्रह्मांड और व्यक्ति दोनों ही समग्र या समृद्ध हो जाने से अर्थवान नहीं होते हैं। उनका अर्थ तो समग्रता की तलाश में है। कई दार्शनिकों ने इस सत्य की तार्किक पुष्टि भी की है। फिर दर्शन ही हमें यह भी बताता है कि तर्क अप्रमा है। मतलब, तर्क से हमें कोई नया ज्ञान प्राप्त हो ही नहीं सकता है। इसलिए, हर किसी का एक इहलोक है, जो हर पल हर जगह ख़ुद में पूरा है। बस इसकी पूर्णता हमारी ज़रूरतों और आस्था पर निर्भर करती है। अपनी ही समृद्धि का हमें भावनात्मक एहसास नहीं होता है। क्योंकि, हमारी भावनाएँ हमारे प्रज्ञा से ज़्यादा हमारी स्मृतियों पर निर्भर करती है। स्मृतियों की अज्ञानता हमें पूर्णता का कभी एहसास होने ही नहीं देती है। मन पर शरीर एक बोझ है। चेतना पर नहीं, बस मन पर - क्योंकि मन का काम चेतना और शरीर को बांधे रखना है। थककर मन और शरीर जब सो जाते हैं, चेतना ही तो सपना देख रही होती है। जहां हम अपने-अपने इहलोक को मनचाहा रच सकते हैं। परंतु, हर बार जागकर हमें सपना याद ही कहाँ रहता है? हम यही कहाँ जान पाते हैं कि आख़िर मन चाहता क्या है?
आत्मा निष्क्रिय है, शून्य है। हर काल और स्थान पर जीवन का आधार मात्र है। हमारी चेतना हमारे जीवन और मन की साक्षी है। चेतना आत्मा का वर्तमान रूप है। वह भी ख़ुद में शून्य है। पर, हमारा मन शून्य नहीं रह सकता है। इंद्रियों से मिलती नयी सूचनाओं और अनंत स्मृतियों से पीड़ित मन — हर काल और स्थान पर हमारे अस्तित्व की शून्यता को कई शून्यों में विभक्त करता जाता है। उसमें ज्ञान की तलाश ही तो हमारा मौलिक लक्ष्य है।
हमारे अस्तित्व की अखंडता भी कहाँ क़ायम रह पाती है? सापेक्षता हमारे अस्तित्व तो अनगिनत किरदारों में विभक्त कर देती है। हर किरदार में हमारा अस्तित्व ‘अर्थ’ के अनुसार बदलता रहता है। हम एक नहीं कई किरदार निभाते हैं। मैं भी बुलबुलों की तरह उठते विचारों में, कल्पनाओं में, अपने अनुभव और अनुभूतियों में अपना इहलोक रचता आया हूँ। मेरी इंद्रियों, स्मृतियों, और कल्पनाओं ने जिस दुनिया को मेरे शरीर के लिए बसाया है, उसी दुनिया का मेरी अर्धांगिनी भी एक हिस्सा है। हम दोनों ने मिलकर एक छोटी सी कल्पना की है। अपने लिए एक छोटी ही सही समग्र दुनिया बसाई है। उसी दुनिया में हम सब रहते हैं। हाँ! जनाब, आप भी! यही भाईचारा तो हर धार्मिक पंथ सिखाने की कोशिश करता मुझे नज़र आता है। फिर भी ना जाने लोक कैसे-कैसे ढोंग रचा रहा है?
एक ही गृहस्थ दुनिया हम दोनों पति-पत्नी का इहलोक अलग-अलग है। मुझे रसगुल्ले पसंद है, तो उसे गुपचुप, और हमारी बिटिया दोनों के लुत्फ़ उठाती है। हम तीनों का एक निजी इहलोक है, जिसे जोड़कर हम एक गृहस्थी को रचने का प्रयास कर रहे हैं। वह गृहस्थी जो हमारे माता-पिता ने रचायी थी। तभी तो हर बच्चे को कम-से-कम दो ठिकाना तो मिल ही जाता है - एक दादी-घर और दूसरा नानी-घर, परिवार बढ़ता जाता है। नये-नये इहलोक इसमें जुड़ते जाते हैं - बच्चे, दोस्त, रिश्तेदार, पड़ोसी या अजनबी ही सही जीवन की एक डोर ने हम सबको बांधे रखा है। हर पौराणिक और ऐतिहासिक इहलोक हमारी विरासत ही तो है। अपनी विरासत का हम कितना उपयोग कर पाते हैं? यह तो हमारी कल्पनाओं पर ही निर्भर करता है। साहित्य हमेशा से हमारे सामने दो पक्ष रखता आया है — एक जो जीवन के पक्ष में होता है, और दूसरा पक्ष जीवन के विपक्ष में खड़ा होता है। जीवन का पक्षधर नायक कहलाता है। बाक़ी नालायक या खलनायक बनकर रह जाते हैं। जीवन का पक्ष भी सापेक्षता से ग्रस्त है। यह तो हमारी प्रज्ञा और ज्ञान पर निर्भर करता है कि हम अपने किरदारों का चरित्र-चित्रण करने में कितने कामयाब हो पाते हैं। कौन-सा किरदार जीवन के पक्ष में है, और कौन जीवन का विरोध कर रहा है? नैतिकता के निर्धारण के लिए इसका निर्धारण मुझे अनिवार्य जान पड़ता है। हिंसा तो लोक भी करता है, तंत्र भी हिंसा ही कर रहा है। वरना, नक्सलवाद किसी के अधिकारों की लड़ाई नहीं होती। वे भी तो अपने जीवन के पक्ष में हथियार उठाये फिरते हैं।
जीवन के विरुद्ध कोई किरदार जाता ही क्यों है? जीवन के पक्ष में रहना क्या इतना मुश्किल है?
सबको पता है कि सच बोलना चाहिए, फिर भी कोई सच बोलता क्यों नहीं है?
कुछ ऐसे ही सवाल मेरी जिज्ञासा का केंद्र बन गये हैं। यही मेरी इहलौकिक जिजीविषा है, जो मुझे लिखने पर मजबूर करती रहती है। पढ़कर मैं ख़ुद को लिखता हूँ। यही मेरा रोज़गार है। पढ़-लिखकर नौकर बनने से मैंने इनकार कर दिया। इस खंड में मेरी इसी बग़ावत की कहानी है। एक व्यक्ति और उसका व्यक्तित्व कई अवधारणाओं के सामंजस्य से निर्मित होता है। जिसमें एक ख़ास अवधारणा - ‘आत्म-अवधारणा’ की होती है। हम ख़ुद के बारे में क्या-क्या जानते हैं? यह सूचनाएँ और इनका ज्ञान हमारे फ़ैसलों को निर्धारित करने में एक अहम भूमिका अदा करता है। इसके पहले की मैं अपनी आत्म-अवधारणाओं और उनके प्रमाणों पर चर्चा करूँ, मुझे लगता है ‘आत्म-अवधारणा’ की अवधारणा पर प्रकाश डाल देना ज़रूरी है।