‘आत्म-अवधारणा’ के बारे मैं मैंने ‘Personality Development’ नामक किताब में पढ़ा है। इस किताब को Elizabeth B॰ Hurlock ने लिखा है। वैसे तो इस किताब को आज तक मैंने पूरा नहीं पढ़ा है, पर जितना पढ़ा है उसमें Self-Concept के बारे में पढ़कर, मैं ख़ुद के बारे में सोचने पर मजबूर हो गया। लगभग डेढ़-दो साल पहले मैंने इस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया था। आज तक इसका मात्र एक तिहाई भाग ही पढ़ पाया हूँ। तीन खंडों में कुल पंद्रह अध्याय हैं, जिनमें से मैंने सिर्फ़ पहला खंड ही पढ़ा है। इस किताब का दो खंड और दस अध्याय अभी भी पढ़ना बाक़ी ही हैं।
जबकि, मेरी आदत ऐसी नहीं है। अक्सर, मैं किताब को पूरा पढ़कर ही रुकता हूँ। पर हर किताब मेरी समझ में नहीं आती है। गणित और विज्ञान की किताबें में लिखी बातें भी मेरी समझ में कुछ ख़ास नहीं आती है। ख़ासकर, रसायन विज्ञान की किताबों में लिखी बातें मेरे पल्ले नहीं पड़ती हैं। आँकड़ों के साथ भी मेरा रिश्ता कुछ अच्छा नहीं है। पर, हर विषय की यही दशा नहीं रही है। कंप्यूटर संबंधी किताबों से मेरा याराना अच्छा रहा है। दर्शन और साहित्यिक किताबें तो मुझे आकर्षित करती हैं। हर प्रकार का साहित्य भी मैं नहीं झेल पाता हूँ। आख़िरी साहित्य भी पढ़े, लगता है कि एक अरसा गुजर गया है।
पिहले कुछ सालों से अपनी रुचि मैंने मनोविज्ञान में जगाने का प्रयास किया है। ख़ासकर, जब मैंने अपनी कंपनी शुरू की थी, तब मुझे अपने ग्राहकों और उपभोक्ताओं को समझने की ख़ातिर मनोविज्ञान के व्यावहारिक पहलू का अध्ययन करने की ज़रूरत जान पड़ी था। मैं एक आईटी इंजीनियर भी तो हूँ। अपनी कंपनी में मैंने कई तरह के सॉफ़्टवेयर बनाने का प्रयास किया था। जब कंपनी का दिवालिया निकल गया, मैं दुखी हुआ था। मन का दुख से बड़ा घनिष्ठ रिश्ता है। कंपनी के बंद हो जाने से पहले भी मैंने कई दुखों का सामना किया है। अपने दुखों से परेशान होकर, मैंने उनको समझने का निर्णय लिया। जिसके लिये मैंने दर्शन की औपचारिक पढ़ाई शुरू कर दी। जहां पहली बार जीवन में मैंने सफलता का अनुभव किया है। दर्शन की किताबों को पढ़ने में मुझे दिक़्क़तें कम और मज़ा ज़्यादा आता है।
कई दार्शनिक परंपराओं और दार्शनिकों की मदद से ज्ञान और अज्ञानता के अंतर और दोनों के अर्थ को मैं समझ पाया। मेरी जिजीविषा और जिज्ञासा ने मेरा परिचय कई विचारकों और चिंतकों से करवाया। इसी दौरान मैंने Elizabeth B॰ Hurlock की ‘Personality Development’ को भी पढ़ना शुरू किया था। जिन भी किताबों से मैंने प्रेरणा ली है, उनका ज़िक्र मैं इस किताब के अंत में करने की कोशिश करूँगा। संभव है कि कुछ किताबों का ज़िक्र मैं ना कर पाऊँ, क्योंकि यादस्त की भी अपनी ही एक सीमा है।
ख़ैर, इसके पहले कि मैं अपनी कल्पनाओं को आकार देना शुरू करूँ, मुझे Self-Concept या आत्म-अवधारणा की अपनी समझ को यहाँ प्रस्तुत करना ज़रूरी जान पड़ता है। यह अगला हिस्सा Self-Concept की अवधारणा का मेरा हिन्दी अनुवाद है। वैसे तो मैंने इस किताब को अंग्रेज़ी में पढ़ा है और यहाँ मैं अपनी समझ को हिन्दी में लिखने की कोशिश कर रहा हूँ। ज़ाहिर है, अनुवाद का कुछ हिस्सा मेरा अपना ही होगा। अनुवाद में बहुत कुछ बदल जाता है। इसलिए, उस किताब में लिखा कुछ महत्वपूर्ण विवरण भी यहाँ उद्धरण के रूप में डाल रखा है। एक ही तथ्य विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग भावनाओं और मानसिक प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है। मेरे अनुमान से पर्यायवाची शब्दों का समानार्थी उपयोग संभव नहीं है। शब्दों की बुनावट में महीन अंतर भी समझ के स्तर पर बड़ी विषमता पैदा करने में सक्षम है। विचारों के आदान-प्रदान में विराम और अल्पविराम का प्रयोग भी बड़ी अहमियत रखता है। इस बात की पुष्टि के लिए कहीं मैंने यह छोटा सा उदाहरण भी पढ़ा था। वह उदाहरण कुछ इस प्रकार था।
कहीं कभी पहाड़ों पर एक मिलिट्री की गाड़ी कोई पुल पार करना चाहती थी। गाड़ी में देश के कई होनहार और बहादुर सैनिक सवार थे। पुल पर एक गार्ड तैनात था, जो गाड़ी को आगे जाने से मना कर रहा था। ऐसा करने का आदेश उसे प्रशासन की तरफ़ से दिया गया था। गाड़ी पर बैठे कमांडर के अनुसार उनका पुल पार करना राष्ट्र-सुरक्षा के लिए बहुत ज़रूरी था। इसलिए, गार्ड ने एक चपरासी को प्रशासन से अनुमति लेने के लिए भेज दिया। वहाँ से जो सूचना पुल तक पहुँची वह कुछ इस प्रकार थी - “रोको मत, जाने दो।”
गार्ड ने गाड़ी को जाने दिया। बीच पुल में ही कांड हो गया — पुल टूट गया, गाड़ी खाई में गिर गई और कमांडर के साथ सारे सैनिक शाहिद हो गये। क्या उनका जीवन देश के लिए क़ुर्बान हुआ था? क्या प्रशासन ही कोई भूल थी? गौर से देखें तो गलती किसी की नहीं थी। बस, सूचना के संप्रेषण में हुई थोड़ी गड़बड़ी के कारण कई पत्नियाँ विधवा हो गयीं और कई बच्चे अनाथ हो गये। प्रशासन की तरफ़ से पुल के गार्ड को यह आदेश भेजा गया था - “रोको, मत जाने दो।”
भारत के एक समकालीन दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति को भी पढ़ने का मुझे मौक़ा मिला है। उनकी किताब “What are you doing with your life?” ने मुझे कई व्यक्तिगत और सामाजिक सवालों के सानिध्य में ला खड़ा किया है। उनकी एक बात जो मेरी चेतना में बस गई है, वह कुछ इस प्रकार है — “लगता नहीं है कि कोई अपने बच्चों से भी प्यार करता है। अगर कोई करता होता, तो दुनिया भर में इतने बच्चे सैनिक बनकर लड़-मर नहीं रहे होते। आख़िर किसी का बच्चा ही तो आतंकवादी बनता है, और किसी का बच्चा सैनिक बन जाता है।”
अफ़सोस तो मुझे इस बात का है कि ऐसे उदाहरण मेरे पास भी बहुत सारे हैं। मैं ख़ुद अपनी बातें बोलकर नहीं समझा पाता हूँ। अपने विगत जीवन में कई कारणवश मेरी सामाजिक भूमिका काफ़ी सीमित रही है। मेरा स्वस्थ और मेरी आदतों के साथ-साथ मेरी अवधारणाएँ और कल्पनाएँ भी इस सीमा का निर्धारण करती आयी है। बचपन ने विभिन्न मानसिक कमज़ोरियों और शारीरिक बीमारियों ने मेरे शरीर पर शासन और उसका दोहन किया है। जवानी में अपना सामाजिक दायरा बढ़ाने के प्रयास में मैं नशे को अपनी ज़रूरत बना बैठा, जिस कारण मुझे अपने ही व्यवहार पर शर्म आने लगी। अपनी गलती को अपनी ज़रूरत साबित करने के लिए मैंने कई तर्क भी खोज निकाले। फिर भी मैं ख़ुद को ग़लत ही मानता हूँ। अपने अनुभव और बढ़ती उम्र के साथ मेरी अवधारणाएँ मेरे समाज और परिवार की मान्यताओं से अलग हो गये। अब जब मैं अपना जीवन इस देश की औसत उम्र का आधा जी चुका हूँ, मुझे लगता है कि अपनी कल्पनाओं को साकार होते, शायद ही मैं अपने जीवनकाल में देख पाऊँगा।
इसलिए भी तो लिखकर मैं अपनी बातें समझाने का प्रयास करता रहता हूँ। अपने अस्तित्व की अभिव्यक्ति कर पाना, ना सिर्फ़ हमारी भावनात्मक ज़रूरत है। बल्कि, यह अभिव्यक्ति हमारे अस्तित्व को अर्थ देने के लिए भी बेहद ज़रूरी है। हमारी अभिव्यक्ति ही तो हमारी आत्म-अवधारणा की प्रत्यक्ष है। अपनी-अपनी अभिव्यक्ति तो हम हर क्षण, हर जगह अपने साथ लिए चलते हैं।
Elizabeth B॰ Hurlock ने “Self-Concept या आत्म-अवधारणा” को बड़ी बारीकी से समझाने का प्रयास किया है। जिसके लिये उन्होंने कई दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों के द्वारा दी गई परिभाषाओं और सिद्धांतों का प्रयोग किया है। उन्होंने William James और Sigmund Freud जैसे मनीषी दार्शनिकों के साथ-साथ कुछ नामचीन मनोवैज्ञानिकों का भी ज़िक्र किया है। जिसका सटीक अनुवाद करना, मुझे अपनी इस तत्कालीन परियोजना के लिए ज़रूरी नहीं प्रतीत होता है। अगर ज़रूरत पड़ी तो उसका अनुवाद करने का भी प्रयास करूँगा। फ़िलहाल, मैं आत्म-अवधारणा की अपनी समझ को प्रस्तुत करने की अनुमति चाहूँगा। क्योंकि, मेरा अनुमान है कि छात्रों में इन्हीं आत्म-अवधारणाओं के निर्माण की ज़िम्मेदारी समाज की है। ख़ासकर, शिक्षा-व्यवस्था की जवाबदेही है।
परिभाषा
“मैं कौन हूँ?” - इस सवाल ने इंसान की चेतना को गंभीर रूप से परेशान कर रखा है। आज से नहीं, और कल तक भी नहीं, यह सवाल उत्पत्ति से अनंत तक व्यक्तिगत और सामाजिक चेतना में गूंजता ही रहेगा। यही सवाल ही वह बुनियादी प्रश्न है, जो हमारे जीवन को अर्थ देता है। जीवन भर हम ख़ुद में ख़ुद को तलाशते हैं। साथ ही अपनी पसंद-नापसंद को तराशते हुए अपनी-अपनी ज़िंदगी गुजरते हैं। अनुभवों के आधार पर हम भावनाओं और विचारों को आकार देते हैं। मेरी समझ से चिंतन की यही क्रिया और प्रक्रिया — हमारी आत्म-अवधारणा को गढ़ती है।
Elizabeth B॰ Hurlock के अनुसार आत्म-अवधारणा के तीन घटक हैं - perceptual component (अनुभवात्मक घटक), conceptual component (विचारात्मक घटक) और attitudinal component (व्यवहारात्मक घटक)।
घटक
अनुभवात्मक घटक, विचारात्मक घटक, व्यवहारात्मक घटक
अनुभवात्मक घटक: शारीरिक या भौतिक आत्म-अवधारणा
Excerpt: The perceptual component is the image the person has of the appearance of his body and of the impression he makes on others. It included the image he has of the attractiveness and sex appropriateness of his body, the importance of the different parts of his body, such as his muscles, to his behaviour and the prestige they give hem in the eyes of others. The perceptual component is often called the "physical self-concept".
अनुभव का सीधा अभिप्राय शरीर से होता है। हमारे अनुभवों का माध्यम हमारी इंद्रियाँ हैं। अपने शरीर को भी हम इंद्रियों के माध्यम से ही अपने ज्ञान का हिस्सा बना पाते हैं। किसी भी दर्पण में हम ख़ुद की शक्ल देख सकते हैं। कहते हैं, आईने कभी झूठ नहीं बोलते। अपनी आवाज़ हमें सुनायी भी देती है। हम ख़ुद अपनी त्वचा को छूकर महसूस कर सकते हैं। अपने ही पसीने की गंध को कभी हम सुगंध, तो कभी दुर्गंध मानते आये हैं। अपने आंसुओं का खारापन किसने नहीं चखा होगा?
अपने अनुभवों के आधार पर हम अपने शारीरिक अस्तित्व की एक अवधारणा बनाते हैं। हमारे इस अस्तित्व की साक्षी अन्य चेतनाएँ भी हैं। हमारे माता-पिता ने हमें जन्म दिया है। वे हमारे साक्षी हैं। कई नाते-रिश्तों के साथ हम पैदा होते हैं। कई रिश्ते हम जोड़ते जाते हैं। हर उस आईने में हम अपनी बनती-बिगड़ती छवि का भी अनुभव करते रहते हैं। विचार सिर्फ़ अनुभव तक ही सीमित नहीं रह जाते हैं। हमारी कल्पनाएँ भी इन छवियों को बनाती-बिगाड़ती रहती हैं। हमारा रंग, हमारे चलने का ढंग, हमारे व्यक्तित्व से उत्पन्न होता आकर्षण, यहाँ तक की हमारी यौन-क्षमताएँ, आदि-अनादि — हमारी आत्म-अवधारणा का निर्धारण करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते आये हैं। आगे भी देते जाएँगे। संभवतः, इन्हीं कारणों से इस अनुभवात्मक घटक को ‘शारीरिक आत्म-अवधारणा’ के रूप में भी जाना जाता है।
विचारात्मक घटक: मनोवैज्ञानिक आत्म-अवधारणा
Excerpt: The conceptual component is the person's conception of his distinctive characteristics, his abilities and disabilities, his background and origins, and his future. It is often called the "psychological self-concept" and is composed of such life adjustment qualities as honesty, self-confidence, independence, courage and their opposites.
हर प्राणी व्यक्ति नहीं होता, व्यक्ति का निर्माण विचार करते हैं। प्राण तो पशु-पक्षियों में भी है, पर उनमें व्यक्तित्व की कमी है। वैसे, अपनी सुविधा के अनुसार हम कुछ चुनिंदा पशु-पक्षियों का नामांकरण भी करते हैं। हर घर के कुत्ते का नाम ‘भू-भू’ नहीं होता है। किसी एक परी ने अपने पालतू का नाम ‘भू-भू’ रखा था। एक कुत्ते का यह नाम बड़ा स्वाभाविक-सा था। फिर भी किसी राह-चलते मुसाफ़िर के लिए वह एक साधारण कुत्ता ही है। मेरे कुत्ते का नाम जानने की दिलचस्पी किसी को भला क्यों होगी? हम अपने पालतू-कुत्ते का व्यक्तीकरण करने को स्वतंत्र हैं। पर, हम समाज में उसका व्यक्तित्व स्थापित नहीं कर सकते हैं।
हर कुत्ते की क़िस्मत “लाइका” जैसी नहीं होती है। अगर, आपको यह नाम अभी भी नहीं खटका हो! तो बता दूँ — अंतरिक्ष में जाने वाली वह पहली प्राणी थी, जिसे रुस ने १९५७ में स्पुतनिक में बिठाकर अंतरिक्ष में भेजा था। उस बेचारी कुतिया को हमारी जिज्ञासा ने ना जाने कौन-कौन से दिन दिखलाए? वह बेचारी तो ज़िंदा लौट तक ना पायी। ना जाने, कितने बच्चों ने अपनी कुतिया का नाम “लाइका” रखा होगा। उनके लिए उनकी लाइका का एक व्यक्तित्व ज़रूर होगा। पर, जिस “लाइका” से पूरा विश्व परिचित है, वह अब हमारे बीच नहीं है।
व्यक्तित्व का निर्माण हमारी सामाजिक पहचान पर निर्भर करता है। वरना, कल जब मैं कंप्यूटर पर काउंटर-स्ट्राइक (CS:GO) का ऑनलाइन मल्टीप्लेयर गेम खेल रहा था, वहाँ मैंने राम नाम के आतंकवादी को मार गिराया था। राम नाम का हर व्यक्ति भगवान नहीं होता है।
विचारात्मक घटक हमारी क्षमताओं और अक्षमताओं के आँकलन पर निर्भर करता है। हमारी खूबियाँ और हमारे दोष भी हमारी अवधारणाओं का हिस्सा हैं। हमारा अस्तित्व स्वतंत्र नहीं हो सकता है। हमें किसी ने जन्म दिया है। उनकी व्यक्तिगत और सामाजिक छवि भी हमारी आत्म-अवधारणा को निर्धारित करती है। किसी भी समाज में ‘वंशवाद’ कोई नया क़िस्सा तो नहीं है। ना ही कोई ऐसा समाज है, जो कभी वंशवाद से मुक्त रहा हो। मेरी समझ से वंशवाद को नियंत्रित करने का ही प्रयास किया जा सकता है, इसका उन्मूलन मुझे संभव नज़र नहीं आता है। वंश का दायरा ही जब बढ़ता है, तब, व्यक्तिगत और सामाजिक ज़रूरतों के अनुसार विभिन्न संप्रदायों की स्थापना होती जाती है। कुछ संप्रदाय धार्मिक होते हैं, तो कुछ राजनैतिक? क्योंकि हर इंसान में इतनी जिज्ञासा ही नहीं होती है कि वह वैज्ञानिक या अन्य बौद्धिक और रचनात्मक संप्रदायों का हिस्सा बनने की चेष्टा तक कर पाये। जनहित में ऐसे मौक़े भी आम इंसान को कहाँ मिल पाते हैं। यहाँ तो रोटी, कपड़ा और मकान के चक्कर में ही ज़िंदगी गुजरी चली जा रही है। जीवन और जिज्ञासा को तवज्जो देने की फ़ुरसत ही कोई कहाँ निकाल पाता है?
हर अस्तित्व अपनी उत्पत्ति और भविष्य के लिए संघर्षरत है। इसी संघर्ष में वह अपने व्यक्तिव को तराश रहा है। विचार और कल्पनाओं में बहुत अंतर नहीं है। विचारों को शब्द चाहिए, उनमें अभिव्यक्त हो जाने की लालसा तीव्र होती है। कल्पनाओं पर ऐसा कोई बंधन नहीं है। वे अभिव्यक्ति के बंधन से मुक्त हैं, इसलिए हमारे सपने स्वतंत्र हैं। जिन कल्पनाओं को अभिव्यक्ति मिल जाती है, वही विचारधारा का निर्माण करते हैं। हर विचार की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती है। ना ही हर अभिव्यक्ति शब्दों में ही संभव है। शब्दों में स्पष्ट रूप से कह देने पर भी अक्सर विचारों का आदान-प्रदान पूरा नहीं हो पाता है। इसलिए, चेतना ने अभिव्यक्ति के कई रास्ते बना रखे हैं। कोई चित्र बनाता है, तो कोई नाचकर ख़ुद को अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहा है। संभवतः, इन्हीं कारणों से इस विचारात्मक घटक को ‘मनोवैज्ञानिक आत्म-अवधारणा’ का भी नाम दिया जाता है।
विचारात्मक घटक में कई नैतिक और सामाजिक मूल्यों का भी योगदान होता है। जिनमें ईमानदारी, स्वाभिमान, स्वतंत्रता, साहस और इनके विपरीतार्थक मूल्य भी अभिन्न रूप से शामिल हैं।
व्यवहारात्मक घटक: भावनात्मक आत्म-अवधारणा
Excerpt: Included in the altitudinal component are the feelings a person has about himself, his attitudes about his present status and future prospects, his feelings about his worthiness and his attitudes of self-esteem, self-reproach, pride and shame. As the person reaches adulthood, the altitudinal component includes also the believe, convictions, values, ideals, aspirations, and commitments which make up his philosophy of life.
हर समाज हर काल और स्थान पर व्यवहार-कुशल व्यक्ति की कदर करता आया है। हमारे अनुभव और कल्पनाएँ हमारे व्यवहार कि मुख्य निर्धारक हैं। हमारा चरित्र हमारे आचार और व्यवहार का ही तो दर्पण है। हमारा व्यवहार को हमारी भावनाएँ अपने अनुसार ढालती रहती है। हमारे व्यवहार को ही तंत्र नियंत्रित करने का प्रयास करता रहता है।
एक व्यक्ति अपने काल और स्थान पर जब चिंतन करने लगता है, तब यह मनोवृत्ति उसे उसके भूत और भविष्य की कल्पनाओं से परिचित करवाने लगती है। उसे अपने भूत की स्मृतियाँ भी सताती हैं, और भविष्य में ख़तरे का संशय भी उसकी चेतना को विचलित करता रहता है। यह मनोदशा उस व्यक्ति के व्यवहार पर असर डालती है। सुरक्षा का भाव हमारे व्यवहार में कुशलता लाता है। हमारी चाल-ढाल में एक दृढ़ता और आत्मसम्मान का बोध होने लगता है। वहीं, असुरक्षा का भ्रम हमारे व्यवहार में हमारी अज्ञानता को प्रतिबिंबित करता है।
हर व्यक्ति किसी-ना-किसी समाज का पात्र होता है। बिना समाज के कोई प्राणी व्यक्ति नहीं बन सकता है, इंसान भी नहीं, यहाँ तक कि बिना समाज के भगवान का अस्तित्व भी ख़तरे में आ सकता है। आख़िर फिर उसे पूछेगा ही कौन? मैंने तो किसी गधे को धर्मालय बनवाते नहीं देखा है, जहां कुत्ते की शकल वाली कोई प्रतिमा विद्यमान हो। मेरी समझ से भगवान का हर रूप, हमारी कल्पना और उसके आधार पर उस कल्पना की सामाजिक अभिव्यक्ति मात्र है। यही सामाजिक पात्रता और उसकी प्रतिष्ठा हमारे सामाजिक जीवन के स्तर का निर्धारण करती आयी है। लोगों को अक्सर मैंने अपनी औक़ात नापते देखा है, कभी-कभी तो लोग मेरी औक़ात भी नापने लगते हैं।
जिस नज़रिए से हम अपने आत्म-सम्मान, आत्म-निन्दा, घमंड या शर्म का आँकलन करते हैं। उसी नज़रिए से उभरती ख़ुद की तस्वीरें हमारे व्यवहार की संरचना करते रहते हैं। व्यक्तित्व की परिपक्वता का अनुमान हम व्यावहारिक स्तर पर ही तो लगा पाते हैं। अंदर से कोई व्यक्ति कैसा है? ठीक वैसा ही, जैसे हम हैं। मूलतः, हम सभी चेतन-रूप में ब्रह्म ही तो हैं। यही सत्य ना सिर्फ़ भारतीय, बल्कि पाश्चात्य दर्शन का आख़िरी निष्कर्ष है। विज्ञान भी इसी निष्कर्ष पर पहुँच पाया है, जिसे वह ‘गॉड-पार्टिकल’ का नाम देता है। नाम के बदल जाने से अवधारणाएँ नहीं बदल जाती है।
वैसे तो, इस किताब में इस घटक को सीधे किसी आत्म-अवधारणा से नहीं जोड़ा गया है। पर मेरे हिसाब से हमारा व्यवहार को सबसे ज़्यादा हमारी भावनाएँ प्रभावित करती हैं। इसलिए, मैंने इसे ‘भावनात्मक आत्म-अवधारणा’ से जोड़ने की प्रयास किया है।
प्रकार
एलिज़ाबेथ ने चार प्रकार की आत्म-अवधारणा का ज़िक्र किया है - Basic Self Concept (बुनियादी आत्म-अवधारणा), Transitory Self-concept (अल्पकालिक आत्म-अवधारणा), Social Self Concept (सामाजिक आत्म-अवधारणा), Ideal Self-concept (आदर्श आत्म-अवधारणा)।
Basic Self Concept (बुनियादी आत्म-अवधारणा)
Excerpt: It is the person's concept of what he really is. It includes his perception of his appearance, his recognition of his abilities and disabilities and of his role and status in life, and his values, beliefs and aspirations.
The basic self-concept tends to be realistic. The person sees himself as he really is, not as he would like to be. Sometimes the basic self-concept is to the person's liking. More often, it is not. The person finds flaws in himself which make him unhappy and dissatisfied and which he would like to change. Even when the treatment he receives from others would seem to encourage greater self-acceptance, a person may cling to his basic self-concept.
मैं एक पिता हूँ। मैं एक पति भी हूँ। एक बेटा भी हूँ। कुछ रिश्ते तो जन्म से ही हमसे जुड़ जाते हैं। शायद, मैं किसी का दोस्त भी हूँ। संभव है कि कोई मुझे दुश्मन भी मानता हो। हर रिश्ता हमें एक पहचान देता है। पर, उन सब में हमारी पहचान का केंद्र बाह्य है। हर संबंध में हमारा अस्तित्व किसी दूसरे अस्तित्व पर आश्रित है। इन पहचानों को अगर मैं नकार दूँ, फिर! अकेला मैं, मैं कौन हूँ?
संभवतः, इस सवाल का हल ढूँढने, किसी भी चेतना का ध्यान सबसे पहले शरीर की ओर आकर्षित होगा। सत्य का तो पता नहीं, पर हमारी सच्चाई तो हमारे शारीरिक अस्तित्व से ही प्रारंभ होती है। हम कैसे दिखते हैं? रंग? रूप? नैन-नक़्श? भाव-भंगिमा? हमारी क्षमताएँ? हमारी कमज़ोरियों? हमारे मूल्य? हमारी आस्था? हमारी आकांक्षाएँ?
ऐसे ना जाने कितने सवालों का उत्तर तलाश कर भी हम कभी ख़ुद को एक मुकम्मल पहचान नहीं दे पाते हैं। फिर भी यह संघर्ष ही तो है, जो जीवन को अर्थ देता है। यह तलाश ही तो जीवन है। कहीं पहुँच जाना तो रोमांच का अंत है। मज़ा तो आगे चलते जाने में है। पुनर्जन्म में ही क्या बुराई है। बुरी ही सही यह ज़िंदगी तो मेरी है। मैं ही सफ़र करता हूँ। इस सफ़र का आनंद मेरे अलावा और कौन लेगा? हर सफ़र में साथ तो बदलता ही रहता है। असली मज़ा तो सफ़र करते जाने में है। बस मंज़िलें आकर्षक होनी चाहिए और सफ़र सुहाना हो तो ही बेहतर है। पहाड़ हो, घाटियाँ भी, कहीं समुद्र का भी दीदार हो जाये, तो क्या मज़ा है!
हर रोज़ किसी की मंज़िल ऐसे हो — जहां सृजन का दीपक दिन-रात जलता हो! जहां आनंद हो! जहां कुछ रच डालने का अर्थ मिले! एक नयी मूर्ति, या एक नयी कविता, या नया चित्र, कुछ नया हो! वहाँ चाहे कुछ भी हो, पर कोई पहरा ना हो! कोई डर ना हो! जहां ज्ञान प्रबल हो!
ऐसी जगह ना हो — जहां मन हर क्षण आशंकाओं, भ्रमों, स्मृतियों और तर्कों से घिरा हुआ हो! जहां जिज्ञासा तक ने भी साथ छोड़ दिया हो! जहां जाने से पहले ही प्राण सुख जाते हों! जहां चेतना हर क्षण घुट रही हो! और आत्मा तक तड़प रही हो! वहाँ जाने का क्या फ़ायदा?
नैतिकता का दायरा व्यक्तिगत नहीं होता है। नीतियों का निर्धारण समाज करता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी तो निःसंदेह है, पर पहले उसका एक व्यक्तिगत अस्तिव भी है। व्यक्तिगत अस्तित्व स्वतंत्र नहीं हो सकता है। उसमें एक सामाजिक और नैतिक सापेक्षता मौजूद है। नैतिकता के हर पैमाने से कहीं दूर, मैंने जब भी कभी ख़ुद अकेला पाया है, तब-तब मैं अपने लिये एक पहचान बनाता आया हूँ। समय और स्थान से परे मैं ख़ुद के लिए एक अवधारणा बुनता आया हूँ। मेरी यही अवधारणा मेरी बुनियादी आत्म-अवधारणा है। अपने बारे में बहुत कुछ मैंने पहले ही आप लोगों को बता दिया है। अपनी इस अवधारणा को भी आप लोगों से साझा करने के लिए मैं उत्सुक हूँ। अगले अध्याय में अपनी आत्म-अवधारणाओं को एकत्रित करने का प्रयास करूँगा।
फ़िलहाल तो, मैं तो अपने बारे में बस इतना ही जानता हूँ — मैं जैसा भी हूँ, जहां भी हूँ, मैं वहाँ की ज़रूरत हूँ। अगर मैं ज़रूरी नहीं होता, तो मैं वहाँ क्यों होता? मुझे हर काल और स्थान पर अपनी ज़रूरत तलाशनी है। यही तो मेरे अस्तित्व की इकलौती ज़रूरत है। अपने अतीत की ज़रूरत को समझाने की कोशिश करने के क्रम में ही मैं अपने भविष्य रच रहा हूँ। यहाँ भी तो मैं ही हूँ। इन शब्दों में भी मेरी ही चेतना प्रवाहित होती जा रही है। मैं ना खुश हूँ, ना ही मैं दुखी हूँ। मैं तो बस आनंदित हूँ। मैंने ख़ुद के लिए यह बात समझ ली है कि ना कुछ अच्छा होता है। ना ही कुछ बुरा होता है। जो होता है, ज़रूरी होता है।
वैसे मैं ख़ुद को यह पहचान हर क्षण नहीं दे पाता हूँ। यह अवधारणा मैं हर जगह बरकरार नहीं रख पाता हूँ। पर जब कभी यह अवधारणा मेरी चेतना में अपना घर बनाने लगती है, लगता है — जैसे मैं मुक्त हो रहा हूँ। चिंता से चिंतन की तरफ़ बढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ। पर, ऐसा हो नहीं पाता है। समय और स्थान के साथ मेरी अवधारणाएँ बदलती रहती है। इसलिए, मेरी यह अवधारणा मेरी बुनियादी आत्म-अवधारणा नहीं है। यह तो महज़ अल्पकालिक आत्म-अवधारणा का उदाहरण मात्र है।
Transitory Self-concept (अल्पकालिक आत्म-अवधारणा):
Excerpt: In addition to a basic self-concept, a person has a Transitory Self-concept. James first suggest this when he referred to the "self he hopes he now is" and the "self he fears he now is”. This means that a person has a self-concept which he holds for a time and then relinquishes.
Transitory Self-concept may be favourable or unfavourable, largely depending on the situation in which the person finds himself momentarily. They are generally influenced by some passing mood or emotional state or by a recent experience. They are transitory and unstable because they lack the perspective found in the basic self-concept.
A person who is well and happy, who is accepted by others and who achieves what he has set out to do may have a Transitory Self-concept that is more favourable than his basic self-concept. Temporarily, he sees himself as the “self he hopes he now is”. Changes in circumstances, in mood, and in achievement are likely to lead to a less favourable self-concept and he will then see himself as "he fears he now is".
People differ in the frequency with which their behaviour is guided and influenced by Transitory Self-concept. Some experience frequent and intense fluctuations while other experience only slight and occasional shifts.
इस वर्तमान में ख़ुद के लिए हम जिन कल्पनाओं और अवधारणाओं को बुनते जा रहे हैं, मेरे अनुमान से वे ही हमारी अल्पकालिक आत्म-अवधारणाएँ हैं। अल्पकालिक आत्म-अवधारणा हमारी बुनियादी आत्म-अवधारणा का क्षणिक रूप है, जो पल-पल बदल रही है। काल और स्थान पर निर्भर क्षणभंगुर अनुभव और अनंत क्षणिक कल्पनाओं ने ही तो उम्र के साथ हमारी बुनियादी आत्म-अवधारणा को आकार दिया है।
मेरे अनुमान से, जब हमारी अल्पकालिक और बुनियादी आत्म-अवधारणाओं का केंद्र हर क्षण हमारी ज़रूरतों से ज़्यादा हमारे अस्तित्व और उसके अर्थ पर केंद्रित होने लगता है। तब, हमारी चेतना को काल और स्थान से मुक्ति मिल जाती है। हमारे अस्तित्व और उसकी अवधारणा के कई केंद्र हैं। नींद में भौतिक और शारीरिक चेतना नगण्य, और स्वप्नलोक की सत्यता प्रबल हो जाती है। मूर्छित-अवस्था में तो भौतिक और शारीरिक चेतना दोनों ही हमारे अनुभव के दायरे से बाहर हो जाती हैं। जब वापस होश आता है, तब एक नया जीवन मिलता है। हर बेहोशी हमें स्मृति-शून्य नहीं कर पाती है। बस कुछ पलों की स्मृति हमारे चित्त पर अंकित नहीं हो पाती है।
आज तक मुझे चार या पाँच मिर्गी के दौरे पड़ चुके हैं। इसलिए भी मैं इन तीनों अवस्थाओं का प्रमाण हूँ। अभी, यहाँ, इस वक़्त मेरा एक अस्तित्व है। एक जागृत शरीर है। कुछ यादें भी हैं। एक चित्त भी है, जिस पर ना जाने कितनी छवियाँ बनती-बिगड़ती रहती हैं। कई स्मृतियाँ भी हैं, जिनकी अज्ञानता चित्त को यदा-कदा छेड़ती ही रहती हैं। अपने भ्रम और संशय के साथ अपनी अज्ञानता को भी मैं अपनी चेतना में समेटे बैठा हूँ। साथ ही विवेक भी तो है, जो अज्ञानता से ज्ञान को छानने के लिए प्रयासरत है। एक चेतन मन भी है, जो ख़ुद को अभिव्यक्त करने के लिए — देखो तो! कितना तत्पर है।
अपने बारे में इस पल मेरी अवधारणा एक लेखक की है, क्योंकि यहाँ मैं सिर्फ़ कोरी कल्पना नहीं कर रहा हूँ। एक कोरे कागज पर अपनी कल्पनाओं और अवधारणाओं को दर्ज भी करता जा रहा हूँ। वैसे, कागज की जगह मेरे सामने कंप्यूटर का एक स्क्रीन है और स्याही के स्थान पर टाइप होते ये आभासी अक्षर हैं। दस साल पहले जो कंप्यूटर मेरे पास था, उसके ख़राब हो जाने की गुंजाइश बहुत थी। अगर लिखते हुए वह ख़राब हो गया होता, तो वापस मेरी लेखक वाली अवधारणा का कोई आधार नहीं होता। ना ही इस अवधारणा की पुष्टि हेतु मैं ख़ुद को कोई प्रमाण दे पाता। निराधार अवधारणा ही तो हमारी अज्ञानता है। वैसे, आज जिस कंप्यूटर पर मैं लिख रहा हूँ, वह दुनिया की सबसे अच्छी कंपनी का उत्पाद है। मेरे पास ऐपल का मैकबुक-प्रो है, जिस पर मैं यह सब लिख रहा हूँ। इसके ख़राब हो जाने कि संभावनाएँ अपेक्षाकृत बहुत कम है। फिर भी अगर यह किसी दुर्घटनावश ख़राब हो जाता है, फिर भी मेरे लिखे ये शब्द बच जाएँगे। क्योंकि, क्लाउड कंप्यूटिंग (Cloud Computing) की मदद से ये शब्द ना जाने किस सर्वर पर संचित हुए जा रहे हैं। सिर्फ़ इसी कंप्यूटर पर नहीं, मैं इन शब्दों को अपने आईफ़ोन या आईपैड पर भी उपलब्ध पाता हूँ। इन शब्दों की अस्तित्वगत सत्यता इन दस सालों में कहीं ज़्यादा प्रबल हुई है।
कल्पनाओं पर यथार्थ की कोई पाबंदी नहीं है। फिर भी उन्हें किसी आधार की तलाश रहती है। अनुभवों और अनुभूतियों के आधार पर ही तो हम खुली आखों से नये-नये सपने देखते हैं। यहाँ तो मैं सुनहरे दवात में किसी सुंदर-सी पक्षी के परों से टूटे हुए एक पंख को स्याही में डूबा-डूबकर, ख़ुद को यहाँ अभिव्यक्त कर रहा हूँ। कल्पनाओं के बदल जाने से ज़रूरी नहीं है कि अवधारणाएँ भी बदल जायें। कंप्यूटर पर टाइप करते हुए भी मुझे लेखक होने का वही अनुभव हो रहा है, जो किसी बेहतरीन लेखक को होता होगा। यह भी तो मेरी एक अल्पकालिक आत्म-अवधारणा है। कुछ देर में जब मैं अपनी बेटी के साथ खेलने लगूँगा, मेरी अल्पकालिक आत्म-अवधारणा एक पिता की हो जाएगी। अपने मम्मी-पापा के सामने मैं एक बेटा बन जाऊँगा। आप जो चाहें मुझे समझ सकते हैं। हम सब अपनी कल्पनाओं में ही तो स्वतंत्र और मौलिक हैं। अफ़सोस तो मुझे इस बात का है कि समाज हमसे हमारी कल्पना और हमारे सपनों को छीनकर अपनी कल्पनाओं का बोझ लाद देना ही अपनी ज़िम्मेदारी समझता है। इसी काल्पनिक अत्याचार के ख़िलाफ़ ही मैं अपना संघर्ष रचा रहा हूँ। यहाँ मैं ही तो क्रांतिकारी हूँ। मेरे किरदारों के हिसाब से मेरी अल्पकालिक आत्म-अवधारणा बदलती ही जाएगी।
संभव है कि हर क्षण हम अपनी आत्म-अवधारणाओं की संपूर्णता से अवगत ना रह पायें। सपूर्ण सत्य हर ज्ञान और अज्ञानता से वंचित है। मेरे अनुमान से शब्दों या अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यम से सत्य को परिभाषित कर पाना शायद ही संभव है।
संभवतः, महात्मा बुद्ध जैसे महापुरुषों ने अपनी आत्म-अवधारणा को स्थिर करने में सफलता पा ली थी। वे ख़ुद कहते हैं, वे जो कल थे, आज नहीं हैं। आज जो हैं, वे कल नहीं रहेंगे। वे जहां भी रहेंगे, काल और स्थान जन्य परिस्थितियों से मुक्त रहेंगे। तभी तो उनका अस्तित्व काल और स्थान पर निर्भर नहीं करता है। वैसे, किरदार हमारे ज्ञान के पात्र बने रहेंगे। उनका होना भी ज़रूरी है। अगर ऐसे सामाजिक धरोहर नहीं होंगे, तो मजबूरन हमें ख़ुद के लिए ऐसे आदर्श को साहित्य से उधार लेना पड़ेगा। ‘राम’ की महिमा तो वाल्मीकि की कल्पना थी। ना जाने हमने क्यों उधार ले रखी है?
शरीर के साथ अनुभव और नाम ही तो बदलते जाते हैं। अंदर से हमारा जीवन-स्रोत तो एक ही है। हम अपनी अवधारणाओं और कल्पनाओं में ही तो मौलिक हो सकते हैं। अनुभव की भी अपनी एक मौलिकता है। पर, अनुभव की एक सीमा है। उसकी मौलिकता की ज़रूरत हर चेतना की समझ में भी कहाँ आती है? अपनी-अपनी पसंद और नापसंद को समाज नैतिकता के नाम पर हमारे ऊपर थोपता आया है। ऐसा नहीं है कि हर सामाजिक अवधारणा ग़लत ही होती है। पर, जब सत्य का ही निर्धारण संभव नहीं है, तो नैतिकता का कोई निश्चित रूप या नियम कैसे संभव है? नैतिकता को निर्धारित कैसे किया जा सकता है?
मेरी समझ से प्रेम और नैतिकता, दोनों ही जीवन के पक्ष में हैं। उनका किसी धर्म या क़ानून से कोई लेना-देना नहीं है। प्रेम ने तो जीवन की लड़ाई में ना जाने कितने धार्मिक और नैतिक नियम-क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ा दी। फिर भी, प्रेम कोई ग़दर नहीं है। वह प्रेम ही क्या जिसमें जीवन की कल्पना ना हो? और उस नैतिकता का अर्थ ही क्या, अगर वह जीवन के विरुद्ध हो?
किसी की जान लेना अनैतिक है। फिर भी सरहद पर सैनिक और दुश्मन दोनों एक दूसरे की जान ले रहे हैं। एक ही काम के लिये समाज किसी को सम्मानित कर रहा है, तो किसी को दंडित! मेरे अनुमान से जीवन की कसौटी को ना ही सामाजिक या धार्मिक नैतिकता नाप सकती है, ना ही प्रेम में मुझे कोई उलझन जान पड़ती है।
आप लोगों जैसे ज़िंदादिल लोगों को ना प्रेम की फ़िक्र करनी चाहिए, ना ही नैतिकता की कोई चिंता! आप लोग तो ख़ुद में प्रेम और नैतिकता के प्रतीक हैं, अगर आप जीवन के पक्ष में हैं। यहाँ जीवन की अवधारणा व्यक्तिगत अस्तित्व और ज़रूरतों से बड़ा है।
मेरी समझ से कल्पना और अवधारणा में कोई ख़ास अंतर नहीं है। दोनों में सिर्फ़ आस्था और विश्वास का ही तो भेद है। जहां, अवधारणाओं पर अभिव्यक्ति का पहरा होता है। वहीं, कल्पनाओं पर ऐसी कोई बंदिश नहीं है। अवधारणाओं की अभिव्यक्ति सिर्फ़ विचारों या शब्दों तक सीमित नहीं है। हमारे व्यवहार में भी हमारी अवधारणाओं की अभिव्यक्ति निरंतर होती रहती है। कल्पना को किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं होती है। वहीं अप्राणिक अवधारणाएँ ही तो हमारी अज्ञानता है।
हर अवधारणा हमारी कल्पना है। पर, ज़रूरी नहीं है कि हर कल्पना हमारी अवधारणा बन ही जाये। कल्पनाओं को कोई भौतिक या तार्किक आधार नहीं चाहिए। रावण के दस सिर ही कहाँ से तार्किक या भौतिक है?
जिन अवधारणाओं को भौतिक प्रमाण मिलने लगते हैं, वे सामाजिक और सामूहिक अवधारणाओं का रूप लेने लगती है। प्रमाणों के बल पर ही तो ज्ञान-विज्ञान प्रगति करता आया है। कुछ अवधारणाएँ भी काल्पनिक हो सकती हैं। जैसे, हर ईश्वर की अवधारणा ने एक व्यक्तिगत कल्पना से लेकर सामाजिक मान्यता तक का सफ़र तय किया है। राम भी हैं, कृष्ण भी, अल्लाह भी हैं, ईसा का जन्म हुआ है। जिस भी रूप में हमें ईश्वर दिख जाये, वही हमारे ईश्वर की अवधारणा है। मैंने तो बड़े-बड़े भक्तों की आस्था, मान्यताओं और कर्मकांडों को उनकी सहूलियत के अनुसार डिगते देखा है। सामाजिक नैतिकता में भी एकरूपता कहाँ नज़र आती है? कोई पंथ धर्मालयों में प्रसाद के रूप में शराब बाँट रहा है। तो कोई किसी बेज़ुबान जानवर की बलि चढ़ा रहा है। हर ईश्वर के भौतिक प्रमाण हमारे ग्रंथों में ज़रूर मौजूद हैं। पर ग्रंथों को प्रमाण मान लेना कितना उचित है? आख़िर, ग्रंथों में भी तो कोई कल्पना ही है। मेरी जानकारी में तो हर ईश्वर ‘सत्य’ का प्रतीक है। पर, क्या इन कल्पनाओं के साहित्यिक प्रमाण मात्र ही लड़-मरने के लिए प्रयाप्त हैं?
सत्य अखंडित है। पर सच्चाई के कई स्तर हो सकते हैं, जिसकी ‘सत्य’ से अपनी ही एक दूरी होती है। हर कल्पना में कुछ-ना-कुछ सच्चाई तो होती ही है — चाहे उस काल्पनिक अस्तित्व के होने का कोई प्रमाण हो या ना हो। कुछ अवधारणाएँ भी ऐसी होती हैं — जिनके प्रमाण भी मिलते हैं, फिर भी उनकी सच्चाई में कहीं कमी रह जाती है। उदाहरण के लिए परिवार की अवधारणा को ले सकते हैं। ‘परिवार’, एक सामाजिक अवधारणा है। हमारा परिवार हमारा सच है। हर परिवार के कई सदस्य होते हैं। भौतिक और शारीरिक स्तर पर कुछ पास, तो कुछ दूर होते हैं। पर क्या यह संभव नहीं है कि मीलों दूर बैठी कोई चेतना हमारे शरीर से दूर होकर भी हमारे मन के पास हो?
मैं तो साथ रहते लोगों से ही बड़ी दूरियों की कल्पना लिए बैठा हूँ। कुछ लोग जो साथ रहते हैं, उन्हें भी इन दूरियों का बोध करवाने में मैं ख़ुद को सफल पाता हूँ। मेरी कल्पनायें और अवधारणाएँ हर क्षण बदल रही हैं। जब तक चित्त पर पड़ती उनकी छवियाँ स्थिर नहीं हो जायेंगी, मेरी चेतना भटकती ही रहेगी। चेतना भटकती है, आत्मा तो नित्य मुक्त है।
आनंद और मुक्ति की भावना जब हर गुजरते क्षणों में स्थायी हो जाएगी, संभवतः तब मेरी चेतना अपने शारीरिक अस्तित्व से मुक्त हो पाएगी। बंधन तो चेतना पर है, क्योंकि मन हर पल चंचल है। भूत और भविष्य की चिंता में मन उलझा ही रहता है। अतीत का डर और भविष्य से उम्मीद की कल्पनाओं को मन निरंतर आकर देने के लिए प्रयत्नशील है। मेरी समझ से इसी बात को एलिज़ाबेथ ने जेम्स की मदद से हमें समझाने का प्रयास किया है। जब वे लिखती हैं कि हर इंसान के पास कुछ ऐसी आत्म-अवधारणाएँ होती हैं, जिन्हें वह कुछ समय के लिये साथ रखता है, फिर जाने देता है। इन आत्म-अवधारणाओं का दायरा हमारे डर और हमारी उम्मीदों के बीच कहीं झूलता रहता है।
मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी व्यवहार ही केंद्र में रहता है। एलिज़ाबेथ के अनुसार हम सब के व्यवहार पर अल्पकालिक आत्मा-अवधारणा का असर और उसका अनुपात भिन्न होता है। कुछ लोगों के व्यवहार में अल्पकालिक आत्मा-अवधारणा का असर बार-बार और तीव्र उतार-चढ़ाव के साथ देखा जा सकता है। जबकि, कुछ लोगों के व्यवहार में मामूली बदलाव कभी-कभार ही देखने को मिलता है।
लेखिका आगे लिखती हैं कि हमारी हर आत्म-अवधारणा हमारे अनुकूल ही हो, ऐसा ज़रूर नहीं है। ख़ासकर, हमारी अल्पकालिक आत्मा-अवधारणाएँ हमारी तत्कालीन परिस्थिति पर निर्भर करती हैं।परिस्थितियाँ सिर्फ़ शारीरिक नहीं है, क्योंकि चेतना का एक स्वतंत्र अस्तित्व है। कल्पनाएँ हमें अन्य जीव-जंतुओं की परिस्थितियों से अलग कर देती हैं। नाली में लेटा एक शराबी भी, महलों में अपनी रातें गुज़ार रहा होता है। वह तो आँख खुलने के बाद ही उसकी सच्चाई बदलती है। वरना, उस रात नाली में लेटे उसकी सच्चाई कुछ और ही थी। भ्रम ही सही! महलों का सुख ही तो उसका तत्कालीन अनुभव था। भ्रमों में भी सत्य का कुछ अंश तो होता ही है। यह दर्शन ब्रैडली के “Appearance and Reality” या “आभास और सच” के सिद्धांत में देखने को मिलता है। सत्यता का मापने के लिये ब्रैडली ने काल्पनिक माप का भी तैयार किया है। जिसमें हमारे अस्तित्व के सच को फ़रिश्तों, ईश्वर और ब्रह्म से कमतर आंका गया है। पर, चूहों से हमारे अस्तित्व की सत्यता अधिक है। एक शराबी के लिए मदहोशी के उन क्षणों में भी कुछ सत्यता तो उसके साथ रहती ही है। इस आधार पर अपनी हर सच्चाई को काल्पनिक मान लेना कहाँ से ग़लत है? जगत को मित्या मान लेने में हर्ज ही क्या है?
यह सवाल मैं नहीं पूछ रहा हूँ। लोक यह सवाल ख़ुद से पूछता ही चला आ रहा है। ज्ञान की हर विधा के पास इस प्रश्न के अपने-अपने जवाब भी हैं। सच्चाई की इसी दृढ़ता को साहित्य कल्पनाओं के माध्यम से बुनता और ललकारता है। इस जगत की सत्यता पर तो हर किसी को कभी-न-कभी संशय हो ही जाता है। तभी तो हम मृत्यु को अपना अंतिम और परम सच मान लेता हैं। मृत्यु में मुक्ति तलाशता लोक ही तो अपनी जान लेने पर उतारू है। वरना, हर दिन ४०-५० छात्र अपनी ही जान क्यों ले रहे होते?
कला, साहित्य या विज्ञान की हर विधा में एक व्यावहारिक दर्शन निहित है। पर, दर्शन सिर्फ़ व्यवहार तक ही सीमित नहीं है। कल्पनाएँ भी उसका अहम हिस्सा है। ब्रह्म भी तो एक कल्पना मात्र है। अगर कल्पना नहीं होती, तो रामानुज और शंकर के ब्रह्म अलग-अलग क्यों होते? साहित्य ने दर्शन से ही कल्पनाओं को उधार लिया है। मूलतः, हर दर्शन शून्य या ‘नेति-नेति’ की अवधारणा को सत्य मानता है। पाश्चात्य और भारतीय दर्शन दोनों ही सत्य की नकारात्मक परिभाषा पर ही रुक जाते हैं। व्यक्ति और समाज का परस्पर संबंध है। दोनों ही अपनी पहचान के लिये दर्शन पर निर्भर करते आये हैं। व्यक्तिगत और सामाजिक ज़रूरतों के आधार पर हम ख़ुद को रचते यहाँ तक पहुँचे हैं।
हर समूह की पास अपनी-अपनी कल्पनाएँ और अवधारणाएँ हैं। हर व्यक्ति के पास भी समाज की एक अवधारणा है, साथ ही उसके पास एक सामाजिक आत्म-अवधारणा भी है।
Social Self Concept (सामाजिक आत्म-अवधारणा):
Excerpt: Social Self Concept is based on the way the individual believes others perceive him, depending on their speech and actions. It is usually referred to as a "mirror image".
If a child is constantly told that he is "naughty", he soon develops a concept of himself as a naughty child. If a social group regards members of a gang as "tough", they come to think of themselves as tough and act accordingly. The child whose parents are always telling him how bright he is, develops a self-concept that contains some elements of false pride. Social self-concept may in time develop into basic self-concepts, the person believes that he is as others see him.
Since Social Self Concepts derive from social interactions, whether the concepts will be favourable or not, depends on how the social groups treats the individual. A person who as a child or adolescent was discriminated against because of his race, colour, religion or social class, will usually have a far less favourable concept of himself than the person who was not subjected to such discriminations.
In early childhood, before the child is capable of assessing himself in terms of his abilities and disabilities, his needs and wants, his aspirations and values, he thinks of himself as he believes other think of him. His Social Self Concept is thus dominant. It is developed developed earlier than the basic self-concept and is the foundation of the basic self-concept. Only after the child is mature enough to understand and interpret the speech and actions of others is he able to judge the accuracy of his social self-concept and develop a basic self-concept.
People build up different social self-concepts, depending on the kinds of social groups — home, peer or community — with which they are most often associated. A young child's Social Self Concept is influenced most by his relationship with his mother because he spends most of his time with her.
The effect of the Social Self Concept on the behavior of the individual will depend largely on how important the opinions of others are to him at that time and on what person or persons are most influential in his life at that time. Jerald has explained the matter in this way:
“If a child is accepted, approved, respected and liked for what he is, he will be helped to acquire an altitude of self-acceptance and respect for himself. But if the significant people in his life -at first his parents and later his teachers, peers and other persons who wield an influence-belittle him, blame him and reject him, the growing child's attitudes towards himself are likely to become unfavourable. As he is judged by others, he will tend to judge himself.”
Since the young child is most responsive to his mother, his social self-concept in largely based on her opinion of him or what he believes to be her opinion. His social self-concept may be transitory or permanent, depending on the consistency of the mother's treatment of him. In adolescence, the social self-concept in derived from the peer group as a whole — the "generalised others". In adulthood the effect of the self-concepts on behaviour is influenced by the strength of the person's desire to win the attention, approval and acceptance of others. A man who is anxious to be a civic leader will be greatly influenced by the opinions of members of the community at large.
एलिज़ाबेथ ने “सामाजिक आत्म-अवधारणा” की बड़ी विस्तृत व्याख्या अपनी किताब ‘Personality Development’ में किया है। मेरी समझ से भी यह अवधारणा बाक़ी अवधारणाओं से अपेक्षाकृत ज़्यादा ज़रूरी और महत्वपूर्ण है। इसकी अहमियत के कई कारण हो सकते हैं। कुछ का अनुमान लगाने का मैं यहाँ प्रयास कर रहा हूँ। मेरा पहला अनुमान तो यह है कि यह इकलौती ऐसी आत्म-अवधारणा है, जिसका केंद्र हम ख़ुद नहीं हैं। हमारी बुनियादी, अल्पकालिक या आदर्श आत्म-अवधारणा में हम ख़ुद को केंद्र में रखकर चिंतन-मनन करते हैं। पर, सामाजिक आत्म-अवधारणा का केंद्र कहीं और है। यहाँ हम अपना आँकलन समाज के आईने में उभर रही अपनी तस्वीरों के माध्यम से करते हैं। दूसरी, अहम बात मुझे यह जान पड़ती है कि इस अवधारणा में सापेक्षता निहित है। हम सिर्फ़ समाज के आईने में ख़ुद को देख ही नहीं रहे होते हैं। हम समाज के उस दर्पण का निर्माण भी कर रहे हैं, जिसमें झांककर हम अपना गिरेबान नापते हैं।
लेखिका के अनुसार — जब, एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की बोली या व्यवहार के माध्यम से ख़ुद के लिए एक छवि बनाता है, और उस छवि से उभरते चरित्र को ही अपनी हक़ीक़त मान लेता है। तब, वह अवधारणा उसकी सामाजिक आत्म-अवधारणा बन जाती है। इसे वह ‘mirror image’ या ‘प्रतिबिंबित छवि’ का नाम देती हैं।
आगे एक उदाहरण के ज़रिए लेखिका अपनी बातों को स्पष्ट करने का प्रयास भी करती हैं। वे कहती हैं कि अगर किसी बच्चे को लगातार यह बताया जाये कि वह नटखट है। तो, धीरे-धीरे उसकी बदमाशियां बढ़ती ही जाती है। क्योंकि, नटखट होने वाली अवधारणा उसकी बुनियादी आत्म-अवधारणा का हिस्सा बनने लगती है। ठीक उसी तरह अगर किसी भी व्यक्ति को हर हमेशा ग़लत साबित किया जाता रहेगा, तो उसकी आत्मा-अवधारणा भी उसी अनुरूप बनती जाएगी। गलती बता देना ही काफ़ी नहीं है। समाज और शिक्षा की ज़िम्मेदारी तो हमारी ग़लतियों को सुधारने की है। एक बेहतर जीवन की कल्पना करने में हमारी सहायता करनी है। ना जाने, आज स्कूलों में ऐसा कौन सा पाठ पढ़ाया जा रहा है कि बच्चों का आत्म-सम्मान ही कटघरे में खड़ा अपने गर्दिश के सितारों को गिन रहा है?
ख़ैर, लेखिका आगे लिखती हैं कि अगर कोई संप्रदाय या पंथ अपने सदस्यों को कठोर और सख़्त मानता है। तो स्वाभाविक रूप से सदस्यों की आत्म-अवधारणाओं पर असर पड़ता है, जिसका असर उनके व्यवहार में देख जा सकता है। आज मेरे सामने अनगिनत ऐसे उदाहरण हैं। देश में चल रही राजनीति की साज़िश ही हमारी सामाजिक आत्म-अवधारणा के साथ खिलवाड़ करना बच गया है। वरना, कोई भी भगवान या किसी भी धर्म को किसी भी पंथ या संप्रदाय से कबसे ख़तरा होने लगा?
वहीं, लेखिका चेतावनी भी देती हैं कि अगर किसी बच्चे के माता-पिता दिन रात अपने बच्चों का गुण-गान गाते रहते हैं, उनके बच्चों के व्यक्तित्व में झूठी शान और अहंकार का बोलबाला रहता है। आजकल आस-पड़ोस में एक नया ही चलन मुझे देखने को मिल रहा है। छोटे-छोटे बच्चों को बूढ़े-बुजुर्ग सज्जन ‘आप-आप’ कहकर संबोधित करते हैं। हिन्दी में सर्वनामों की संख्या कुछ ज़्यादा ही है। जहां अंग्रेज़ी में एक ‘You’ ही काफ़ी है, वहीं हिन्दी में संबोधन तू-तड़क, तुम-ताम से लेकर ‘आप’ तक पहुँच जाता है। अपनी माँ को भी मैंने अन्य बच्चों और अपनी पोती से ‘आप-आप’ कहकर बात करते सुना है। आपने सानिध्य में जिन चेतनाओं के विकास का मैं प्रत्यक्ष हूँ, उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि उनकी आत्म-अवधारणाओं को ग़ुब्बारे की तरह फुलाया जा रहा है। फिर, एक दिन उस अवधारणा को कटाक्ष का पिन चुभोकर फोड़ दिया जाता है। हमारा व्यक्तित्व तो हमारी आत्म-अवधारणाओं में ही ज़िंदा है। वरना, हमारा अस्तित्व और जीवन किसी अन्य जीव-जंतु से कैसे अलग है?
लेखिका साफ़-साफ़ कहती हैं कि उम्र के साथ हमारी सामाजिक आत्म-अवधारणाएँ ही हमारी बुनियादी आत्म-अवधारणा बन जाती हैं। मेरे अनुमान से सामाजिक आत्म-अवधारणा के दो अहम पहलू हैं। एक पहलू की व्याख्या तो लेखिका ने कर दी है कि दूसरों के नज़रिए से हम अपनी आत्म-अवधारणा का निर्धारण करते हैं। एक दूसरा पहलू भी उनकी व्याख्या में उभर कर सामने आता है, जिसका ज़िक्र उन्होंने मुखर रूप से नहीं किया है। दूसरों के नज़रिए को अपने आँकलन का केंद्र बनाने से पहले हम उनके बारे में भी अपनी एक अवधारणा बनाते हैं। जिसके आधार पर हम उनके नज़रिए को तरजीह देते हैं। जैसे, लेखिका ने यह बताने का प्रयास किया है कि किसी बच्चे के लिये उसकी माँ की उसके बारे में जो अवधारणा है, वह उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। क्योंकि, एक बच्चा सबसे ज़्यादा अपनी माँ के सानिध्य में अपना वक़्त गुजरता है। माँ की अवधारणाएँ जिनका अनुमान बच्चा उनके व्यवहार और माँ के द्वारा कहे गये शब्दों के आधार पर लगा पता है। माँ के मन को चीरकर कोई भी देखेगा तो प्रेम, वात्सल्य और ममता के अलावा और क्या मिलेगा?
एक माँ तो हर किसी अंदर बसती है। जहां-जहां प्रेम है, जीवन लहलहा रहा है, एक माँ ही तो उस जीवन की सूत्रधार है।
एलिज़ाबेथ के अनुसार किसी भी व्यक्ति की सामाजिक आत्म-अवधारणा उसके लिए हितकारी होगी या नहीं, यह बात उस व्यक्ति के सामाजिक अनुभव पर ही निर्भर करती है। अगर किसी व्यक्ति के साथ जाति, रंग, धर्म या सामाजिक वर्ग की आधार पर भेद-भाव होता आया है, तो उसकी सामाजिक आत्म-अवधारणा उन लोगों के अपेक्षाकृत कम उपकारक होगी, जिन्हें यह सब नहीं झेलना पड़ा है।
लेखिका इस अवधारणा के महत्व को समझाते हुए लिखती हैं कि एक बच्चा अपनी योग्यताओं और अक्षमताओं, अपनी ज़रूरतओं और चाहतों, अपनी आकांक्षाओं और मूल्यों का निर्धारण कर पाने में असमर्थ होता है। इसलिए, वह इन ज़रूरतों और कल्पनाओं को अपने परिवार और समाज से उधार लेता है। हमारी बुनियादी आत्म-अवधारणा की बुनियाद भी हमारी सामाजिक आत्म-अवधारणाओं पर ही आश्रित है, क्योंकि हमारी सामाजिक आत्म-अवधारणा का विकास हमारी बुनियादी आत्म-अवधारणा से पहले होता है। जब उस बच्चे का व्यक्तित्व परिपक्वता की और अग्रसर होता है, तब जाकर कहीं वह अपने सामाजिक आत्म-अवधारणा और बुनियादी आत्म-अवधारणा में अंतर करना सिख पाता है।
सामाजिक आत्म-अवधारणा की अनेकता, व्यक्ति के संबंधों की विवधता पर निर्भर करती है। हर संबंध की सापेक्षता पर आधारित हम अपने लिये कई सामाजिक आत्म-अवधारणाएँ बनाते हैं। घर पर जिस पिताजी को हम जानते हैं, अपने दोस्तों की महफ़िल में हमारे पिताजी कहीं खो से जाते हैं। हमारी भूमिका भी हमारे किरदारों के अनुसार बदलती रहती है। परिवार, समूह, समुदाय या पंथ के सदस्यों के अनुसार हमारी अवधारणाएँ परस्पर रूप से बदलती रहती हैं। मनमुटाव की दशा में इन अवधारणाओं पर गहरा असर पड़ता है, जो हमारे व्यवहार में भी नज़र आता है। हमारी सामाजिक आत्म-अवधारणाओं का केंद्र काल और स्थान के अनुसार बदलता रहता है। बचपन में जो माँ हमारे अस्तित्व का आधार होती हैं, जवान होते-होते उसकी जगह ना जाने कौन ले लेता है? कभी नौकरी ज़रूरी हो जाती है, तो कभी कोई नया रिश्ता उस माँ की अहमियत को ललकार बैठता है।
किसी व्यक्तित्व की परिपक्वता उसके बुनियादी और सामाजिक आत्म-अवधारणा को अलग करने की क्षमता पर निर्भर करता है। जिस व्यक्ति को हर परिस्थिति में आनंद का अनुभव हो, उसे ही तो ज्ञानी माना जा सकता है। जिस चेतना में उत्तेजना प्रबल है, उसमें आनंद कैसा? लोभ-लालच, मोह-माया में फँसा व्यक्ति संत कैसे हो सकता है?
लाउडपीकर पर चीख-चीखकर गुणगान करने वाले चारण कहलाते हैं, ना जाने उन्हें महात्मा किसने बना दिया?
लेखिका साफ़ शब्दों में लिखती हैं कि एक व्यक्ति जिसमें लोक-नेता बनने की लालसा हो, उसके लिए जन-साधारण की अवधारणा को समझना ज़रूरी होता है। वैसे व्यक्ति सामाजिक आत्म-अवधारणों की अत्यधिक चिंता करते हैं। उनका सामाजिक जीवन ही उनके लिए सब कुछ होता है। अक्सर ऐसे महानुभावों का पारिवारिक जीवन बड़ा अस्त-व्यस्त रहता है। कुछ ही होते हैं, जो दोनों ही जीवन का निर्वाह पूरी निष्ठा से कर पाते हैं। अक्सर, जब पीढ़ी अपने आगंतुक के नक़्शे-कदम पर अंधी चलती जाती है, तब असफलता की एक कहानी हमारे समक्ष इतिहास के माध्यम से प्रस्तुत हो जाती है। इधर महात्मा का ख़िताब तो गांधी मिल गया, पर नाम नेहरू का मिट गया। महात्मा गांधी के वंशजों की सामाजिक और राजनैतिक पहचान कम ही लोग जानते होंगे। फिर भी गांधी परिवार को कौन नहीं जानता है?
Ideal Self-concept (आदर्श आत्म-अवधारणा)
Excerpt: The Ideal Self-concept is made up of perceptions of what a person aspires to be and what he believes he ought to be. It may be related to the physical self-image, the psychological self-image, or both. It may be realistic in the sense that it is within the reach of the person, or it may be so unrealistic that it can never be achieved in real life.
In childhood, the discrepancy between the ideal self-concept and the basic, the transitory and the social self-concepts is usually large. Towards adolescence, the discrepancy normally diminishes as the other self-concepts become stronger and play a larger role in determining the person's image of himself. In adulthood, and certainly by middle age, the ideal self-concept usually has less impact on the person's concept of himself.
Almost everyone has an ideal self-concept in addition to his basic and transitory self-concepts. Whether the ideal self-concept is realistic or unrealistic is determined chiefly by whether the basic or transitory self- concept dominates. If the basic self-concept dominates, the Ideal Self-concept is likely to be realistic because the basic self-concept is founded on a more realistic appraisal of ones capacities and abilities. Whether an unrealistic ideal self-concept will be unrealistically high or low will depend on whether — transitory self-concepts are favourable or unfavourable.
भारत की औसत आयु संभाविता (Life Expectancy) 70.15 साल है। इस हिसाब से अब मैं अपनी अधेड़ आयु में प्रवेश कर चुका हूँ। मैंने अपना लगभग आधा जीवन जी लिया है। एलिज़ाबेथ के अनुसार इस आयु वर्ग के इंसानों की आत्म-अवधारणा पर आदर्श अवधारणाओं का असर कम हो जाना चाहिए। ज़ाहिर है, इस आयु तक व्यक्ति सामाजिक और व्यक्तिगत स्तर पर अपनी एक पहचान बना चुका होता है। इसके बाद अपनी छवि को ख़ुद के लिए बदल पाना आसान नहीं होता है। ख़ासकर, अपनी सामाजिक अवधारणाओं में परिवर्तन करना मुश्किल हो जाता है। इस उम्र तक पहुँचते-पहुँचते हमने भी अपने अनुभवों के आधार पर समाज की एक छवि निर्धारित कर ली होती है। हमारे परिवार और समाज ने भी हमारे बारे में एक अवधारणा निश्चित कर रखी है। मेरी समझ से इन दोनों अवधारणाओं में मूलभूत परिवर्तन को ही लोक कभी क़िस्मत, तो कभी चमत्कार का नाम देता आया है।
आदर्श आत्म-अवधारणा हमारी महत्वाकांक्षाओं का दर्पण है। यहीं हमारी कल्पनाएँ विविध रूप लेती हैं। खुली आखों से हम ख़ुद के लिए जो सपने अपनी पलकों पर सजाते हैं, वे ही तो हमारा आदर्श है। वर्तमान में विद्यमान होकर भी हमारा आदर्श कभी वर्तमान काल और स्थान के बारे में नहीं होता है। जब भी, जहां भी हम अपने वर्तमान को आदर्श मान लेते हैं, वहीं यह अवधारणा अपना अर्थ खो बैठती है। अपने वर्तमान को आदर्श मान लेना ही तो संतोष है। मेरी समझ से संतोष ही तो आनंद की सीढ़ी का दूसरा पायदान है। जिसका पहला पायदान स्वीकृति है। ख़ुद के अस्तित्व को कम ही लोग स्वीकार कर पाते हैं। अपने अस्तित्व को स्वीकार करने का मतलब है, अपने काल और स्थान को यथा-स्थिति पहले स्वीकार कर लेना। बिना नैतिकता के तराज़ू पर तौले ख़ुद से ख़ुद को सहमति दे देना ही बड़ी बात है। जब तक हम अपने अतीत या वर्तमान को अपनी कल्पनाओं का केंद्र बनाये रखेंगे, हम आदर्श की कल्पना भी कैसे कर पायेंगे?
अतीत से उम्मीद रखने में कौन सी समझदारी है?
हमारा आदर्श अगर अतीत में था, तो अपनी कल्पनाओं में उस अतीत में जी तो सकते हैं। पर इससे हमारे वर्तमान या भविष्य में किसी भी हितकारी परिवर्तन की गुंजाइश भी समाप्त हो जाएगी। अतीत से हम सवाल तो पूछ सकते हैं, पर भूत से आशा और अपेक्षा तो कोई पागल ही पाल सकता है। सामाजिक अतीत के सवालों का उत्तर ही तो इतिहास में मिलता है। अतीत से हम सीख तो सकते हैं। पर, भूत को भी भला कभी कोई कुछ समझा पाया है। अगर यह संभव हुआ होता, तो मानवीय स्मृति में ना हिल्टर होते, ना ही कोई और आतंकवादी!
जहां वर्तमान को यथावत रूप में आदर्श मान लेना ख़ुद में एक आदर्श स्थिति है। वहीं वर्तमान के आदर्श होने का भ्रम पाल लेना मूर्खता नहीं, तो और क्या है? ज्ञान और अज्ञानता के अंतर पर आगे विस्तार से चर्चा करने का प्रयास करूँगा। लेकिन, यह तो सबको पता ही होगा कि भ्रम में कोई ज्ञान मौजूद नहीं हो सकता है। मान लेना भी एक कल्पना है, भ्रम भी तो काल्पनिक ही है। पर पहली दशा में हम अपनी सच्चाई को स्वीकार कर उसे आदर्श मान रहे होते हैं। वहीं, भ्रम की अवस्था में हम अपनी मौजूदा परिस्थितियों को नकार कर, अपने लिए एक काल्पनिक अस्तित्व को रचकर उसे ही अपना सच मान बैठते हैं। जैसे, अभी बैठे-बैठे अपनी बंद आखों से मैं पहाड़, पर्वत या घाटियों में सैर करने का मज़ा तो ले सकता हूँ। पर इंद्रियों के पास इसका कोई प्रमाण मौजूद नहीं होता है। कुछ चेतना की कल्पनाएँ इतनी प्रबल हो जाती हैं कि अपनी काल्पनिक दुनिया को ही वे अपना सच मान बैठते हैं।
एक बड़ी चर्चित मूवी है — ‘A Beautiful Mind’, जिसमें Schizophrenia से जूझ रहे एक मरीज़ की सच्ची कहानी सुनायी गई है। जो, John Nash नाम के गणितज्ञ की जीवनी पर आधारित है, जिन्हें नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है। इस चलचित्र में बड़ी ख़ूबसूरती से उनकी मनोदशा को समझाने का प्रयास किया गया है। जब हम अपनी कल्पनाओं के केंद्र को अपने भूत या वर्तमान पर बना लेते हैं, तब हम कोई आदर्श अवधारणा को रचने की जगह अपने लिये बस ख़याली पुलाव पका रहे होते हैं। जिसका गंध और स्वाद भी हम ले सकते हैं, पर इसे खा पाना संभव नहीं है।
लेखिका साफ़ शब्दों में इस बात का ज़िक्र करती है कि हमारे आदर्श वास्तविक दुनिया से सरोकार रख भी सकते हैं, नहीं भी। उनके अनुसार अगर हमारी आदर्श आत्म-अवधारणा का आधार हमारी बुनियादी आत्म-अवधारणा है, तो हमारे आदर्शों में वास्तविकता की मात्रा के अधिक होने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। क्योंकि, हमारी बुनियादी आत्म-अवधारणा का निर्माण हमारे अनुभव के अनुसार होता है। यदि, हमारी अल्पकालिक अवधारणाओं का प्रभाव हमारे आदर्शों पर अत्यधिक हो जाता है, तो हमारी आदर्श आत्म-अवधारणा में वस्तुनिष्ठता की कमी नज़र आने लगती है।
उम्र के कई पड़ावों पर ठहर कर लेखिका आत्म-अवधारणाओं की महत्ता का आँकलन करने की चेष्टा करती हैं। उनके अनुसार बचपन में हमारी बुनियादी और आदर्श आत्म-अवधारणा का फ़ासला बहुत लंबा होता है। साथ ही सामाजिक और अल्पकालिक अवधारणाओं के बीच भी मिलों की दूरी होती है। किशोरावस्था के निकट इनकी दूरियाँ घटने लगती है। युवा अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते हमारी सामाजिक और बुनियादी आत्म-अवधारणा एक निश्चित आकर लेने लगती है। परिपक्वता के प्रमाण हमारे व्यवहार में स्पष्ट नज़र आते हैं। हमारा व्यवहार हमारी इन्हीं आत्म-अवधारणाओं पर निर्भर करता है। जिस व्यक्ति की बुनियादी आत्म-अवधारणा संगठित और व्यवस्थित है, उसका व्यवहार में आत्मविश्वास की कमी शायद ही देखने को मिले। जब हमारी अल्पकालिक आत्म-अवधारणाएँ शांत हो जाती हैं, हमारे व्यवहार में प्रौढ़ता देखने को मिलती है। अगर हम अपनी अल्पकालिक अवधारणाओं को नियंत्रित करने में असफल हो जाते हैं, तो स्वाभाविक रूप से हम विचलित और उग्र व्यवहार को अपनाते हैं। लेखिका यह उम्मीद करती हैं कि अधेड़ आयु के आते-आते आदर्श और बुनियादी अवधारणाओं का अंतर लगभग समाप्त हो जाता है।
आदर्श की कल्पना सिर्फ़ काल पर ही निर्भर नहीं करती है। स्थान का भी आदर्श होना ज़रूरी है। शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तरों पर हम अपने लिये एक आदर्श की कल्पना करते ही रहते हैं। मैंने भी अपने लिये अपनी आत्म-अवधारणाओं का निर्धारण किया है। अगले अध्याय में मैं अपनी वर्तमान आत्म-अवधारणा का विवरण लिख देना चाहता हूँ। क्योंकि, इन्हीं अवधारणाओं के आधार पर मैं अपनी, अपने इहलोक और उसके आदर्श तंत्र की ज़रूरत को समझा पाऊँगा। इसलिए, अगला अध्याय आपके लिए जितना ज़रूरी नहीं है, उससे कहीं ज़्यादा मेरे लिये ज़रूरी है। अपने आदर्श और अपने विचारों पर अपना अधिकार मुझे ख़ुद के लिए स्थापित करना है। एक आदर्श अवधारणा मेरी निजी है। साथ ही एक दार्शनिक होने के नाते एक आदर्श लोक और तंत्र की कल्पना करना, मैं अपनी ज़िम्मेदारी समझता हूँ। यही आदर्श रूप ही तो हमारे अपने निजी भगवान का नाम-रूप है। अपने-अपने भगवान में हम वही सब देखने का प्रयास करते हैं, जैसा हम ख़ुद बनना चाहते हैं। शैतानों की पूजा भी कोई नयी बात है, क्या?