स्कूल जाते उदास बच्चे, उन्हें सूट-बूट में जाते हुए देखते कुछ और उदास बच्चे। मैंने दोनों ही बच्चों को एक-दूसरे से जलते, ख़ुद में देखा है। मैंने देखा है, दोनों ही भाँति के बच्चे ख़ुद को अभिव्यक्त कर पाने में असमर्थ हैं। समाज उन्हें बस उतना ही अभिव्यक्त करने की अनुमति देता है, जितना लोकतंत्र को पसंद है। यह सामाजिक आचरण कहाँ से अपने साथ स्वतंत्रता की सुगंध लिए आता है? नतीजा यह है कि हर अभिव्यक्ति भी आरोपित ही है। दफ़्तरों और दुकानों में मैंने अक्सर ही ऐसी शक्लें देखी हैं, जिन पर मुस्कुराहट तो छपी हुई है। पर, मन में बस मलाल और गालियाँ ही बसी हुई हैं। ये ग़ुलाम लोग! कभी ख़ुद को अभिव्यक्त कर ही नहीं पाते हैं। इन बेचारों में इतनी कल्पना ही कहाँ है कि ये जान पायें इन्हें अभिव्यक्त करना क्या है?
क्या हम दोनों को शिक्षा की ज़रूरत भी ठीक से नहीं समझायी जा सकती है?
क्या ज्ञान और उसकी ज़रूरत की सूचना हम तक नहीं पहुँचायी जा सकती है?
क्या भाषा-ज्ञान के बाद विषयों की ज़रूरत का ज्ञान हमें नहीं दिया जा सकता है?
क्या हमें कल्पना करने लायक़ लोकतंत्र नहीं बना सकता है?
जब तक हम अपनी कल्पनाओं और अवधारणाओं से परिचित नहीं हो पायेंगे, हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ भी कैसे समझ पायेंगे?
सच को सत्य से अलग करना हमें कौन सिखाएगा?
समय और स्थान के अनुसार सत्य का अनुमान बदलता रहता है। क्या इस सच को हम स्वीकार नहीं कर सकते हैं?
विज्ञान भी इस सच को मानता है कि सत्य को आख़िरकार हमें मानना ही पड़ता है। उदाहरण के लिए, जब तक ‘प्रोटॉन’, ‘इलेक्ट्रॉन’ और ‘न्यूट्रॉन’ की खोज नहीं हुई थी, एटम को ही भौतिकी में आख़िरी सच माना जाता रहा। फिर क्वॉर्क से लेकर विज्ञान गॉड-पार्टिकल तक पहुँच गया। आज जिसे वह सत्य मानता है, कल उसका खंडन कर एक नया सच विज्ञान हमारे लिए रचता जाता है। क्या यह एक वैज्ञानिक की कल्पना नहीं है? विज्ञान क्या साहित्य के बिना पूरा हो सकता है? फिर, क्यों लोकतंत्र ने भेद-भाव का ना जाने कितना भ्रम मेरे इहलोक में फैला रखा है?
यहाँ देश में कोई चौकीदारी कर रहा है, तो कोई प्रतियोगिता की तैयारी। और तो और, चौक़ीदार ही परीक्षा पर चर्चा भी करता है, अपने ही मन की बात भी वही किए जा रहा है। अपने मालिकों की भी वह कहाँ सुनता है?
जिस देश का दर्शन कभी पाश्चात्य दर्शन से हज़ारों साल आगे था। आज वह लोकतंत्र इतना पिछड़ा क्यों है?
हमारी ज़रूरतों और जिज्ञासा के अनुसार हमारा सत्य बदलता रहता है।
एक समय था, जब यह देश सोने की चिड़िया कहलाता था। हमारा सत्य सनातन था, सटीक था। ब्रह्म सत्य थे, और जगत मिथ्या। संभवतः, , इसीलिए मिथकों पर ही हमने अपनी आस्था को निछावर कर दिया। अपनी ज़रूरतों पर हमने ही अपने इतिहास में ध्यान नहीं दिया। हमने इतिहास की भी ज़रूरत को नज़रंदाज़ कर दिया। हमें अपना ही इतिहास किसी मिथक से कम कहाँ लगता है? तभी, तो लोकतंत्र ना जाने कहाँ से प्रमाण ला-लाकर हमारा इतिहास ही बदलने की फ़िराक़ में क्यों रहता है?
फिर भी ज़रूरतों के अनुसार हमारी भी कल्पनाएँ बनती-बिखरती आयी है। आगे भी उनकी संरचना हमारी प्रज्ञा पर ही निर्भर करती रहेगी। ज्ञान जब व्यवहार में छलकता है, तब जाकर कहीं प्रज्ञा का दीदार होता है। हम विश्व-गुरु ऐसे ही नहीं बने थे। औद्योगिक क्रांति में भारतीय दर्शन का बहुत महत्वपूर्ण योगदान था। इस क्रांति के लिए ज़मीन ‘पुनर्जागरण काल’ ने पहले ही बना रखी थी। इस काल में पाश्चात्य सभ्यता मध्यकालीन युग से बाहर आने का प्रयास कर रही थी।
पाश्चात्य इतिहास में काल को दो खंडों में बाँटा गया है — B.C. और A.D., जहां B.C. का तत्पर्य ‘Before Christ’ और A.D. का फुल फॉर्म ‘Anno Domini’ है। ‘Anno Domini’, दो लैटिन शब्दों से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ - “प्रभु के वर्ष में” होता है। प्रभुत्व के स्वामी ईसा मसीह को पाश्चात्य कैलेंडर ने अपनी समझ के लिए काल-विभाजन का आधार मान लिया।
दर्शनशास्त्र के इतिहास में मध्यकाल के शुरुआत की कोई निर्धारित तिथि नहीं है। ४०० से लेकर १४०० ईसवी तक की कालावधि को मध्यकाल माना गया है। इस काल में अंधविशास की प्रबलता से पाश्चात्य देश, समाज और सभ्यता त्रस्त थी। चर्च का वर्चस्व राजनीति और कूटनीति दोनों का निर्धारण कर रहा था। राजा को राजस्व भी चर्च की बदौलत ही मिल रहा था। आदिकाल से जिन बाहुबलियों ने शासन-प्रशासन की कमान सम्भाल रखी थी, अब उन्हें भी पादरियों के सामने झुकना पड़ता था। वैसे, पाखंड पहले भी था। पर, मध्यकाल में पाखंड ही राजनीति का भी निर्धारण करने लगा था।
दर्शनशास्त्र के संदर्भ में ‘पाश्यत्य सभ्यता’ का प्रयोग मुख्यतः यूरोपीय देशों के संदर्भ में किया जाता है। मेरी समझ से पाश्चात्य सभ्यता में अमेरिका आधुनिक युग में शामिल हुआ है। जहां से मध्यकालीन दर्शन युग का समापन होता है, वहीं से पुनर्जागरण काल प्रारंभ होता है। और जहां पुनर्जागरण काल इतिहास से ओझल होता है, वहीं औद्योगिक क्रांति और पाश्चात्य-दर्शन के आधुनिक युग का उदय होता है। विकिपीडिया के अनुसार — “14वीं और 17वीं सदी के बीच यूरोप में जो सांस्कृतिक व धार्मिक प्रगति, आंदोलन तथा युद्ध हुए उन्हें ही पुनर्जागरण कहा जाता है। इसके फलस्वरूप जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नवीन चेतना आई। यह आन्दोलन केवल पुराने ज्ञान के उद्धार तक ही सीमित नहीं था, बल्कि इस युग में कला, साहित्य और विज्ञान के क्षेत्र में नवीन प्रयोग हुए।”
मेरे शैक्षणिक अनुमान से पाश्चात्य इतिहास में औद्योगिक क्रांति को शिक्षा क्रांति माना जा सकता है। इस शिक्षा क्रांति की बुनियाद पहले ही पुनर्जागरण काल ने तैयार कर रखी थी। इस काल में विभिन्न विधाओं में स्वतंत्र चेतना ने अनगिनत रचनायें की। ज्ञान की कई नई विधा का शुभारंभ इसी दौरान हुआ था। कला और विज्ञान की कई नयी शाखायें ज्ञान के फ़लक पर उभर आयी। पर, मध्यकाल के अंधविश्वास और पाखंड ने ज्ञान की गंगा को पुनर्जरण काल में भी बांध रखा था। नयी चेतना उस बंधन को तोड़कर आगे बढ़ने का मौक़ा तलाश रही थी। यह मौक़ा रने देकार्त (1596-1650) ने दिया, जब उन्होंने संदेह की बीनह पर जगत और ईश्वर के अस्तित्व को स्थापित किया। अपनी अवधारणाओं में उन्होंने ख़ुद को हर सत्य पर संदेह करने के काबिल माना। पर, कोई एक ऐसी चेतना है, जो संदेह कर रही है — इस बात को वे अपने संदेह के घेरे में नहीं ला पाये। इस तरह पाखंड के आधिपत्य को उन्होंने चुनौती दे डाली। मध्यकालीन दार्शनिक उनके तर्कों का काट नहीं खोज पाये। इधर, सृजनात्मक चेतना को पाखंड से उबरने का बहाना मिल गया। फलस्वरूप, चर्च का आधिपत्य राजनीति से अलग हो गया। लोकतंत्र की सत्ता एक नये सिरे से स्थापित होने का प्रयास करने लगी।
मध्यकालीन युग में पाश्चात्य देशों के बीच धार्मिक जंग छिड़ी हुई थी, जिसे इतिहास हमें क्रूसेड या क्रूसयुद्ध के नाम से पढ़ाता है। पुनर्जागरण काल ने क्रूसयुद्ध की समाप्ति की घोषणा जनहित में कर डाली। दो-चार सौ साल लगे, तब जाकर उन देशों ने धर्म का घंटा बजाना छोड़कर आगे बढ़ने का लोकतांत्रिक फ़ैसला लिया।
रने देकार्त ने जिस क्रांति की जिस चिंगारी को सुलगाया था, उसे फ्रेडरिक नीत्शे (1844-1900) ने एक रचनात्मक आग में बदल दिया। यही दौर था, जब उन्होंने ने तो यह घोषणा ही जनहित में जारी कर दी कि भगवान मर चुका है — God is Dead!
दार्शनिक के हाथों वहाँ भगवान मर रहा था। और समाज जाग रहा था, क्रांति करने पर उतारू था। क्रांति की कल्पना पहले ही इमानुएल काण्ट (1724-1804) और आर्थर शोपेनहावर (1788-1860) ने करना शुरू कर दिया था। मुझे इस युग के दार्शनिकों की कल्पना का आधार कहीं ना कहीं गीता से प्रेरित नज़र आता है। आर्थर शोपेनहावर ने तो इस बात को अपनी आधिकारिक स्वीकृति भी दी है। गीता से मिले ज्ञान को वे उल्लेख भी करते हैं। नैतिकता से लेकर तत्वमीमांसा पर इन दार्शनिकों ने कई महत्वपूर्ण अवधारणों पर प्रकाश डाला।
आधुनिक युग के इन पाश्चात्य दार्शनिकों की मदद से विएना में बुद्धिजीवियों का समूह इकत्रित हुआ, जिसे ‘वियना सर्कल (1924-1936)’ के नाम से जाना गया। मेरे अनुमान से यह सर्किल आज तक दुनिया के समसामयिक बुद्धिजियों का सबसे बड़ा योग रहा होगा। इसमें ना सिर्फ़ विश्व के सबसे मनीषी दार्शनिक, जैसे बर्ट्रैंड रसल, लुडविग विट्गेन्स्टाइन आदि शामिल हुए। बल्कि, आइंस्टाइन जैसे वैज्ञानिक भी शामिल थे। इस समूह ने लगातार विचारों का आदान-प्रदान किया और प्रमाणों के आधार पर कई मानक तथ्यों की स्थापना भी की, जिसने सभ्यता की दशा और दिशा को ही बदलकर रख दिया। वियना सर्कल से ही logical empiricism या logical positivism या neopositivism की स्थापना हुई। हिन्दी में इस अवधारणा का अनुवाद तार्किक भाववाद या तार्किक प्रत्यक्षवाद है।
भारत का यह ऐतिहासिक दुर्भाग्य रहा है कि तार्किक प्रत्यक्षवाद की स्थापना यहाँ आज तक नहीं हो पायी है। मेरी समझ से तार्किक प्रत्यक्षवाद का सबसे महत्वपूर्ण योगदान था कि इसने तत्वमीमांसा का ही खंडन कर दिया। विकिपीडिया के अनुसार — “तत्त्वमीमांसा या पराभौतिकी (अंग्रेज़ी-metaphysics) दर्शनशास्त्र की वह शाखा है, जो वास्तविकता के सिद्धांत एवं यथार्थ व स्वत्व/सत्ता की मूलभुत-मौलिक प्रकृति, अस्तित्व, अस्मिता, परिवर्तन, दिक् और समय, कार्य-कारणता,अनिवार्यता तथा संभावना के प्रथम (आद्य) सिद्धांतों (मूलनियम) का अध्ययन करती है।”
तार्किक प्रत्यक्षवाद ने दर्शनशास्त्र से तत्त्वमीमांसा को अलग कर, उसकी परिधि को सीमित कर दिया। तत्त्वमीमांसा हमें जगत की संपूर्णता का ज्ञान देने का प्रयास करता है, उसकी ज़िम्मेदारी हमारी उत्पाति और उससे जुड़े अर्थों का अवलोकन करना है। पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में भी तत्त्वमीमांसा से कई अजीबोग़रीब कल्पनाएँ जुड़ी हुई हैं। जिसकी शुरुआत यूनानी या ग्रीक दर्शन से हुई थी। ना जाने कैसी-कैसी अवधारणाओं का जन्म इस कालावधि में हुआ था। किसी ने पानी को किसी ने हवा को उत्पत्ति का आधार माना लिया। किसी ने मछली को मांसाहार से अलग कर दिया, तो किसी ने नैतिकता का आधार ही ख़ुद को मान लिया। कुछ ने काल और स्थान के प्रवाह को ही सत्य मान लिया। हर कोई अपनी अवधारणाओं में निश्चित था। इस आदिकाल में भी विज्ञान ने अपना सिर उठाने का प्रयास किया। एटम की अवधारणा इस दौर में भी मौजूद थी। दार्शनिक जगत के विकराल रूप से लेकर उसकी सूक्ष्मता को भी समझने का प्रयास कर रहे थे। तब, दार्शनिक और वैज्ञानिक में कोई अंतर ही कहाँ था। इस दौर में नैतिकता के निर्धारण का सिद्धांत Homo Mensura था। मतलब, Man is the measure of all things, अर्थात् व्यक्ति ही हर चीज का मापदंड था।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए कि नैतिकता की इस परिभाषा ने तंत्र को अराजक बना डाला। सुकरात ने विद्रोह का बिगुल फूंका, तो उन्हें तंत्र ने ज़हर दे दिया। पर, उनके शिष्यों ने हार नहीं मानी। प्लेटो और अरस्तू ने तर्कशास्त्र की स्थापना की। ताकि, प्रमाणों की सत्यता का निर्धारण करना संभव हो पाये। इस बीच सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियों भी अपने रफ़्तार से चलती रही। नये तर्कशास्त्र का इस्तेमाल कर कुछ दार्शनिकों ने गॉड को ज्ञान के शिखर पर स्थापित कर दिया। ईश्वर के अस्तित्व के लिए ना जाने कितने तर्क-कुतर्क दिये गये?
कई हज़ार सालों तक इनके आधिपत्य को कोई चुनौती नहीं दे पाया। पंद्रह सौ साल लगे, तब जाकर रने देकार्त ने संदेह की बीनह पर गॉड पर शक भी किया और शक की बुनियाद पर ही जगत और ईश्वर की सत्यता की स्थापना भी कर डाली। उनकी मंशा भी कहीं ना कहीं तत्त्वमीमांसा के खंडन की ही रही होगी। पर, समाज और सभ्यता तैयार नहीं थी। विज्ञान का साम्राज्य अभी कोशों दूर था। उनके और वियना सर्कल के बीच कुछ दो-तीन सौ साल का अंतर था। तब तक विज्ञान इतनी प्रगति कर चुका था कि हमारी ज़रूरतों के अनुसार सत्यता के निर्धारण करने के लिए अब वह प्रमाण जुटा पाने में सक्षम था। इस दौर में दार्शनिक और वैज्ञानिक का अंतर मिट सा गया। कुछ समय पहले से ही यह भेद मिटने लगा था। कई ऐसे चिंतक-विचारक ज्ञान के फ़लक पर उभरने लगे जिनको विज्ञान और दर्शन एक साथ पढ़ने-पढ़ाने लगा। कई उदाहरण हैं, पर डारविन को कौन नहीं जानता है?
विकासवाद को उन्होंने ने विज्ञान में प्रमाणसहित स्थापित कर दिया। उनकी अवधारणाओं का ज़िक्र भारतीय दर्शन में आदिकाल से मौजूद था। पंचकोष की अवधारणा का ज़िक्र तैत्तिरीय उपनिषद में मौजूद है, जो विकासवाद को कुछ उसी प्रकार समझाने का प्रयास करता है, जैसा डारविन ने जैविक स्तर पर किया था। फिर भी पंचकोष की अवधारणा में प्रमाणों से ज़्यादा कल्पना का वर्चस्व है। हर कोष के लिए प्रयाप्त तर्क तो हैं, पर कुछ तर्कों के पीछे जो प्रमाण दिये गये हैं, वे ही काल्पनिक हैं। इसलिए, इसे वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता है। डारविन ने कल्पनाओं के आधार पर तत्त्वमीमांसा के अपने सिद्धांत नहीं दिये थे, उन्होंने जैविक उत्पत्ति का अध्ययन तत्परता और क्रमबद्ध तरीक़े से किया था। ऐसे ना जाने कितने महानुभावों के योगदान के बाद वियना सर्कल का गठन हुआ होगा? जिसके बाद दर्शनशास्त्र की परिधि में अब सिर्फ़ निषेधात्मक और भावनात्मक अवधारणाएँ ही बची रह गई हैं।
इस कारण पाश्चात्य देशों में विज्ञान के विकास को स्वतंत्रता मिल पायी। तभी तो औद्योगिक क्रांति के बाद वह सूचना क्रांति तक जा पहुँचा। क्रांति कोई भी हो, ज्ञान ही उसका संचार समाज में कर सकता है। काल और स्थान अपनी ही गति से बदलते रहे। इतिहास इन्हीं बदलावों के क़िस्से-कहानियाँ ही तथ्यों और प्रमाणों के साथ हमें सुनाता आया है। मेरी इहलौकिक दुर्दशा की दास्तान भी उसी ने मुझे सुनायी है।
भारतीय दर्शन में भी कई बार तार्किक प्रत्यक्षवाद उभर कर सामने आया। पर, पाखंड ने उसे ज्ञान की जगह हमारी अज्ञानता में जगह दे डाली। बुद्ध को रचने में जातिवाद का सामाजिक दंश और पाखंड में बदलता सांस्कृतिक कर्मकांड ही तो ज़िम्मेदार था। बड़ी मुश्किल से बुद्ध को भी ब्रह्म और ब्रह्मा से जोड़कर हमारे बुद्धिजीवियों ने अपनी सांस्कृतिक लाज बचायी। फिर, बुद्ध को ही देश निकाला दे दिया गया। जो धार्मिक पंथ इस एशियाई महाद्वीप का सबसे प्रचलित धर्म है उसके अनुयायी इस देश में भी कर्मकांड ही निभा रहे हैं। बुद्ध विहारों में भी होम-हवन की तैयारी होते देखी है मैंने! वहीं से लौटकर आया, तो यह सब लिख रहा हूँ। शांति घर पर ही मेरा इंतज़ार कर रही थी। भले उसके लिए मुझे थोड़ा शोर मचाना पड़ा।
तार्किक प्रत्यक्षवाद ने ही पाश्चात्य देसों में सूचना क्रांति की सामाजिक और दार्शनिक नींव रखी थी। दोनों ही क्रांति अपने साथ शिक्षा क्रांति भी साथ लायी थी। पर, भारतीय इतिहास में शिक्षा क्रांति का कोई उदाहरण मौजूद नहीं है। हमने तो औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ सूचना क्रांति भी पाश्चात्य देशों से उधार ली थी, आज भी ले रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था जिन सूचना सेवाओं का दंभ भरती है, उसकी बुनियाद ही बाज़ार के दलदल पर टिकी है। मुझे इस बात पहले भी अनुमान था। कुछ आलेखों में मैंने एपीआई इस चिंता का भी ज़िक्र करने का प्रयास किया था। भारत जो अपनी आईटी सेवाओं पर बड़ा नाज करता है, उसके पास आईटी उत्पाद नाम मात्र ही हैं। यहाँ की कंपनियाँ विदेशी बहुराष्ट्रीय उद्योगों को बस सेवाएँ उपलब्ध करवाती हैं। जब उन्हें हमारी सेवाओं की ज़रूरत नहीं रहेगी, या वे ख़ुद आत्म-निर्भर बन जाएँगे, तो हमारी अर्थव्यवस्था को गहरा आघात पहुँचेगा, जिसकी शुरुआत हो चुकी है। आईटी सेक्टर से जुड़ी यह खबर कल ही मुझ तक पहुँची है, जिसमें इस साल भारतीय आईटी सेक्टर के वशआउट साल का अनुमान लगाया गया है। पूरी दुनिया की आईटी कंपनियाँ पिछले कुछ सालों से रोज़गार में कटौती करने को विवश हो गई हैं। कोरोना काल में ना जाने कितने लोग बेरोज़गार हो गये। इस साल तो भारत की प्रमुख आईटी कंपनियाँ यह दावा कर रही हैं कि उनके ग्राहक भी अपने आईटी खर्च में कटौती करने लगे हैं।
जब वियना सर्कल का गठन हुआ था, तब भारत में दार्शनिक भी थे, वैज्ञानिक भी, पर हमारा देश ही अधीन था। वियना सर्कल में भारत के नाम मात्र भी प्रतिनिधि शामिल नहीं हो पाए थे। जिस कारण नयी वैज्ञानिक चेतना का प्रवाह हमारे इहलोक में कुपोषित ही रह गया। कल्पनाओं की अधीनता तो आज भी हमारी संस्कृति में प्रचलित है। यह वह दौर था जब हमारे दार्शनिक जाति-प्रथा जैसे सामाजिक पाखंड से उलझे हुए थे। अफ़सोस! यह जंग आज भी मेरे इहलोक में जारी है।
मैंने तो यहाँ सबको शांति के लिए शोर मचाते ही देखा है। हर रोज़ जुलूस, हर रोज़ कोई नई नौटंकी, ऐसा कोई दिन नहीं होता जब कोई ‘—वार’ नहीं होता, कभी त्योहार होता है, नहीं तो कोई काल्पनिक पर्व ही माना लेते हैं, उस पर भी मन ना भरे तो लोक मनचाहा व्रत रख लेता है। कुछ भी हो शादी या पूजा, हमें तो श्मशान पर भी डीजे का इंतज़ाम चाहिये। हर धार्मिक और राजनैतिक पंथ शांति की दुहाई लाउडस्पीकर पर क्यों दे रहा है? कोई पल भर के लिये शांत क्यों नहीं हो जाता है? शांति अपने आप हमारे पास आ जाएगी! लोकतंत्र है, भाई! क्या हम ही राजा नहीं हैं?
वहाँ यूरोप में पुनर्जागरण काल के दौर में जब लोक अपनी मध्यकालीन निद्रा से वापस जाग रहा था, वह रच रहा था। कोई कविता लिख रहा था, कोई कहानी, कोई गा रहा था, तो कोई बजा रहा था। चारों तरफ़ एक नयी सामाजिक कल्पना अपना इहलौकिक स्थान बना रही थी। इस दौरान भारत के गणमान्य बुद्धिजीवी विभाजन की खिचड़ी पका रहे थे। जिन्होंने रोकने की कोशिश की, उन्हें ही हमने गोली मार दी। अहिंशा के पुजारी को ऐसे ही मौत के घाट उतारकर हमने अपनी अज्ञानता का सबूत दे दिया। एक दार्शनिक को अफ़सोस तो काल की क्रोनोलॉजी देखकर ही आ सकता है, मुझे तो अपना आस-पड़ोस यूरोप के मध्यकालीन युग में जीता प्रतीत होता है। जैसे उस युग में धर्म की रक्षा के लिए योद्धा तैयार किए जा रहे थे, जिन्हें ना जाने किसकी रक्षा करने के लिए मरने-मारने भेज दिया जाता था? आज मेरे पड़ोस में बच्चों को वैसे ही पाला जा रहा है। माता-पिता ज़बरदस्ती धर्मालयों की शरण में इन्हें समृद्धि के लिए भेज रहे हैं। वहाँ भी इतना पाखंड भर है कि कहीं कहीं से अब लीक होने लगा है!
यहाँ तो हमारी सभ्यता और संस्कृति के रक्षक ही भक्षकों की आराधना में लिप्त हैं। सनातन धर्म की आख़िरी कड़ी पकड़कर उसकी रक्षा की ज़िम्मेदारी उठाये बैठे हैं। वह आख़िरी कड़ी उपनिषदों की होनी चाहिये थी, पर धरम के ठेकेदारों ने उसे भी मंत्रों में ही बांध रखा है।
कौन नहीं जानता है कि रामायण की रचना ‘वाल्मीकि’ ने की थी?
किसे नहीं पता है कि महाभारत की रचना ‘वेदव्यास’ ने की थी?
फिर आज भी मेरे अग्रेजी माध्यम में पढ़े लिखे शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर मित्र भी ‘राम’ को एक काल्पनिक किरदार मानने से इनकार कर देते हैं। इनसे मैं लोकतंत्र का राजा होने की अपेक्षा भी कैसे रख सकता हूँ?
राम जैसा कोई चरित्र तो हमें आस पड़ोस में मिल भी जाये, लक्षण का मिलना भी मुमकिन है, यहाँ तो आज भी माएँ सीता जैसी ही होती है। अफ़सोस! साहित्य हमें राम को पिता और सीता को अपने लव-कुश की माँ के रूप में नहीं दिखा पाया। हमने कल्पना पर ही पाबंदी लगा दी। लगता है यह समाज आज भी शाहजहाँ से ही प्रेरित है, सपनों के पंख ही काट देना चाहता है, ताकि सपनों का कोई दुबारा ताजमहल ना बना पाए।
पर रावण जैसा दस सिरों वाला आतंकवादी तो अल्लादीन का चिराग़ लेकर भी ढूँढने से नहीं मिलेगा! अगर मेरे किसी मित्र को ऐसा करैक्टर साहित्य में भी मिल जाये, तो उनसे मेरा निवेदन है कि उसे मेरी अदालत में रावण को पेश किया जाये। हुक्म की तामील हो! पर, मेरे दोस्त और रिश्तेरदार मुझे भारत से श्रीलंका के बीच पत्थरों का जो काल्पनिक पुल श्री हनुमान जी ने राम-राम लिखकर बनाया था, उसका सैटेलाइट सबूत दिखाने लग जाते हैं। जिस किताब पर लिखा है, यह काव्य है, साहित्य है, कल्पना है, उसे ही लोकतंत्र काल्पनिक मानने से इंकार कर रहे हैं। यह किस प्रकार की सामाजिक प्रज्ञा का परिचय है?
सत्य वही है, जो अखंडित है। यहाँ सामाजिक सत्य यही है कि रामायण और महाभारत दोनों ही रचनायें साहित्यिक और काल्पनिक हैं, जिसका किसी सच्ची घटना से कोई वास्ता नहीं है। ऐसी जानकारी भी आजकल अंध-दर्शकों को देनी पड़ती है, वरना कुछ लोग तो उड़ने की लालसा लिए ऊँची-ऊँची इमारतों के छत से कूद पड़ते हैं।
सत्य अखंडित है। सच उस खंड सत्य का वर्तमान है। हमारी समझ ही हमारा सच है। जो, सबके लिए निजी है। Homo Mensura की अवधारणा भी निराधार नहीं थी। मेरे इहलोक का सच इसी घर के सदस्य के लिए अलग है, एक ही समय और स्थान पर एक ही विषय-वस्तु का सच अलग है। मेरा सच और मेरी नैतिकता को अलग होने का स्वतंत्र मौलिक अधिकार है। यह अधिकार हम अपने ही बच्चों को समय पर नहीं सीखा पाते हैं। शिक्षा व्यवस्था तो बस नौकरी की गारंटी के दम पर चल रही है। हमें अनुशासन, उत्कृष्टता और सदाचार सिखाएगा कौन? यहाँ तो हमारे माता-पिता को अपनी ही नौकरी की ज़िम्मेदारी निभाने से फ़ुरसत कहाँ मिल पा रही है?
मेरा यह शरीर भी एक कल्पना है, जिसको आकार भी मेरे माता-पिता ने दिया है और उन्हीं की मदद से मैं अपना एक सपना साकार करने की कल्पना कर रहा हूँ। एक बेहतर लोकतंत्र की कल्पना, जहां मेरी बेटी आज़ादी से स्वराज की घोषणा कर सके।
ये कल्पनाएँ बादलों की तरह उमड़ती-घुमड़ती रहती है। उसका हर रूप एक भावना है। चित्त हर क्षण मनचाहा रूप ले रहा है। चित्त तो बस दिमाग़ का वह पर्दा है, जहां सपनों और विचारों का चलचित्र प्रसारित होता रहता है। चित्त पर इंद्रियों के माध्यम से अनुभव भी अपना प्रभाव डालता है। मेरी समझ से चित्त वह मिलन बिंदु है, जहां आत्मा का शरीर से मिलन होता है, जिसकी साक्षी हमारी चेतना बनती है। हमारा अस्तित्व हमारी भावनाओं का साक्षी है।
पाश्चात्य देश और समाज भी गॉड को खंडित नहीं कर सकते थे। इसलिए, ईसा को ही गालियों भरा प्रेम-पत्र लिख डाला और गॉड के साथ कई नयी उपाधि जोड़ दी। वहाँ का साहित्य इस बात का गवाह है कि क्राइस्ट को कितनी गालियाँ पड़ी हैं। विज्ञान ने ‘पार्टिकल’ की कल्पना को भगवत्व से जोड़ा, और गॉड-पार्टिकल के सबूत के साथ इहलोक की एक नयी कल्पना हमारे सामने रख दी। अच्छी कल्पना है, प्रमाण के साथ भी है। हमारे विश्वास के लिए प्रयाप्त तर्क भी मौजूद हैं। फिर भी हमें घंटा बजाने में ही मज़ा आता है।
मेरे अनुमान से मेरे इहलोक के इतिहास में कभी पुनर्जरण काल आया ही नहीं है। इसी काल के अभाव से क्रांति भी प्रभावित रही है। स्वतंत्रता संग्राम में उस क्रांति की गुंजाइश थी, पर पाखंडियों ने बँटवारे के बहाने क्रांति का दरवाज़ा ही बंद कर दिया। आज भी मेरे इहलोक की शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ अंग्रेज हुक़ूमत की ही देन है। हमारे इतिहास से बौद्धिक क्रांति का एक पूरा काल ही लापता है। तभी तो बुद्धिजीवी भी ज्ञान से जुड़े भ्रमों का संचार ही मेरे इहलोक में कर रहे हैं। एक बार एक पीढ़ी को रचने और निखरने का अवसर ही तो मेरा इहलोक इस लोकतंत्र से माँग रहा है।
ना जाने, कब तक यह कर्ज मेरा इहलोक उतार पाएगा? कब इस लोकतंत्र की एक बेहतर अवधारणा लिए मेरा इहलोक एक बेहतर शैक्षणिक और सामाजिक व्यवस्था कि कल्पना कर पाएगा? ना जाने, शिक्षा क्रांति की ज़रूरत मेरा इहलोक कब समझ पाएगा?