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इहलौकिक जिजीविषा

अपने-अपने इहलोक से हमारा परिचय दो स्तरों पर होता है। पहले तो इंद्रियों के रास्ते हम अनुभव प्राप्त करते हैं, और फिर बुद्धि के माध्यम से हम अपने लिये लगातार नयी-नयी अवधारणाएँ बनाते रहते हैं। साथ ही कुछ पुरानी अवधारणाएँ बदलती भी रहती हैं। ‘अर्थ’ की तलाश में हमारा इहलोक आपस में टकराता भी रहता है। हमारा इहलोक पूर्ण तो हो सकता है, फिर भी कभी ख़ुद में पूरा नहीं हो पाता है। कुछ नहीं भी तो उसमें उम्मीद बाक़ी रह ही जाती है।

‘निदा फ़ाज़ली’ की चर्चित रचना है - “कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता”, जिसकी आख़िरी पंक्ति है — “ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता॥”

शायद ही कोई होगा, जो इन शब्दों से शिकायतों के साथ नसीहतों का ख़ज़ाना नहीं रखता होगा। मैंने तो अपने हर चाहने वालों को अपने-अपने इहलोक की कमियाँ गिनाते ही देखा है। मैं भी तो वही कर रहा हूँ। बस मेरा रास्ता थोड़ा अलग है। जब भी मैं निराश हो जाता हूँ, और लगने लगता है कि अब इससे ज़्यादा भला कोई क्या निराश कोई होगा? तब तक मेरा कोई चाहने वाला आकर मुझे वक़्त की बीमारी बता जाता है। मेरे दुख का मज़ाक़ बनाकर मुझसे ही कह जाता है - “बस इतना ही, तुम्हें पता है — मुझ पर और मेरे चाहने वालों पर क्या-क्या नहीं बीती है?”

बस यहीं पर एक नया काल्पनिक इहलोक की रचना हो जाती है। यह रचनायें साहित्यिक होती हैं। हम प्रमाणों के दम पर नहीं अपनी-अपनी कल्पनाओं और भावनाओं के आधार पर आपस में संवाद करते हैं। इनके ऐतिहासिक होने का कोई प्रमाण कहाँ होता है। हर सुख-दुख एक कल्पना ही तो है।

मृत तो हमारा शरीर तब भी था, जब अस्तित्व से परे था। मृत्यु रूपी संकट को कोई अपनी कल्पनाओं में ही मात दे सकता है। पर, अस्तित्व की कल्पना पहले भी थी, इसकी स्मृति आगे भी रह जायेगी। मैं दूसरे बच्चे का बाप बनने वाला हूँ। पर, इसकी कल्पना पहले से थी। इसी श्रृंखला के दूसरे भाग में अपनी इस कल्पना को शब्द दे चुका हूँ। फ़िलहाल, एक चेतना अपने लिए शरीर को, और एक नया इहलोक ख़ुद को रच रहा है। जो पहले हमारे दाम्पत्य जीवन की कल्पना का हिस्सा बना। यह कल्पना ख़ुद में एक बेहतर जीवन की अभिलाषा ही तो है। यही तो ‘उम्मीद’ है, जिस पर हमारी दुनिया क़ायम है।

स्वर्ग, मोक्ष, मुक्ति, जन्नत या हेवन एक ही अभिलाषा या कल्पना के अलग-अलग रूप हैं। दुख या दर्द हो, या इंद्रियों को प्राप्त सुख ही क्यों ना हो? भोगती तो चेतना ही है, जो ख़ुद आत्मा का क्षणिक वर्तमान है। आत्मा की शाश्वतता को हमारी चेतना वर्तमान की अनंतता के साथ जोड़कर ही समझ पाती है। सुख-दुख अनुभव के पात्र हैं। अनुभूति और अनुभव में बारीक अन्तर है। अनुभव के लिए इंद्रियों का सक्रिय होना ज़रूरी है। अनुभूति विचारों और भावनाओं से भी प्रभावित होती रहती है। अनुभूति वह एहसास है, जिसे हमारी चेतना महसूस कर पाती है। अनुभूतियों का दायरा अनुभव से बड़ा है। अनुभूति शरीर और इंद्रियों से परे है। अनुभूतियों का अस्तित्व ही काल्पनिक है। अनुभव की एकरूपता भी अनुभूति की समानता को स्थापित नहीं कर सकती है। हर अनुभव में अनुभूति का योगदान है। पर, अनुभूति को अनुभव पर आश्रित नहीं रहना पड़ता है। वह विचारों और कल्पनाओं में स्वतंत्र विचरण कर सकती है। यहाँ तक कि अनुभूतियाँ, चेतना में कई काल्पनिक अनुभवों का संप्रेषण करने में सक्षम है। कल्पनाएँ इंद्रियों को भी प्रभावित करने का हुनर जानती है।

अनुभव और अनुभूतियों की क्षणभंगुरता को चेतना निरंतर हमारी अवधारणा में बदलती जाती है। अवधारणाओं की यही पूँजी हमारे ज्ञान के ख़ज़ाने को भर-भरकर समृद्ध करती जा रही है। ज्ञान ही हमारे अस्तित्व को काल और स्थान की निरंतरता प्रदान करता है। अवधारणाएँ बनती-बिगड़ती रहती है। प्रज्ञा के रूप में हमारी अवधारणाएँ और हमारा ज्ञान ही हर क्षण हमारे छोटे-बड़े फ़ैसलों का निर्धारण करता है। अनुभव से हमें आग की गर्मी का ज्ञान हुआ। दो-चार बार जलकर जलन की अनुभूति हुई। गर्मी का अनुभव और जलन की अनुभूति एक अवधारणा बन गई, जो हमारे ज्ञानकोश में संग्रहित होती जाती है। समय के साथ हमारी प्रज्ञा प्रखर होती है, और हम अपने शरीर को आग के सान्निध्य में जाने से बचाने का प्रयास करने लगते हैं।

अनुभव से हमें पता चलता है कि जीवन है? कहाँ है और कहाँ नहीं? पर, हमारी अनुभूतियाँ हमें यह बताती है कि क्या जीवन पक्ष में था, है या हो सकता है? या, जीवन के विपक्ष में कौन है?

एक कसाई के लिए बकरे का जीवन और उसका दर्द अर्थहीन होता है, क्योंकि उसके लिए उसका मांस ही अर्थवान है। कुछ नैतिक शाकाहारी — मांसाहार को हैवानियत, दरिंदगी और ना जाने क्या-क्या नाम देते हैं? शाकाहार अच्छी चीज है। इसके पालन से शरीर स्वस्थ और मन स्वक्ष रहता है। पर, मांसाहार को भावनाओं और नैतिकता से जोड़ना मुझे कहीं से जीवन के पक्ष में नज़र नहीं आता है। क्योंकि, इंसान चाहे शाकाहारी हो, या मांसाहारी! दोनों ही प्रकार के ये नैतिक प्राणी अपने-अपने घरों में चूहों का ज़हर सँभाल कर रखते हैं। अपने बच्चों से बचाकर, चूहों के बच्चों को खिलाने!

बस, चूहों को खाकर पेट भरने की नौबत हर किसी को नहीं आती है। ऐसी नौबत जिसकी आ जाती है, समाज ही उसे बेदख़ल कर देता है। गाँव के बाहर मुसहर बस्ती आज भी है। जहां लोग चूहों को खाने पर मजबूर हैं। अपने स्वार्थ को चूहों से बचाने के लिए उन्हें ज़हर देना कहाँ से अहिंसा है? कैसे अनैतिक नहीं है? यहाँ भी तो हमारे निजी स्वार्थ के लिए एक जीवन जा रहा है। मच्छरों के कत्लेआम का हथियार बनाने के लिए तो एक पूरा उद्योग बैठा हुआ है। अगर मच्छरों की सरकार ने किसी दिन इस हैवानियत का संज्ञान ले लिया और हमसे जीने का नैतिक अधिकार ही माँग लिया, तो क्या हम उन्हें नैतिकता की परिभाषा समझा पायेंगे? बस, मारकर खा लेने से अनैतिकता कैसे जाग जाती है?

ज़रूरतों और अर्थ की इसी खींचातानी में हमारा इहलोक आपस में उलझा ही रहता है। कई इहलोक मिलकर एक परिवार की रचना करते हैं। कई परिवारों का एक समुदाय बनता है। समुदायों के बीच का परस्पर संबंध एक समाज को आकार देता है। समाज जब अपनी एकता और अखंडता को समझता है, तब वह एक लोक का निर्माण करता है। जिसे सुचारू रूप से चलाने के लिए हम सबने मिलकर एक व्यवस्था अपनायी है, जिसे हमने लोकतंत्र का नाम दिया है। पहले भी कई तंत्र आये और चले गये, आज लोकतंत्र है। क्या कल इससे बेहतर तंत्र की कल्पना को मेरा इहलोक अंजाम तक नहीं पहुँचा सकता है?

पर नयी कल्पनाएँ आयेंगी कहाँ से? यहाँ तो किसी और के इहलोक से अपने इहलोक की तुलनात्मक कल्पना करने में ही पूरा लोकतंत्र व्यस्त है। ज़रूरतों का अनुमान लगाने की जगह, ज़रूरतों का निर्माण और ख़तरों की कल्पना करते जाना, हमारे वक़्त की सबसे गंभीर बीमारी है। जो हमें हमारी मौलिक ग़रीबी का हर पल एहसास दिलाती है। हमारे इहलोक की कल्पनाओं और ज़रूरतों के बीच का सामंजस्य ही उसकी पूर्णता का प्रमाण दे सकती है। जिसे हम अपना आनंद रूप भी मानते हैं। सच ही है कि यहाँ कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता, पर यही तो हमारी ज़िम्मेदारी है कि हमें अपना इहलोक ख़ुद रचना है। या तो हम उसे मुकम्मल बना सकते हैं, या फिर उसे यथा-स्थिति मुकम्मल मान भी सकते हैं। दोनों ही दशा में बदलता कुछ भी नहीं है, बस मूड बदल जाता है, अवधारणाओं से जुड़ी भावनाएँ बदल जाती हैं। इस तरह हमारा इहलोक भी बदलता रहता है। अनुभव में कोई अंतर आये ना आये, कल्पनायें और अनुभूतियों में फ़र्क़ तो पड़ ही जाता है। हम सिर्फ़ इस वर्तमान में अपनी कल्पना, अपने फ़ैसलों और कर्मों के आधार पर एक बेहतर भविष्य को साकार कर सकते हैं। भूत का हम कुछ उखाड़ नहीं सकते।

भूत-पिचाशों की यही समस्या है कि उन्हें हम अपने वर्तमान या भविष्य के अनुसार बदल नहीं सकते हैं। इसलिए, अपने भूत को मुकम्मल मान लेने से ही उससे मुक्ति मिल सकती है। हमारे वश में सिर्फ़ हमारा वर्तमान है। जिसे हम मन-मुताबिक़ रच सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे अपनी ज़रूरतों के अनुसार हम अपना आशियाना रचते हैं। इसके लिए भी हमें एक अनुमान की ज़रूरत पड़ती है, अपने घर का पहले हम नक़्शा बनाते या बनवाते हैं। वर्तमान अनुमान के साथ-साथ हमें भविष्य की एक सुनहरी कल्पना भी चाहिए होती है।

हर अनुमान एक कल्पना है, जो हमारा ज्ञान तभी बन सकता है, जब उसे साबित करने के लिए हमारे पास प्रयाप्त प्रमाण हों। वरना, ख़याली पुलाव पकाने का अर्थ भी हर किसी को कहाँ मिलता है? ख्यालिराम हर कोई कहाँ हो सकता है? कुछ रचयिता अपने ख़याली-पुलाव को भी प्रमाण देकर अपने सच में बदल देते हैं। ना जाने कितनी काल्पनिक दुनिया हम अपने मनोरंजन के ख़ातिर ही रचते जाते हैं। हैरी-पॉटर जैसी ना जाने कितनी दुनिया पर्दों पर बिलकुल जीवंत नज़र आती है। अपने इहलोक की बेहतर कल्पना ही हमारे लिए एक बेहतर सच का निर्माण कर सकती है।

यह मेरा इहलोक है। यहाँ मेरे भूत है, कुछ अनुमान हैं, कुछ कल्पनाएँ भी! कहीं प्रमाणों की अनुरूपता देखने को मिल जाएगी, कहीं सपनों की सम्बद्धता से काम चलाना पड़ सकता है। बाक़ी जगह मेरी कल्पनाओं की व्यावहारिकता से ही मैं अपने इहलोक को रचने का प्रयास कर सकता हूँ। कुछ कल्पनाओं में आपकी भूमिका मुझसे भी कहीं ज़्यादा अहम है। क्योंकि, लोकतंत्र की ज़रूरतें हमारे निजी इहलौकिक अस्तित्व की ज़रूरतों से बड़ी हैं। मैं तो बस अपनी इहलौकिक जिजीविषा को यहाँ शब्द दे रहा हूँ। हमारी हर कल्पनाओं को आधार हमारे अनुभवों और हमारी अनुभूतियों पर आधारित अवधारणाओं से ही तो मिलता है। बिना प्रयाप्त प्रमाण के हम जिन अवधारणाओं पर पूर्ण विश्वास करते हैं, वे अवधारणाएँ ही तो हमारा अंधविश्वास होता है। अंधविश्वास और अज्ञानता के कारण ही तो मेरा इहलोक और लोकतंत्र दोनों ही त्रस्त हैं।