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मेरी आर्थिक समस्यायें

मैंने अपनी बेरोज़गारी पर विस्तार से काफ़ी चर्चा की है। मैंने अपने रोज़गार पर फ़ुरसत से मंथन भी किया है। मेरी समझ में आजतक यह बात नहीं आयी है कि समाज ने महत्वाकांक्षा को रोज़गार से क्यों जोड़ रखा है? परिवार, समाज और पूरी शिक्षा-व्यवस्था हम पर इच्छाओं का बोझ बढ़ाने का प्रयास कर रही है। यह हर प्रकार से हमारा निर्धारण करने का प्रयास कर रही है, कभी परोक्ष रूप से, तो कभी अपरोक्ष माध्यम से। 

कई-कई दार्शनिकों ने हमें यह बताने का प्रयास किया है कि हर दुख की वजह तृष्णा यानी तीव्र इच्छा है, जिसे आम भाषा में हवस का नाम भी दिया जाता है। फिर ये कैसी व्यवस्था हमने बना रखी है, जहां ज्ञान से पहले ही हम छात्रों के नाज़ुक कंधों पर सिर्फ़ उनकी अपनी ही नहीं, पारिवारिक और सामाजिक इच्छाओं का बोझ भी डाल देते हैं। पहले हम दुख को निमंत्रित करते हैं, फिर उसका स्वागत भी नहीं करते, अपने दुखों का कारण अधूरा समझने के बाद ही हम दोषारोपण करना शुरू कर देते हैं। आप ख़ुद सोचिए, इस प्रक्रिया में आनंद कहाँ है?

जीवन का अर्थ तो आनंद की मात्रा और उसकी गुणवत्ता ही तय करती है। आनंद तो ज्ञान के रास्ते ही मिल सकता है। यह रास्ता किसी के लिए निर्धारित नहीं है, यहीं हम अपने इच्छा-स्वातंत्र्य का प्रयोग करते हैं। यही चुनाव हमारे जीवन के अर्थों का मापदंड है। राम और रावण दोनों ही ज्ञानी थे, उनमें अंतर तो आनंद का ही था। रावण में जो महत्त्वाभिलाषा थी, भोग-विलास की जो लोलुपता थी, उसकी जो शारीरिक हवस थी, जिसके लिए उन्होंने सीता का अपहरण किया था, वह उस ज्ञानी को अभिमानी बना देती है। रावण हमारे अहंकार और घमंड का प्रतीक है। राम अपनी मर्यादा के लिए जाने जाते हैं। उनमें ईमानदारी है, आत्मसम्मान है, स्वाभिमान है। राम और रावण दोनों ही हमारे अंदर हैं, हमें तो बस हर पल चुनाव करना है। यही चुनाव हमारे अस्तित्व को हर क्षण अर्थ देता है। एक पल में जो राम थे, वही अगले क्षण रावण का किरदार निभा सकते हैं।

सिर्फ़ जीविकोपार्जन की ज़रूरतों को पूरा कर लेने से हमारी आर्थिक ज़रूरतें नहीं पूरी हो जाती है। अगर ऐसा होता तो रामायण जैसे महाकाव्य में ‘राम’ वनों में बेरोज़गारी नहीं काट रहे होते, वे तो राजकुमार थे। रोज़गार हमारे भोग-विलास का साधन नहीं है, वह हमारे जीविकोपार्जन का ही नहीं अर्थोपार्जन का भी रास्ता होना चाहिए। राम के नाम की रक्षा करने के लिए जिस राजनीति और हिंसा का समाज प्रत्यक्ष है, उससे ना हमें ना हमारे समाज को कोई अर्थ नहीं मिलता है। यह एक गंभीर धार्मिक समस्या है, जिसकी लपटों से हमारा अस्तित्व भी सुरक्षित नहीं है। हम भी इसी पाखंड के पात्र हैं।

मैंने अपने अनुभव से यह महसूस किया है कि मेरे जीवन को नौकरी कभी अर्थ नहीं दे पायी, पर मेरा जीवन निरर्थक भी नहीं है। जीवन के जिस अर्थ को समाज और परिवार ने मुझ पर आरोपित किया, उसका खंडन करना ही तो मेरा रोज़गार बन गया है, इसलिए तो मेरी कलम मुझे मेरा अर्थ दे रही है। उम्मीद करता हूँ, आगे भी देगी। पर जीविकोपार्जन की समस्या अभी भी मेरी चेतना को भेदती रहती है। 

मुझमें भी भोग-विलास की इच्छा है। मैं अच्छी जगह रहना चाहता हूँ, अच्छा खाना चाहता हूँ, देश-दुनिया घूमना चाहता हूँ, अपने परिवार की हर ज़रूरतों को पूरा भी करना चाहता हूँ। जिसके लिए मुझे अर्थ से कुछ ज़्यादा या उससे कुछ कम भी चाहिए, जिसे धन-दौलत या ज़मीन-जायदाद के रूप में समाज समझता आया है। अपनी शिक्षा-दीक्षा के दौरान मैंने यह अनुभव किया कि समाज ने आज कई ऐसे रास्तों का विकास किया है, जो घर बैठे-बिठाए यह कुछ हमें लाकर दे सकता है। इंटरनेट के युग में यह बहुत सरलता से संभव है। कई लोग इस माध्यम से अपना और अपने परिवार का खर्चा चला रहे हैं। 

मैंने भी कई बार ऐसा प्रयास किया है। मैं भी चाहता हूँ, जब मैं देश-विदेश का भ्रमण कर रहा हूँ, मेरा बैंक वाला खाता भी मेरे साथ चलता-बढ़ता रहे, जिसके लिए मुझे अलग से ना समय, ना ऊर्जा देनी पड़े। यूट्यूब से लेकर लेखन में यह क्षमता है। सुना है - “कंटेंट इज किंग", मतलब कंटेंट या बौद्धिक संपदा का अधिपति ही नया राजा है। यह संपदा हमारे मौलिक ज्ञान का ही तो प्रतिबिंब है, जिसे हम अनेक माध्यम से अभिव्यक्त कर सकते हैं। कुछ प्रचलित मध्यम इस प्रकार हैं - किताबें, जो अब ए-बुक्स के रूप में भी उपलब्ध हैं, वीडियो, ब्लॉग, पॉडकास्ट से लेकर मोबाइल ऐप्स हमें जीविकोपार्जन दे पाने में सक्षम हैं। पर मैं अभी तक इन माध्यमों के माध्यम से भी अर्थोपार्जन करने में असफल ही रहा हूँ। यही मेरी आर्थिक समस्या है।

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.