Skip to main content
शुभारंभ

यह मेरे “इहलोकतंत्र” का आख़िरी अध्याय है। पर, यह कहानी अभी तो शुरू हुई है। अभी तक तो बस अभ्यास चल रहा था।

मेरे अनुमान से ऐसा काल और स्थान कभी नहीं आ सकता है, जब और जहां हमें अपने लोकतंत्र से कोई शिकायत ना रहे। चाहे-अनचाहे, विकास तो होता ही रहेगा। लोकतंत्र की ज़रूरतें भी बदलती ही रहेंगी। इन ज़रूरतों की पूर्ति के लिए नित्य नई कल्पनाएँ और योजनाएँ भी हमारे सामने आती ही रहेंगी। हमारा इहलोक और उसका तंत्र ही लोकतंत्र को रचता है। क्योंकि, मानो-न-मानो हम लोग ही इहलोक और लोकतंत्र के लिए ज़िम्मेदार हैं। अगर हम अपनी ज़रूरतों को समझकर अपने इहलोक की अवधारणा का ख़ुद के लिए निर्धारण करने में असमर्थ रहेंगे, तब तक लोकतंत्र में हम अपनी सत्ता कैसे जता पायेंगे?

लोकतंत्र और हमारा इहलोक, आपस में उलझता ही रहेगा। दोनों की ज़रूरतों और कल्पनाओं में सामंजस्य ही हमें समृद्ध कर सकता है। लोकतंत्र को अपने घर-आँगन में अवतरित किए बिना लोकतंत्र का स्वाद मेरा इहलोक भला कैसे चख सकता है?

पहले, हमें अपने घर-परिवार में लोकतांत्रिक अर्थों की स्थापना करनी होगी। तभी, लोकतंत्र का लुत्फ़ हमारे बच्चे उठा पायेंगे, जब हम उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे पायेंगे। एक लोकतांत्रिक परिवार ही लोकतंत्र को बचा सकता है। हम दोनों के लिए अर्थव्यवस्था बहुत ज़रूरी है। बिना अर्थ के दुनिया नहीं चल सकती है। पैसों के बिना तो हमारा कारोबार सदियों से चलता आया है। अर्थ के दोनों पहलू को हम समझकर ख़ुद को समझाना ही होगा। अनुशासन या प्रशासन के डर से नहीं, अपने इहलोक को स्वेक्षा से ख़ुद के जीवन के पक्ष में बनाना ही तो हमारे जीवन का मौलिक संघर्ष है। यह संघर्ष हमें रचाना ही पड़ेगा। और उपाय भी क्या है?

मेरे अनुमान से हमारे लोकतंत्र को एक नयी संरचना की ज़रूरत है। अपनी दलीलें और तर्क मैंने लिख दिये हैं। आगे भी लिखता ही जाऊँगा। ज्ञान के साथ-साथ अज्ञानता भी अनंत ही रहेंगी। हमें अपने जीवन के अनुसार इनका चुनाव करना है। लोकतंत्र की यही तो अग्नि-परीक्षा है। जिससे हर चेतना को गुजरना ही पड़ता है। मैं अपनी परीक्षा की तैयारी कर रहा हूँ। आप भी ख़ुद को तत्परता से अपनी परीक्षा में अभिव्यक्त करने का प्रयास कीजिए। भावनाओं या विचारों का खेल नहीं, अवधारणाओं की लड़ाई है, लोकतंत्र। अवधारणाओं की अभिव्यक्ति के लिए ही शिक्षा की ज़रूरत होती है। इन ज़रूरतों को समझते हुए एक नयी शैक्षणिक व्यवस्था की कल्पना से शुरुआत तो की ही जा सकती है। अपने इहलोक की शिक्षा-दीक्षा की ज़िम्मेदारी हमारे बदले और कौन उठाएगा?

कल्पनाएँ असीमित हो सकती हैं। शब्द भी अनगिनत हैं। अभिव्यक्ति की संभावनाएँ भी अनंत हैं। इसी अनंत में अपने अर्थ की तलाश का हमें शुभारंभ करना है। संभवतः मैं ग़लत हो सकता हूँ। मेरा सही होना ज़रूरी भी नहीं है। ज़रूरी तो जीवन है। जीवन की अवधारणा सिर्फ़ और सिर्फ़ वर्तमान में ही संभव है। इसकी उम्मीद हम भविष्य से भी लगा सकते हैं। पर, अपने भूत में जीवन की तलाश अर्थहीन है। अनुमान में ज्ञान की संभावना होती है, तर्कों में नहीं। पर, किसी भी अनुमान के लिए व्याप्ति का होना अनिवार्य है। व्याप्ति के लिए प्रमाण लगते हैं। और इन प्रमाणों की सत्यता के लिए ही तर्कशास्त्र की ज़रूरत होती है। अर्थहीन होकर भी तर्क के बिना अनुमान का ज्ञान संभव नहीं है। ज्ञान के लिए अनुमान की अवधारणा को समझना बेहद ज़रूरी है। मैं ही नहीं यह इस लोकतंत्र का भी मानना है। तभी तो तर्कशास्त्र से कई प्रश्न लोकतंत्र विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं पूछता ही रहता है। पर, ना जाने क्यों लोकतंत्र इसे पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझता है। शायद! अनुशासित, आज्ञाकारी और सदाचारी नागरिकों पर शासन करना आसान पड़ता होगा। तभी तो अज्ञानता का इतना प्रचार-प्रसार लोकतंत्र ही करते रहता है। हमें लोकतंत्र के इस अत्याचार का प्रतिकार करना है। इस महाभारत में सत्य और अहिंसा ही हमारा हथियार बन सकता है। क्योंकि, यह महाभारत कहीं और नहीं हमारे अंदर ही चल रही है। यह अनुमान तो हमें लगाना ही पड़ेगा। इसलिए, अनुमान को समझना ज़रूरी है। यह समझ शायद एक नये शुभारंभ का शंखनाद कर पाये।

11.1: अनुमान की अवधारणा

मेरी जानकारी के अनुसार, भारतीय ज्ञान परम्परा में ‘न्याय’ दर्शन ने अनुमान पर सबसे ज़्यादा शोध किए हैं। ज़ाहिर है, इस संदर्भ में सबसे ज़्यादा निष्कर्ष भी वहीं मिलेंगे। न्याय दर्शन के अनुसार किसी भी अनुमान के पाँच घटक होते हैं। उदाहरण सहित वे कुछ इस प्रकार हैं —

  1. 1.प्रतिज्ञा: वह वाक्य जिसे तार्किक रूप से सिद्ध करना है। जैसे — “पर्वत पर आग है।”
  2. 2.हेतु: वह वाक्य जो कारण देता है। जैसे — “क्योंकि वहाँ धुँआ है”
  3. 3.उदाहरण: यहाँ उदाहरण के साथ व्याप्ति का ज़िक्र होता है। जैसे — “जहां-जहां धुँआ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है। जैसे, चूल्हे में आग होती है, और वहाँ से भी धुँआ निकट है।”
  4. 4.उपनय: व्याप्ति को हेतु को जोड़ने का काम उपनय वाक्य करता है। जैसे — “पर्वत पर धुँआ है।”
  5. 5.निगमन: यही तो वह निष्कर्ष है, जिसकी तलाश तर्कशास्त्र करता है। जैसे — “पर्वत पर धुँआ है, इसलिए वहाँ आग है।”

वैसे, सामान्य व्यवहार में आजकल चूल्हों से धुँआ निकलता ही कहाँ है? यहीं अवधारणाओं की जटिलता हमारे इहलोक में तार्किक बुद्धिजीवी जंग छेड़ देती है। अवधारणाओं की लड़ाई ही तो लोकतंत्र लड़ता आया है। आगे भी लड़ता ही जाएगा। इस तार्किक निष्कर्ष में जिस व्याप्ति का प्रयोग हुआ है, उसमें यह कहीं नहीं बताया गया है कि जहां-जहां आग होगी, वहाँ वहाँ धुँआ होगा। बिना धुँआ के आग हो सकती है। पर, धुँआ बिना आग के नहीं हो सकता है। धुँए की प्रकृति कोहरे से अलग होती है। कोहरा भी बादलों से अलग होता है।

इस लोकतंत्र के कोने-कोने से ही धुँआ उठ रहा है, कहीं-ना-नहीं आग तो ज़रूर लगी होगी।

हमें तो बस अपने इहलोक की आग का अनुमान लगाना है। यह पता किए बिना कि आग आख़िर लगी कहाँ है? कोई आग कैसे बुझा सकता है?

इस अनुमान को लगाने के लिए, हमें धुँए का पीछा करना पड़ेगा। जहां से धुँआ उठ रहा है, आग भी वहीं लगी होगी। मेरे इहलोक में भी अर्थ की आग भड़क रही है। अर्थ के अभाव में ही मेरी चेतना जल रही है। इस अभाव की आग से ही तो हमारे लोकतंत्र की अर्थव्यवस्था झुलस रही है। पेट के साथ-साथ मन की इस आग को बुझाने के लिए ही मेरा इहलोक भटक रहा है। भटकते हुए वह लोकतंत्र तक पहुँचा है। मंज़िल कहीं होती नहीं है। हम जहां रुक जाते हैं, उसे ही हम मंज़िल मान लेते हैं। इसलिए, तो हर किसी की मंज़िलें अलग-अलग होती हैं। हर किसी की आग अलग है, तभी तो हर धुँए का रंग और गंध भी अलग है। एक आग दूसरी से मिलकर बुझती नहीं है, बढ़ती ही जाती है। आज बुझाने के लिए ही हवा-पानी की ज़रूरत है। धरती ही नहीं बचेगी, तो आसमान में त्रिशंकु जैसा हमारा लोकतंत्र कब तक लटका रहेगा?

ज्ञान प्राप्ति के छह तरीक़े हैं, जो हमें भारतीय दर्शन बताता-समझाता है। भारतीय दर्शन का हर पंथ इन सबको ज्ञान का स्रोत नहीं मानता है। वहाँ भी द्वन्द है। एक तो हमारा प्रत्यक्ष है, जिसे हम अपना सत्य मानते हैं। इंद्रियों के माध्यम से यह ज्ञान हमें प्राप्त होता है। यहाँ भी भ्रम और संशय की अनंत संभावनाएँ हैं। क्या रस्सी को साँप समझकर हमें डर नहीं लगता है?

दूसरा, अनुमान है, जो हमें प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचने का रास्ता बताता है। अनुमान के ज्ञान पर ही अज्ञानता का सबसे ज़्यादा प्रभाव पड़ता है। अज्ञानता से अगर कोई हमारा पिंड छुड़वा सकता है, तो अभाव का अनुमान ही यह चमत्कार कर सकता है। अपनी ज़रूरतों का अनुमान हमारे सिवा कोई और भला कैसे लगा सकता है?

तीसरा, उपमान है, जो अनुमान जैसा ही है, बस यहाँ व्याप्ति से ज़्यादा उदाहरण प्रबल हो जाता है। जैसे, नील गाय को की पहचान हम जंगल में पायी जाने वाली गाय के रूप में करते हैं। गाय की प्रकृति के अनुमान से हम नील गाय के ज्ञान तक पहुँच पाते हैं। उपमान से मिले ज्ञान के चक्कर में ही तो मेरे साथ-साथ, मेरा हर चाहने वाला उत्पात मचाये रखता है। अपने इहलोक का उपमान परलोक से कर-कर हम ख़ुद ही ईर्ष्या का पात्र बने हुए हैं। हम ख़ुद से ही ख़ुद में जल रहे हैं। अपने ही बच्चों के लिए भी हर दिन हम नये उपमान क्यों तलाश रहे हैं?

चौथा, अर्थापत्ति है, यहाँ हम अर्थ मान लेते हैं। ‘X’ और ‘Y’ को माने बिना गणित भी ज्ञान की दरिद्रता से कुपोषित हो जाएगा। कुछ चीजों को मान लेने में ही भलाई है। जैसे, हमने अपनी सुविधा के लिए अपने लिए एक भगवान मान लिया है, जिसे हम अपना निर्माता, संरक्षक, और विध्वंसक मान लेते हैं। हर किसी की अपनी मान्यता हो सकती है। क्या लोकतंत्र हर किसी को अपने ज्ञान की अभिव्यक्ति का मौक़ा तक नहीं दे सकता है? क्यों हम एक दूसरे के अर्थ पर आपत्ति दर्ज किए जा रहे हैं? क्या हर किसी का अर्थ मौलिक नहीं हो सकता है? फिर क्यों लोकतंत्र हमसे मौलिकता की अपेक्षा नहीं रखता है?

पाँचवा, शब्द है। मेरी समझ से ज्ञान यहीं आकर बेसहारा हो जाता है। यहीं सवालों से ज़्यादा जवाब ज़रूरी हो जाते हैं। क्योंकि, यह ज्ञान हमें गुमराह करने में पूर्णतः सक्षम है। इसलिए, प्रमाण की सबसे सख़्त ज़रूरत यहीं जान पड़ती हैं। बिना अनुमान के शब्दों से कोई ज्ञान संभव मुझे तो नज़र नहीं आता है। किताबों से ज्ञान की प्राप्ति के लिए ‘शब्द’ को यह दर्जा देना भी ज़रूरी था। अपने-अपने ग्रंथों को स्थापित करने लिए हर धार्मिक पंथ इसी ज्ञान का प्रयोग करता है। सवाल पूछने से यह ज्ञान कम होने लगता है। क्योंकि, शब्दों से अज्ञानता सवाल ही तो नहीं पूछती है। शब्दों पर तार्किक अधिकार के बिना इस ज्ञान की संभावना भी कहाँ है? यह अधिकार विश्वास पर आधारित होता है। यहीं आस्था की भी ज़रूरत पड़ती है। अधिकारों के बंदर-बाँट ने ही तो लोकतंत्र का बँटधार कर रखा है। क्योंकि, लोकतंत्र हमें ख़ुद से भी सवाल पूछने की इजाज़त कहाँ देता है?

तभी, तो मेरे इहलोक के पास बस अभाव या अनुपलब्धि का ज्ञान ही बहुमत में मिलता है। अंधेरे में तो हमारा साया भी हमारा साथ छोड़ देता है। रौशनी का अभाव ही तो अंधेरा होता है। जैसे, ज्ञान की कमी ही अज्ञानता होती है। ऐसे वाक्यों को तर्कशास्त्र ‘पुनरुक्ति’ मानता है। इसमें भ्रम और संशय की कहीं जगह नहीं होती है। सामान्यतः, ‘tautology (पुनरुक्ति)’ का एक बड़ा मज़ेदार उदाहरण तर्कशास्त्र की किताबों में अक्सर मिल जाता है — “All Bachelors are unmarried”, या “हर अविवाहित पुरुष की शादी नहीं हुई होती है।” ऐसे वाक्यों में हम एक ही बात दुहरा रहे होते हैं। हमारा पूरा शब्दकोश इसी पुनरुक्ति से भरा पड़ा है। पर व्यावहारिक जीवन में हमें पुनरुक्ति नहीं, अनुपलब्धि मिलती है। इसलिए, ज्ञान के अभाव का ज्ञान, ज्ञान से भी ज़्यादा ज़रूरी होता है। क्योंकि, यह हमें हमारी अज्ञानता से परिचित करवाता है। एक यही ज्ञान है, जहां प्रमाणों के अभाव को ही ज्ञान मान लिया जाता है। अंधेरे से हम अपनी परछाई का पता नहीं पूछ सकते हैं। अपने ज्ञान के अभाव पर भरोसा किए बिना हम ज्ञानी कैसे कहलायेंगे?

अनुमान की अवधारणा के अभाव ही मेरे इहलोक में खलबली मचा रखी है। मेरा इहलोक मुझे आज तक यही समझाता आया है कि लोकतंत्र विचारों की लड़ाई है। मैं यहाँ तार्किक रूप से मैं अपनी असहमति व्यक्त करना चाहता हूँ। विचारों से हमारा कर्म प्रभावित हो सकता है, पर हमारे व्यवहार पर विचारों का तब-तक कोई असर नहीं होता है, जब तक विचारों के आधार पर हमारी अवधारणाओं में ज़रूरी परिवर्तन नहीं आ जाता है। भ्रष्टाचार की लालसा लिए अगर कोई शिष्टाचार अभिव्यक्त कर रहा है, तो उसके कर्म उसके व्यक्तित्व और व्यवहार की उचित अभिव्यक्ति नहीं कर रहे हैं। लोकतंत्र में शासन प्रशासन हमारे आचार-विचार पर चौकीदार तो बैठा ही सकती है, पर इससे हमारे व्यवहार में कोई अंतर नहीं आ पता है। जिस कारण हमारा इहलोक अनगिनत अनुपलब्धियों का शिकार होता है।

अवधारणाओं के निर्माण में समाज, परिवार के साथ-साथ शिक्षा की भी इस लोकतंत्र में अहम भूमिका होती है। शिक्षा के अभाव से ही यह लोकतंत्र कुपोषित है। इस तथ्य को उजागर करने के लिए ही मैंने अपने इहलोक की व्याख्या ख़ुद के लिए लिखी है। यह तो बस शुभारंभ है। अभी तो अपने जीवन के अर्थ की अवधारणा को शब्द दे रहा हूँ। इसी अर्थ के अध्ययन के लिए ही तो मैंने ‘जीवर्थशास्त्र’ की कल्पना की थी। यहाँ से ‘ज्ञानाकर्षण’ का शुभारंभ होगा। जीवन के ज्ञान की अभिव्यक्तियाँ ही तो अनंत हैं, हर दिन एक नया शुभारंभ है। शुभ-अशुभ की अवधारणा के निर्धारण के लिए ही तो शिक्षा की समाज में तार्किक ज़रूरत है। वरना, अगर पढ़े-लिखे लोग भी भ्रष्टाचार कर रहे हैं, तो शिक्षा कहाँ है? आख़िर क्यों बुद्धिजीवी लोग भी सहमति-असहमति से खेल रहे हैं? विद्रोह कौन करेगा? जीवन के पक्ष में कौन कल्पना करेगा? हमारे इहलोक में जीवन का संचार कैसे होगा?

ख़ुद के लिए मैं कई सारे अनुमान लगता आया हूँ। मेरी कुछ कल्पनाओं को प्रमाण भी मिले, प्रमाणों की तलाश आगे भी जारी रहेगी। अपनी अवधारणाओं और उनकी अभिव्यक्ति के लिए मैंने पाँच आभासी मंच की योजना बनायी है। शिक्षा संबंधी भी कुछ अनुमान मैंने लगाए हैं। कुछ बताये हैं, कुछ की अभिव्यक्ति का रास्ता तलाश रहा हूँ। यह तलाश ही तो मेरे जीवन को अर्थ देती है। जीवन और अर्थ में मुझे कोई ख़ास अंतर नज़र नहीं आता है। यह सवाल भी ख़ुद में एक पुनरुक्ति है — निरर्थक जीवन भी क्या कोई अर्थ संभव है? सवाल में ही जवाब व्याप्त है। ज़ाहिर है, मेरे जीवन के लिए जीविकोपार्जन भी ज़रूरी है। इसीलिए, तो मैं भी अपने इहलोक और उसके तंत्र को संचालित करने की अनंत योजनाएँ बनाता हूँ।

11.2: अनंत योजनाएँ

कल्पनाओं को साकार करने के लिए ही कोई योजना बनाता है। अभाव की पूर्ति की लिए ही लोकतंत्र भी अनगिनत योजनाएँ बनता ही रहता है। सूचनाओं से मिली जानकारी के अनुसार ही तो योजनाएँ आकर लेती हैं। सामाजिक अवधारणाओं की सड़क पर ही तो लोकतंत्र चलता है। इस लोकतंत्र में अपने इहलोक के लिए हम सब अपनी जगह बनाने को ही तो लालायित हैं। तभी तो शायद मेरा इहलोक जाति जनगणना करवाने पर इतना ज़ोर देता है। मेरे अनुमान से मेरे इहलोक की आस्था का केंद्र ही बिगड़ा हुआ है। तभी तो ज्ञान भी जीवन के विपक्ष में खड़ा लोकतंत्र की योजनाओं में शामिल है।

अपने इहलोक की ज़रूरतों को जाने बिना, हम लोकतंत्र की ज़रूरतों का निर्धारण भला कैसे कर पायेंगे। कब तक नीति-निर्धारण केंद्र करता रहेगा। संविधान रचने वालों ने भी यही सपना देखा था कि जल्द ही वह दिन आएगा जब पंचायत राज होगा। दस-दस सालों में आरक्षण की ज़रूरत का अनुमान लगाने की ज़िम्मेदारी संसद को संविधान ने दी थी, इसलिए नहीं कि हर बार संसद इस समस्या को अगले दशक पर टालती जाये। इसके निवारण की ज़िम्मेदारी ही तो शासन और प्रशासन की है। मंदिर-मस्जिद तो व्यापारी और पूँजीपति भी बनवा सकते हैं। वे ही बनवा भी रहे हैं। धन की कालिमा तक धर्म के प्रांगण में नीलम हो रही है। फिर भी लोक चुप है, और तंत्र सत्ता का भोग-विलास करने में लिप्त है। कहाँ तंत्र हैं? और लोक कहाँ है?

आज भी कोई राजा भोज दे रहा है, तो कहीं गंगू तेलू प्रसाद चाट रहा है। यह कैसा कुपोषित लोकतंत्र चल रहा है?

कहाँ हैं गांधी? अंबेडकर कहाँ है?

प्रेमचंद और बच्चन जी भी लोकतंत्र के डर से क्यों दुबके बैठे हैं?

क्या यही आज़ादी का हमारा सपना था?

कहाँ है शिक्षा? स्वस्थ कहाँ है?

लोकतंत्र तो सवाल करने की अनुमति भी नहीं देता है। इसलिए, अपने इहलोक से मैं सवाल करता हूँ। हाँ! जनाब, हाँ! आप भी इसी इहलोक के एक पात्र हैं। मैं आपसे ही सवाल करता हूँ। अपनी बेटी को मैं कहाँ शिक्षा-दीक्षा के लिए भेजूँ?

ज़ाहिर है, मेरे इहलोक के पास भी हर जवाब नहीं होगा। कुछ जवाबों को तराशने की ज़िम्मेदारी भी मैं अपनी मानता हूँ। या तो ज्ञान को मैं आकर्षित करना चाहता हूँ, या किसी परवाने की तरह ज्ञान की लौ पर नित्य-निछावर हो जाना चाहता हूँ। बस, इतनी सी ही मेरी योजना है। अपनी योजनाओं की चर्चा मैं अपने ब्लॉग — https://sukantkumar.com/ पर करता ही जाऊँगा। अर्थोपार्जन के साथ-साथ अपनी जीविकोपार्जन के लिए भी मैं संघर्ष रचने का यहाँ प्रयास करने वाला हूँ। अपनी किताबों को अपने इहलोक तक पहुँचाने के लिए मैंने यहाँ कुछ योजनाएँ बनायी हैं। अपने अर्थ के व्यापार करने की अधिकतर योजना इसी मंच से जुड़ी हुई है। मैं इस मंच पर कर जीविकोपार्जन हेतु प्रयाप्त धन इकत्रित करने का प्रयास करूँगा। अपनी रचनाओं को बेचूँगा, साथ ही दार्शनिक और शैक्षणिक परामर्श देने की योजना भी मैंने बना रखी है।

यहाँ से आगे मैं शैक्षणिक अवधारणाओं के लिए शिक्षा जगत से जुड़े बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर छात्रों तक ज्ञान पहुँचने के लिए मैंने ज्ञानाकर्षण https://learnamics.com/ और DevLoved EduStudio https://devloved.com/ की कल्पना की है। शिक्षा की ज़रूरतों को समझने-समझाने का प्रयास भी रहेगा। दर्शन पर मैं ख़ुद भी कुछ लिखने-बोलने का प्रयास करूँगा। साथ ही विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों के साथ मिलकर मैं सूचनाओं के साथ-साथ अवधारणाओं के संचार हेतु सामग्री बनाना चाहता हूँ। शुरुआत करने के लिए मैं अपने पिताजी से पुनः निवेदन करूँगा। वे हिन्दी विषय के बेहतरीन जानकार हैं। इसके लिए मैंने ‘हिन्दीशाला’ नाम के आभासी मंच की शुरुआत भी की थी। लोकतंत्र की सेवा में उन्हें कभी मेरी कल्पनाओं पर ध्यान देने का समय नहीं मिला। अब, पिताजी सेवा-निवृत भी हो चुके हैं। अब मैं उनसे अपने लिए थोड़ा समय माँगूँगा। ‘हिन्दीशाला’ से भी जीविकोपार्जन के मेरे कुछ सपने जुड़े हैं। उन्हें भी साकार करने की मैं योजना यहाँ बनाऊँगा। उनकी अवधारणाओं को एकत्रित करने का प्रयास करूँगा। वैसे, तो मेरी माँ भी हिन्दी की विशेषज्ञ हैं। उनसे भी मेरी अपेक्षायें हैं। पर, उनकी अवधारणाओं की निश्चितता मुझे ज्ञान से वंचित लगती हैं। मेरी अवधारणाएँ उनके प्रति ग़लत भी हो सकती हैं। इसलिए, मैं अवधारणाओं की जटिलताओं पर उन्हीं से चर्चा करने का भी प्रयास करूँगा। हिम्मत की कमी को समझने और रिश्ते की दरारों को भरने की भी लालसा है। माँ की अवधारणाएँ ही जीवन के लिए बेहद ज़रूरी हैं। माँ की हर बात समझ ही जाता, तो इहलोक में कभी कोई दरिद्र ना होता। अपने इहलोक के लिए नित्य-प्रतिदिन बेहतर कल्पना करने में ही अपने अस्तित्व का अर्थ खोजूँगा।

एक नागरिक होने के नाते एक बेहतर लोकतंत्र की कल्पना करने के लिए भी मैं प्रयासरत रहूँगा। लोकतंत्र की अवधारणा पर अपने इहलोक से संवाद करने का प्रयास करूँगा। इसी ख़ातिर तो, मैंने लोगतंत्र https://लोगतंत्र.com/ की कल्पना की थी। आगे भी अपनी और अपने इहलोक में लोकतांत्रिक अवधारणा को निखारने की कोशिश करूँगा। इस लोकतंत्र में अपने लोगतंत्र के लिए एक जगह बनाऊँगा। लोगों को उनकी लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारियों का एहसास दिलाने का भी काम करना चाहूँगा। हर घर परिवार में लोकतंत्र की स्थापना कि कोशिश भी रहेगी। अपनी बेटी की अवधारणाओं को सिर्फ़ रचने की ही कोशिश नहीं करूँगा। उसकी अभिव्यक्ति को भी फ़ुरसत से निहारने का प्रयास करूँगा। मेरी अवधारणाओं से कहीं ज़्यादा ज़रूरी उसकी अवधारणाएँ हैं। इस ज़रूरत को समझने के लिए ही तो ‘अभिव्यक्तिशास्त्र’ की मदद लेने की मेरी योजना है। जिसकी अभिव्यक्ति की योजना मैंने https://expressophy.com/ के साथ जोड़ रखी है।

ख़ुद की ज़रूरतों का अनुमान लगाते हुए, इस लोकतंत्र की ज़रूरतों का भी अनुमान लगाऊँगा। फ़िलहाल, तो मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या है कि अपनी बेटी की शैक्षणिक ज़रूरतों की पूर्ति मैं कैसे करूँगा?

एक अल्प-विराम लेकर इस पर भी अपने इहलोक से विचार-विमर्श करना चाहूँगा। इस अल्प-विराम में मैं ख़ुद की ज़रूरतों कि बिगड़ी संरचना को एक नया जीवन देने की योजना भी बना रखी है। कुछ नहीं तो मैं प्रयास तो कर ही सकता हूँ। वही करने की आगे भी कोशिश करूँगा। सुना है, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। जीत और जीवन के साथ अर्थ को जोड़कर मैं अपने इहलोक का मैं शृंगार करूँगा। रचना कभी ख़त्म नहीं होती, यहाँ से जीवन का एक नया शुभारंभ होता है। मैं भी शून्य से एक नयी शुरुआत करूँगा। ज्ञान के अभाव से ही जिजीविषा का अनावरण करूँगा।

जीवन कोई जंग नहीं है। अपने अनंत जीवन में मैं तो बस सृजन की कल्पना और उसकी अभिव्यक्ति का प्रयास करूँगा। अपने इहलोक से भी इस शुभारंभ में उनका योग और दान माँगूँगा। करने को और है भी क्या? जब आत्मा अमर है, तो चेतना को भय कैसा? अपने इहलोक और उसके नीति-निर्धारण की अनंत योजनाओं का यहाँ मैं उद्घाटन करता हूँ। यहाँ मैं एक अल्प-विराम लेता हूँ। जल्द मिलेंगे!

Category

Podcasts

Audio file

The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.