Skip to main content
पॉवलोव महाराज का कुत्ता

दिल को मेरे हुआ यक़ीन,

हम पहले भी मिले कहीं,

सिलसिला ये सदियों का,

यह कोई आज की बात नहीं। आज सवेरे भी वही हुआ — जो हर रोज़, हर घर, हर बच्चे और उनके अभिभावकों के साथ होता आया है। मेरी बेटी स्कूल ना जाने की ज़िद पर अड़ गई। सवेरे-सवेरे उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था, ना जाने कौन से मातम छाया हुआ था? उसकी आखों से अनमोल आंसू टपक रहे थे। उसका प्ले-स्कूल में दाख़िला हुए लगभग एक साल गुजर चुका है। शुरुआत के कुछ दिन उसकी माँ क्लास के बाहर बैठी रही। मैं भी था। मैं चोरी छिपे उनकी तस्वीरें उतार रहा था। उस दिन भी वह रो रही थी। आज भी उसका रोना चालू है।

मुझे भी कभी स्कूल या कॉलेज जाना पसंद नहीं आया। अपनी बेटी को ज़बरदस्ती मैं कैसे स्कूल भेजूँ? बचपन स्कूल के आतंक से त्रस्त था, जवानी कॉलेज में नौकरी की तलाश में बेचैन रह गई। स्कूल-कॉलेजों के अहातों से भटकती प्रेत-आत्माओं का साया, कल्पनाएँ, कहानियाँ, भ्रम और ना जाने कैसा-कैसा डर जुड़ा रहा था?

आख़िर, बच्चे क्यों स्कूल नहीं जाना चाहते हैं?

फिर भी उसके माता-पिता उसे स्कूल भेजने के लिए इतने क्यों लालायित हैं?

दोनों को एक-दूसरे का सुख-दुख समझ क्यों नहीं आता है?

बीमारी है। बड़ी गंभीर है। सबको पता भी है। फिर भी कोई कुछ करता क्यों नहीं है? क्या यह कोई लाइलाज बीमारी है?

शायद! तभी तो बेरोकटोक पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। आज भी कोई समाधान जनहित में मौजूद कहाँ है?

मनोविज्ञान के नुस्ख़े तंत्र जानता है। इसलिए, लोक पर आज़माता ही रहता है। ना जाने, मेरा इहलोक किस चमत्कार से आस लगाये बैठा है?

संभवतः, इवॉन पॉवलोव (Ivan Pavlov) का नाम और उनके प्रयोग के बारे में आपने भी कहीं सुना या पढ़ा होगा। उन्होंने चिरप्रतिष्ठित प्रानुकूलन या Classical conditioning पर अपने सिद्धांत दिये थे। उनके मशहूर प्रयोग — Pavlov's Experiment (पॉवलोव का प्रयोग) से यह निष्कर्ष निकलता है कि

शारीरिक और भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को भी इंद्रियों के माध्यम से तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। भावनाएँ सिर्फ़ व्यक्ति-विशेष पर निर्भर नहीं करती हैं। मेरी समझ से भी, अपनी भावनाओं का केंद्र हम ख़ुद नहीं होते हैं। हमारी भावनाएँ मुख्यतः परिस्थिति जन्य होती हैं। वावहारिक स्तर पर चाहकर भी यह संभव नहीं है कि हर परिस्थिति के निर्धारक हम ख़ुद हो जायें। अगर ऐसा होता, तो क्या बात होती? परिवार और समाज हमारी परिस्थितियों का ज़िम्मेदार भी है, और भागीदार भी।

श्रीमान पॉवलोव ने अपने कुत्ते पर प्रयोग किया था। कुत्ते को ख़ाना देने से पहले उन्होंने घंटी बजाना शुरू किया। कुछ ही समय में कुत्ते को यह बात समझ में आ गई कि जब भी घंटी बजती है, उसे ख़ाना मिलता है। एक दिन मुहूर्त निकालकर पॉवलोव भाई ने घंटी तो बजाई, पर कुत्ते को ख़ाना नहीं दिया। बेचारा, कुत्ता लार टपकता ही रह गया। इस प्रयोग को कई मनोवियज्ञानिकों ने दुहराया और इसी निष्कर्ष पर पहुँचे। इसलिए, इसे सिद्धांत का दर्जा दे दिया गया। पॉवलोव महाराज के कारण ना जाने कितने कुत्तों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ हुआ होगा?

ख़ैर, दाम और दंड की नीति तो हमारे शास्त्रों में आदिकाल से मौजूद है। ‘Carrot and stick policy’ का ज़िक्र तो संभवतः हर ग्रंथ का अभिन्न हिस्सा है। “फूट डालो, राज करो”, यह भी कोई आज की बात नहीं! अब, इस लोकतंत्र ने भी इन्हें अपना लिया, तो क्या ग़लत हो गया?

हमारे शास्त्रों में भी किसी के व्यवहार में ऐच्छिक परिवर्तन लाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का प्रयोग करना नैतिक ही माना है। Reward & Punishment की बुनियाद पर ही लोकतंत्र की सामाजिक और शैक्षणिक व्यवस्था आधारित है। हम भी अपने बच्चों के व्यवहार को परिवार और समाज के अनुकूल बनाने के लिए ना जाने कितने हथकंडे अपनाते हैं? मेरे ऊपर भी लोकतंत्र कुछ ऐसा ही प्रयोग करता आया है। तभी तो कुत्ते जैसी अपने सामाजिक जीवन पर मुझे बड़ा तरस आता है। मुझे तो ऐसा लगता है, जैसे सिर्फ़ तंत्र को ही सारे प्रयोग करने का अधिकार है और लोक उसके प्रयोग का बस भुक्तभोगी है। सड़क पर दौड़ी-भागती दुनिया और नाले में बहते कीड़े-मकौड़े की ज़िंदगी, मुझे एक जैसी ही प्रतीत होती है।

पॉवलोव बाबा के ज्ञान का प्रयोग तंत्र लोक पर खुलेआम कर रहा है। जिस स्कूल में मैं अपनी बेटी को पढ़ाने जाता हूँ, वहाँ की प्रधानाचार्य ने संत जोसेफ स्कूल में मुझे भी पढ़ाया था। तब भी मेरे माता-पिता को ताने मारने से तंत्र बाज नहीं आता था। आज भी मेरी खूब खिंचाई होती है। उस प्ले-स्कूल में दाख़िला करवाने में १०,००० रुपये लगे, फिर हर महीने पिताजी से माँगकर १००० रुपये अलग से भरता हूँ। वहाँ पहुँचाने से लेकर अपनी बेटी को वहाँ बिठाए रखने की ज़िम्मेदारी भी हमारी है। तंत्र बस पैसे ले रहा है। बदले में बच्चों को घंटा थमा रखा है। ८ बजे से उसका स्कूल लगता है, ११ बजे छुट्टी। इन तीन घंटों में आधा-एक घंटा तो भजन-कीर्तन (Assembly & Prayer) और प्रसाद वितरण (Tiffin Break) में ही गुजर जाता है। बाक़ी टाइम किसी बच्चे को चुप करने या डाँटने-पीटने में गुजर जाता है। अपने घर के कोने में दो कमरे को क्लासरूम, दो झूले और चार-पाँच खिलौने डालकर तो यह स्कूल चल रहा है। पढ़ाई या खेल ही कब और कहाँ होगा?

तंत्र अपनी इज्जत बचाने के लिए, हमारी चड्डी तक उतारने पर उतारू है। इससे जो थोड़े सस्ते वाले स्कूल मेरे आस-पड़ोस में हैं, उनकी दशा तो और भी बदतर है। ना कोई खुली जगह है, ना ही कक्षाओं में हवा-पानी आने-जाने की कोई गुंजाइश। बच्चों की कल्पना भी यहाँ कैसे निखर पाएगी? किराने या पान दुकान की तरह मेरे आस-पड़ोस में धर्मालय और ट्यूशन सेंटर खुले हुए हैं। उस पर भी प्ले-स्कूल का धंधा अलग चल रहा है।

हम अपने बच्चों को ऐसे स्कूलों में भेजते ही क्यों हैं?

क्योंकि सरकारी शिक्षा-व्यवस्था ना सिर्फ़ दरिद्र और लाचार है, बल्कि हठधर्मी का भी शिकार है। वहाँ तो ना भवन है, ना क्लासरूम, यहाँ तक कि शिक्षकों की भी भारी कमी है। पर, सरकार और प्रशासन ने मिलकर लोक को समझा दिया है कि अर्थव्यवस्था की हालत कितनी दयनीय है? कितनी? — हर जगह ख़तरा है। शरहद पर आतंकवाद है। गली-मुहल्लों में नक्सलवाद। त्योहारों पर भी हादसे होने का डर है। धर्मालयों पर भी पुलिस के साथ-साथ लठैत भी तैनात हैं। देश की ऐसी दुर्दशा में हम और आप सरकार से पढ़ाई और स्वस्थ की अपेक्षा भी कैसे पाल लेते हैं? लानत है! क्या हम ही देशद्रोही हैं?

सिर्फ़, डर पर ही लोकतंत्र नहीं चल सकता है। इसे चलाने के लिए थोड़ी आस्था, श्रद्धा के साथ ज्ञान की भी ज़रूरत पड़ती है। इसलिए, अमृतकाल के अच्छे-दिनों में आत्म-निर्भर हो जाने का ज्ञान भी जनहित हेतु बाँटा जा रहा है। यह आत्म-निर्भरता की नीति भी सिर्फ़ लोक पर ही लागू होती है, तंत्र पर नहीं!

तंत्र भी आत्म-निर्भर क्यों नहीं बन जाता है? पर, तंत्र आत्म-निर्भर बने भी तो कैसे बने?

सरकार ने धीरे-धीरे आमदनी के सारे रास्ते ख़ुद के लिए बंद कर दिये हैं। एक जमाने में पब्लिक लिमिटेड कंपनियों का बोलबाला था। आज तो रेल से लेकर तेल तक सब निजीकरण का शिकार है। लोकतंत्र का मक़सद मुनाफ़ा तो है नहीं। फिर वह धंधा क्यों चलाये? ऐसे में सरकार अगर टैक्स भी नहीं लेगी, तो शासन और प्रशासन कैसे चलेगा?

लोक यह सवाल भी नहीं पूछ पता है कि ऐसी दुर्दशा में शासन प्रशासन की ज़रूरत ही क्या है? जब हर ओर अराजकता ही फैली हुई है!

तंत्र ने ना जाने कितने सवाल ख़ुद से पूछकर, कितने आरोप ख़ुद पर मढ़कर? — सबूत, गवाह और जवाब देने की ज़िम्मेदारी लोक पर छोड़ रखी है। अब लोक को पता ही नहीं है कि जवाब देना है, या सवाल पूछना है।

मेरा इहलोक तो अपनी ज़रूरतों का निर्धारण करने में भी असमर्थ है। सरकार ने शिक्षा और स्वस्थ से अपना पल्ला कब और कैसे झाड़ लिया? किसी को कानों-कान खबर तक नहीं लगी। बौखलाहट में लोक अपने-अपने घरों और चौक-चौराहों पर लोकतंत्र को गालियाँ दे रहा है। कभी इस पर, कभी उस पर, तो कभी ख़ुद पर वह अपनी दुर्दशा का इलज़ाम लगाये जा रहा है। पर वैकल्पिक इहलोक की कल्पना करने की ज़हमत भी कोई क्यों नहीं उठाना चाहता है? हमने बस मान लिया है — ऐसे ही दुनिया चलती आयी है, ऐसे ही चलती जाएगी। किसी तरह अपना टाइम काटकर मोह-माया के इस झंझट से निकल जाना है। जीना इसी का नाम है!

सरकारी स्कूल, जो हमारे ही पैसों से बनी है। ज़रूरत है, तो तंत्र थोड़े और पैसे भी माँग ले। पर शिक्षा अच्छी तो मिलनी ही चाहिए। वहाँ हमें अगर सुविधा नहीं मिल रही है, तो क्या हम अपने प्रतिनिधि को उन स्कूलों में बुलाकर अपने और अपने बच्चों के लिए न्याय नहीं माँग सकते हैं? ज़रूरत पड़े तो एक न्यायाधीश को बुलवा लेंगे।

नहीं, हरगिज़ नहीं!

नेता लोग इतने वेल्ले बैठे हैं क्या?

उन्हें कोई और काम धंधा नहीं है?

तुम बुलाओगे और वे चले आयेंगे?

तुम्हारे बाप के नौकर हैं क्या?

आज तुम्हारे पिताजी बड़े सरकारी विभाग के अधिकारी हैं। तभी इतना उछलते हो ना!

औक़ात है, तो अकेले अपने दम पर यही ज्ञान बाँटकर दिखाओ!

फ़ेसबुक पर जब मैंने यह सवाल किया था, तब कुछ ऐसी ही प्रतिक्रियाएँ आयी थी। अपने इहलोकतंत्र के पहले भाग में शायद मैंने इसका ज़िक्र भी किया था। यह ज्ञान भी मुझे पिताजी के उस विद्यार्थी ने दिया था, जिसने पिताजी का साथ पूरे चुनाव-प्रचार के दौरान ईमानदारी से निभाया था। मुझे अपनी औक़ात याद दिलवाने के लिए मैं उनका आभारी हूँ। मुझे उनसे कोई निजी शिकायत नहीं है। पर मेरे इहलोक की सोच ही यही है।

मेरा इहलोक तो अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में भेजना ही कलंक मानता है। इसलिए, प्राइवेट स्कूलों में दाख़िले की होड़ मची है। जिस स्कूल में मेरी बेटी पढ़ती है, उस स्कूल का सीधा संबंध मेरे संत जोसेफ विद्यालय से है। यहाँ से मिले प्रमाण-पत्र के आधार पर वहाँ दाख़िला मिलने की संभावना बढ़ जाती है। उसकी भी कोई गारंटी नहीं है। पर दुनिया गारंटी पर कहाँ? वह तो उम्मीद पर क़ायम है।

संत जोसेफ विद्यालय से दो बच्चों की अर्थी उठते मैंने पहले भी देखी है। हाल ही में एक चौदह वर्ष की लड़की के बलात्कार का मामला भी सामने आया है। फिर भी अभिभावक ऐसे स्कूलों में अपने बच्चों का दाख़िला करवाने के लिए दर-ब-दर भटक रहे हैं। सुना है बिना चिट्ठी-पैग़ाम या माल-पानी खर्च किए वहाँ भी दाख़िला नहीं मिलता है। मिल भी गया, तो महीने की फ़ीस के साथ-साथ जूते, कपड़े, किताब का खर्चा अलग से। गलती से अगर स्कूल की संपत्ति पर कोई नुक़सान हो गया, या उसकी इज्जत अबरू पर कोई आँच आ गई, तो अभिभावक उसका भी हर्जाना उठाने को तैयार बैठे हैं। उसके बाद भी अगर बच्चे पढ़ाई में कमजोर रह गये, तो उसी स्कूल के शिक्षक अलग से अपने-अपने घरों पर ट्यूशन भी देते हैं। उसका खर्चा भी उठाने को लोक कितना तत्पर है?

पैसे से कोई ज्ञान नहीं ख़रीद सकता है। पर, डिग्री तो मिल ही सकती है। इसलिए, लोक अब सीधे डिग्री पर ही निशाना साधे खड़ा है। आप ही बताइए, क्या आप अपनी मर्ज़ी से कभी स्कूल, कॉलेज गये हैं? शायद गये भी होंगे, कैसा महसूस होता है?

यह बात तो साफ़ है कि अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने को क्यों तत्पर हैं? पढ़ाई नहीं, ना सही, डिग्री ही तो ज़रूरी है। डिग्री नहीं, तो नौकरी नहीं। नौकरी के बिना कैसा पद, कौन सा पैसा और कैसी प्रतिष्ठा?

अपने बच्चों को आत्म-निर्भर बनाना ही तो हर माता-पिता की बुनियादी ज़िम्मेदारी है। इतना प्यार तो बंदर भी अपने बच्चों से करता है। चलिए, पहले सवाल का मोटा-मोटी जवाब मिल ही गया है कि बच्चों को स्कूल भेजने के लिए लोकतंत्र क्यों उतावला है? लोक को नौकरी चाहिए और तंत्र को नौकर। अब उसी सवाल के दूसरे पहलू पर भी थोड़ा मंथन कर लेते हैं।

कोई बच्चा स्कूल क्यों नहीं जाना चाहता है?

मनोविज्ञान ने मन को समझने के लिए कड़ी तपस्या की है। ना ही पॉवलोव पहले मनोवैज्ञानिक थे, ना ही वे आख़िरी होंगे। उनके बाद भी एक के बाद एक मनोवैज्ञानिक सिद्धांत आते चले गये, जो कई मानसिक प्रक्रियाओं और प्रतिक्रियाओं को समझने-समझाने की कोशिश करते हैं। कई चिंतकों, दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों के योगदान के आधार पर ‘Game Theory’ का प्रतिपादन किया गया है। विकिपीडिया के अनुसार इसकी बुनियादी व्याख्या कुछ इस प्रकार है -

“खेल सिद्धांत या गेम थ्योरी (game theory) व्यवहारिक गणित की एक शाखा है जिसका प्रयोग समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, जीव विज्ञान, इंजीनियरिंग, राजनीति विज्ञान, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, कम्प्यूटर साइंस और दर्शन में किया जाता है। खेल सिद्धांत कूटनीतिक परिस्थितियों में (जिसमें किसी के द्वारा विकल्प चुनने की सफलता दूसरों के चयन पर निर्भर करती है) व्यवहार को बूझने का प्रयास करता है। यूँ तो शुरू में इसे उन प्रतियोगिताओं को समझने के लिए विकसित किया गया था जिनमें एक व्यक्ति का दूसरे की गलतियों से फायदा होता है (ज़ीरो सम गेम्स), लेकिन इसका विस्तार ऐसी कई परिस्थितियों के लिए करा गया है जहाँ अलग-अलग क्रियाओं का एक-दूसरे पर असर पड़ता हो। आज, "गेम थ्योरी" समाज विज्ञान के तार्किक पक्ष के लिए एक छतरी या 'यूनीफाइड फील्ड' थ्योरी की तरह है जिसमें 'सामाजिक' की व्याख्या मानव के साथ-साथ दूसरे खिलाड़ियों (कम्प्युटर, जानवर, पौधे) को सम्मिलित कर की जाती है।”

इसी सिद्धांत के अन्तर्गत “variable reward psychology” भी आती है। जो हमें जुए की लत, या नशे की आदत को समझने में मदद भी करती है। इसके अनुसार अगर किसी क्रिया और प्रतिक्रिया का अनुमान पहले से किसी तार्किक प्राणी के पास मौजूद है, तो वह व्यक्ति उस क्रिया को करने में दिलचस्पी लेने में स्वाभाविक रूप से असमर्थ रहेगा। लेकिन, अगर परिणाम का अनुमान पहले से ना हो, तो रोमांच की भावना सक्रिय होती है, जिसके कारण व्यक्ति अपनी क्रिया और प्रतिक्रिया के प्रति सजग होने लगता है।

हर दिन एक ही परिणाम के लिए काम, भला कौन करना चाहता है?

फिर भी, हर दिन जुआरी उतनी ही तन्मयता के साथ अपनी क़िस्मत आज़माता है, जितनी मायूसी के साथ कल वह हारकर अपने घर लौटा था। हर नशेड़ी अपनी आदत से तबाह रहता है। उसे भी पता है कि तंबाकू से कैंसर होता है। शराब पीने से जिगर और गुर्दे ख़राब हो जाते हैं। तंत्र ने कैंसर से बिगड़ी भयभीत कर देने वाली तस्वीरें तंबाकू-उत्पादों पर चिपका रखी है। पर, उनका व्यापार और सेवन दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। हर रात सोने से पहले और सवेरे उठने के बाद, हर जुआरी और नशेडी ख़ुद से वादा करता है - “कल से पक्का नहीं”, “आज तो बिलकुल भी नहीं”, पर ना उसका कल कभी आया है, ना ही आज कभी आता है। हर शाम वह जिस भी राह को पकड़े दिन भर चलता है, शाम को उसकी मंज़िल मधुशाला पर ही आकर रुक जाती है। क्यों? किसी भी लत को छोड़ पाना क्या इतना कठिन होता है?

मैंने जुआ तो बहुत नहीं खेला है। कम ही मौक़ा मिला था। पुणे में जब मैं अपने दोस्तों के साथ रहा करता था। तब, हम लोगों ने नशे के साथ जुआ खेलने का भी इंतज़ाम किया था। खुदरे पैसों को हम सहेज कर रखते थे, शाम को बियर या गंजा पीते हुए, उन पैसों को हम दांव पर लगा देते थे। वह जुआ कम और मनोरजन ज़्यादा था। क्योंकि, अंत में कोई जीतता या हारता नहीं था। सारे पैसे वापस उसी गुल्लक में चले जाते थे, जहां से वे आये थे। जिन पर अगले दिन फिर बाज़ी लगती थी। फिर भी अगले दिन की शाम का हमें बेसब्री से इंतज़ार रहता था। जुए में पैसा जीतने या हारने से ज़्यादा ज़रूरी अपनी क़िस्मत की खोटे सिक्के को आज़माने की ललक प्रबल रहते है।

नशे और जुए के साथ “variable reward psychology” जुड़ी हुई है। नशे की दशा में हमारा व्यवहार अनिर्धारित हो जाता है, क्योंकि चेतना में संतुलन की कमी आ जाती है। हर दिन अपने नशे से नशेड़ी नयी उम्मीद पाल बैठता है। इसलिए भी पीकर गाड़ी ना चलाने की सलाह लोकतंत्र हमें देता रहता है। हेलमेट ना पहनने से लेकर पीकर गाड़ी चलाने का हर्जाना हम भुगतते ही आये हैं। जब नया कुछ होता नहीं है, तब हमें अपने भ्रम पर ही भरोसा होने लगता है। “ज्ञान पर संशय और अज्ञानता पर भरोसा” — सबसे ख़तरनाक और लगभग लाइलाज बीमारी है। इसे एक प्रकार का मानसिक कैंसर भी माना जा सकता है। जो अब व्यक्ति-विशेष से उठकर सामाजिक स्तर पर संक्रामक बीमारी का रूप धड़ चुका है। कल का कैंसर, अब कोरोना बन चुका है।

किसी भी काम को बार-बार करने से अगर कोई हर बार अनूठी अपेक्षायें पालता है, तो वह एक नशेड़ी होता है। भ्रम के इस कैंसर का इलाज हो सकता है। पर, उस इलाज का खर्च उठाने को लोकतंत्र तैयार ही नहीं है। ज्ञान से भ्रम दूर होता है, और व्यक्ति-विशेष में ज्ञान के विकास की ज़िम्मेदारी समाज और ख़ासकर शिक्षा-तंत्र की होती है। लोकतंत्र में शासन-प्रशासन की ज़िम्मेदारी तो सिर्फ़ अर्थव्यवस्था चलाने की होती है, जिसके लिए भ्रम की आग में तंत्र ही अफ़वाहों का घी डाल रहा है। फिर, सांप्रदायिकता और अलगाववाद का मसाला डालकर, छौंक-पकाकर लोकतंत्र की दावत का लुत्फ़ हमारे प्रतिनिधि और लोक-सेवक उठा रहे हैं। हर दिन राजनैतिक पार्टियों के कार्यालयों में पार्टियाँ चल रही है। जश्न मनाया जा रहा है। हमारे प्रतिनिधि मौक़े अनुसार कपड़े ही बदलने में लगे हुए हैं। इधर, लोक बीमार और त्रस्त है। उसे ही उसकी बीमारी का कारण और इलाज बताकर, तंत्र अपने चुटकुलों पर अपनी ही पार्टियों में ठहाके लगा रहा है।

स्कूल-कॉलेजों में बचपन से लेकर जवानी तंत्र के चंगुल में फंसी हुई है। उनकी हालत पर किसी को तरस नहीं आता है। उनके अपने माता-पिता तक को नहीं, जो दावा करते हैं कि अपनी संतानों के लिए उन्होंने क्या-क्या नहीं किया? तंत्र से मिले प्रमाण-पत्रों के आधार पर अपने ही बच्चों की औक़ात नापना, कहाँ की बुद्धिमानी है? इधर, बेचारे बच्चे कितने अकेले पड़ गये हैं? क्या उनकी सुनने वाला लोकतंत्र में कोई नहीं है?

अपने इहलोक की जो दशा मैंने देखी है। उससे तो चेतना घबरायी ही फिरती है। तंत्र हमारे माँ-बाप को ताने मार रहा है। पर, तंत्र यह ताने भी लिखित में मारता है। हमारे रिपोर्ट कार्डों पर हमारी औक़ात लिखी होती है। मेरे इहलोक के हर माता-पिता पढ़े-लिखे तक नहीं हैं, उनसे ज्ञानी होने की अपेक्षा भी कैसे पालूँ? मैंने तो उन्हें तंत्र के चक्कर में अपने ही बच्चों पर बिगड़ते-झगड़ते अपनी आखों से देखा और अपनी चेतना से झेला भी है। बच्चे बेचारे अकेले रह जाते हैं। कुंठित बचपन शरारती नहीं, शैतान होता है। घुट-घुटकर जीवन की आकांक्षा भी अपना दम तोड़ देती हैं। इस घुटन में ही तो भ्रष्टाचार का जन्म होता है। जब ऐसे आचार-विचार ही लोकतंत्र की नसों में दौड़ रहे हैं, तब लोक को शोषण की बीमारी से भला कौन तंत्र बचा पाएगा?

हर रोज़ एक ही प्रकार के कर्मकांड कर अगर कोई हर दिन नयी-नयी अरज़ियाँ लेकर धर्म की चौखट पर पाखंड निभा रहा है, तो क्या वह नशेड़ी नहीं है? हर किसी के लिए उसका नशा नैतिक ही होता है। धर्म की नशीली प्रवृति के बारे में हमें कई चिंतकों ने पहले भी सचेत किया था। पर, यहाँ तो हम नशे में जीवन तलाश रहे हैं। हमें अभूतपूर्व जिज्ञासा रहती है कि हमारा नशा हमारे साथ आज क्या करेगा? क्या आज जुए की बाज़ी हम जीत पायेंगे? वर्षों पुरानी हमारी प्रार्थनाएँ क्या आज क़बूल हो जायेंगी?

ऐसे ही सवालों का जवाब ढूँढने हर चेतन-प्राणी यहाँ-वहाँ भटक रहा है। तंत्र ने बखूबी मनोविज्ञान के इस तथ्य को लोक पर आज़माया है। व्यापार जगत हर दिन मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों को विभिन्न रूपों में प्रयोग करता ही रहता है। कभी इनाम का लालच, तो कभी दंड का दवाब, यही हमारे व्यवहार को नियंत्रित करने का लोकतंत्र का हथियार है। हर व्यापारी इनाम का लालच नहीं दे पाता है। वैसे व्यापारी दंड और डर का उपयोग करते हैं। राजनीति से लेकर शिक्षा और प्रशासन का धंधा डर की छत्रछाया में ही तो फल-फूल रहा है।

तंबाकू से कैंसर हो ही जाता है, इस बात का कोई सबूत नहीं है। हर व्यक्ति जो तंबाकू का सेवन करता है, वह कैंसर से नहीं मरता है। पर, तंत्र इस तथ्य का नाजायज़ उपयोग करते हुए नशे के व्यापार पर पाप-कर वसूल कर मालामाल हुए जा रहा है। दो कौड़ी की बीड़ी भी बीस रुपये में तंत्र की कृपा से ही तो बिक रही है। इधर, चरस-गाँजे का व्यापार पर तंत्र की निगरानी में ही तो चालू है। आत्म-ग्लानि के साये में पलता बचपन और आत्महत्या के फंदे से झूलती जवानी को नशे का शिकार होने से भला कौन रोक पाएगा? जब तक हम बच्चों को पढ़ने ऐसे भेजते रहेंगे कि सफलता का नशा उनके सिर चढ़कर बोले, मधुशाला से उनका याराना यूँही उनका साथ निभाता जायेगा। वे बच्चन साहब की मधुशाला भी कम ही पहुँच पाते हैं, उसके पहले ही मदिरालय का दरवाज़ा उन्हें बुला लेता है। वरना, मधुशाला में तो जीवन ही हाला है। वहाँ कोई बीमार नहीं होता, कई बीमारों का भी इलाज मधुशाला से संभव है। असफल सिर्फ़ वे ही छात्र होते हैं, जो जीवन की मधुशाला का साथ छोड़, मृत्यु के मदिरालय का हाथ थाम लेते हैं। पर हर जगह जीवन ही ज़रूरी नहीं होता है। मृत्यु का होना भी जीवन के लिए अनिवार्य है। मृत्यु कभी हमारा वर्तमान नहीं हो सकती है। एक बेहतर इहलोक की कल्पना से जूझते वर्तमान में ही जीवन की संभावना बढ़ती जाती है। वरना, मृत्यु की कल्पना करता वर्तमान भी कौन सा ज़िंदा है?

मैंने तो कई ऐसे लोगों को भी कैंसर से मारते देखा है, जिन्होंने कभी शराब, तंबाकू या मांस-मदिरा को हाथ तक नहीं लगाया। साथ ही कई ऐसे बुड्ढों को भी देखा है, जो ना जाने कबसे कहीं बीड़ी सुलगाते हैं, तो कभी खैनी लटाते गाँव-घरों में मिल ही जाते हैं। मेरे दादा, दादी दोनों ही बीड़ी के शौक़ीन थे। मेरे बड़े पापा और चाचाजी भी सिग्रेट-दारू का शौक़ फ़रमाते थे। चाचाजी ने तो परिवार में घोषणा भी कर दी थी, कि उन्होंने सिग्रेट छोड़ दी है। उसके बाद भी पान की गुमटी के पीछे मैंने उन्हें सिग्रेट का धुँआ अपनी चौड़ी छाती में भरते और मुँह से छोड़ते देखा है। मैं भी वहाँ तंबाकू ख़रीदने ही पहुँचा था। मैंने उन्हें देखकर रास्ता तो बदल लिया, पर मंज़िल आज भी वही है। जिस डॉक्टर साहब ने मुझे बचपन से हर पीड़ा को दूर किया था, वे पान का शौक़ फ़रमाते थे। हर कोई अपना-अपना शौक़ पूरा कर रहा था। मैंने भी अपने लिये कई शौक़ पाल लिए। दोस्तों के साथ जिस भी प्रकार के नशे का सेवन करने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ, मैंने खुली बाहों से उसका स्वागत ही किया है।

मेरी बेटी के स्कूल की प्रधानाचार्य और मेरी पूर्व-शिक्षिका ने एक दिन मुझसे कहा था - “बच्चों को स्कूल की आदत दिलवाने की ज़िम्मेदारी तो अभिभावकों की होती है। उन्हें यहाँ लाना, बैठाये रखना तो उनके माता-पिता को ही करना पड़ता है। अब होमवर्क हम स्कूल में तो करवा नहीं सकते हैं। वो भी अगर बच्चे नहीं करेंगे, तो हम क्या कर सकते हैं?”

मैंने भी पूछ दिया था - “तो मैडम, स्कूल की ज़िम्मेदारी क्या होती है? सिर्फ़ पैसे लेने की?”

मैडम का मुँह बन गया था। आज भी मैं उनका ग्राहक ही था। हमें स्कूल ऐसे भेजा जाता है, जैसे कोई हमें नशा करना सीखा रहा हो। शराब का स्वाद किसे अच्छा लगा होगा? आज भी जब गले से पहला घूँट उतरता है, तो चेतना सिहर उठती है। उसे सिहरता देखकर मुझे अच्छा लगता है। बेचारी ने ना जाने कितने मौक़ों पर मुझे सिहरने और सिसकने का मौक़ा तक उसने नहीं दिया था। स्मृतियों में अक्सर कुंठा प्रबल होती है। क्योंकि, दुख-दर्द याद रखना आसान होता है। क्योंकि, दिमाग़ का जैविक काम हमें ख़तरों से दूर रखना है। बुद्धि इस रूप में हर प्राण में मौजूद है। दुख-दर्द से ख़तरे की बास आती है, जो हमारे OldBrain के लिए बड़ी प्रिय होता है। वह हर जगह ख़तरे को भाँपने में लगा ही रहता है।

अब यह तो हमारा दोष ही नहीं हो सकता है कि स्कूल-कॉलेजों में हमें ख़तरे का बोध होता है। चार-पाँच साल के मासूम बच्चों को क्या पता स्कूल क्या होता है? फिर भी वह वहाँ क्यों नहीं जाना चाहता है?

क्या स्कूल जाने या ना जाने की आदत होती है? क्या ऐसी आदत अच्छी होती है?

समाज ने अच्छे और बुरे का निर्धारण पहले ही कर दिया है। कुछ नये की गुंजाइश भी यहाँ कहाँ है?अपनी ज़रूरतों का निर्धारण करने को भी हम स्वतंत्र कहाँ हैं?

ख़ैर, हमने भी अपने बच्चे को यह ज़रूरी आदत डलवाने के लिए तत्कथित Reward एंड Punishment पॉलिसी का प्रयोग किया। उसकी माँ ने खिलौने ख़रीदकर उसकी मैडम को दिया कि छुट्टी के समय वे आर्ची को दे दें, ताकि अगले दिन उसे स्कूल आने का मन भी करे। पर नहीं! अगली सुबह भी वही चिरपरिचित नौटंकी।

फिर, मैं गुस्साया। उसे डाँटा, फटकारा। डर से चुपचाप अंदर ही अंदर वह उसी तरह सुबकती रही, जैसे बचपन में मैं रोया करता था। स्कूल-कॉलेजों में हमारी हलात धोबी के कुत्ते जैसी हो जाती है। ना हम घर के रह जाते हैं, ना ही हमें कोई घाट मिल पाता है। जिस भी घाट पर हमारा बेड़ा पार होता है, वहाँ हमारी दशा पॉवलोव महाराज के कुत्ता की तरह हो जाती है। हमें कभी यहाँ घंटी सुनायी देती है, तो कभी वहाँ। हर जगह हम लार टपकाते चले जा रहे हैं।

आज वहाँ सत्संग है, प्रसाद मिलेगा, चलो!

आज वहाँ चुनावी रैली है, शराब बाँट रही है, चलो!

आज हम जुलूस निकालेंगे, न्याय माँगेंगे, चलो!

आज तक वेतन नहीं मिला है, हड़ताल करेंगे, चलो!

आज महोत्सव है, बलि चढ़ेगी, चलो!

आज पार्टी है, पता नहीं क्या मिलेगा? चलो!

पता नहीं, कहाँ, पर चलो!

तंत्र ने हमारी दुर्दशा देखकर Constant Punishment या सतत सजा की नीति अपना ली है। उससे तो अब Variable Reward की उम्मीद तक समाप्त हो चुकी है। क्या तंत्र ज्ञानार्जन, जीविकोपार्जन और अर्थोपार्जन के लिए पॉवलोव महाराज के कुत्ता से आगे बढ़कर गेम थ्योरी को नहीं अपना सकता है?

स्कूल के बारह सालों में सब कुछ निर्धारित था। कब जाना है? कितना रहना है? कब छुट्टी होगी? क्या पढ़ाई होगी? कब परीक्षा होगी? कब कुटाई होगी?

हमारे सामाजिक जीवन का लगभग हर पहलू पूर्व-निर्धारित है। ना हमने अपने लिए अपने परिवार को चुना था, ना पड़ोस को, ना स्कूल को, ना ही शिक्षा को, तो रोज़गार भी हम कैसे कर पायेंगे?

VideoEssay

Podcasts

Audio file

The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.