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इहलोकतंत्र (भाग - 4)

बैठा-बैठा अब मैं ऊब चुका हूँ। समय अपनी गति से बहुत धीरे चलता प्रतीत होता है। ऐसा लगता है, जैसे जीवन में अब कोई इंतज़ार नहीं बचा है। लगता है, अब कोई ज़रूरत शेष नहीं है, जिसे पूरी करने के लिए मेहनत करूँ। मेरा अस्तित्व बोझिल हो चला है। कहीं भाग जाने का मन करता है। कहीं दूर, इतनी दूर जहां से कभी मैं लौट ना पाऊँ। जहां से मेरी याद भी ना लौट पाए। मुझे कहीं नहीं लौटना है। कहीं आना-जाना भी नहीं है। मैं जहां भी रहूँगा, मेरा मन बेचैन ही रहेगा। हर समय हर जगह से वह कहीं दूर भाग जाना चाहता है। उसे अपनी इस चाहत से भी डर लगता है। बड़ा डरपोक मन है। ख़ुद के डर से ही ख़ुद से कहीं भाग जाने की फ़िराक़ में व्याकुल रहता है। पर, सवाल है — भागकर जाना कहाँ है?  

आप सब से विनम्र निवेदन है कि मेरी इस चिट्ठी को एक बार ध्यान से पढ़ने का कष्ट करें। इसमें लिखा अनुमान हमारे बच्चों के नज़दीकी भविष्य को बुनायदी ख़तरों से मुक्त करवाने में संभवतः सहायक की भूमिका अदा कर सकती है। हद से ज़्यादा यही होगा कि आपके जीवन का कुछ बहुमूल्य लम्हा मैं चुरा ले जाऊँगा। अपना बड़पन दिखाते हुए, आप मुझे माफ़ करने का कष्ट कीजिएगा, जिसके लिये मैं आपका तहे दिल से आभारी रहूँगा।

ख़ुद को अभिव्यक्त करने हेतु मैंने कुल मिलाकर ४,५१,७३४ शब्द लिखे हैं, जिसे पढ़ने के लिए किसी का कम-से-कम एक दिन तो खर्च हो ही जाएगा। साहित्य है, पढ़ने लायक़ तो होगा ही। कुछ क़िस्से हैं, कुछ कहानियाँ भी, कवितायें भी हैं, कुछ सा संस्मरण भी। थोड़ा विज्ञान भी है, थोड़ा मनोविज्ञान भी। दर्शन तो हर कहीं है, यहाँ भी अगर उससे भेंट हो गई, तो क्या नया हो गया? इस चौथे खंड में एक यात्रा है, और उसका वृतांत भी। मज़े लीजिए!

मानिए ना मानिए हम सब ही इस लोकतंत्र के नायक ही नहीं, अधिनायक भी हैं।

आपके साथ का अभिलाषी,            
सुकान्त कुमार।

#लिखता_हूँ_क्योंकि_मैं_अपनी_बेटी_से_प्यार_करता_हूँ

 

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इहलोकतंत्र (भाग - 5)

यह मेरी छठी किताब है। पहली किताब अंग्रेज़ी में थी। बाक़ी चार मैंने हिन्दी मेंइहलोकतंत्रके विभिन्न भागों के रूप में लिखी हैं। उसी श्रृंखला का यह पाँचवाँ भाग है। इस भाग में भी मैं आपका आभार व्यक्त करता हूँ। इससे पहले कि हम इस खंड के साहित्य को आगे बढ़ायें, मुझे लगता है कि अब तक के पठन-पाठन का सारांश लिख लूँ। आपके लिये ना सही, मेरे लिये ऐसा करना ज़रूरी है। ज़रूरी है, तभी कर भी रहा हूँ। चलिए, एक नये तरीक़े से इस भाग का आरंभ करते हैं। आपने आर्य-सत्य के बारे में तो सुना ही होगा। वही जिसकी चर्चा सिद्धार्थ करते हैं। चार आर्य सत्य इस प्रकार हैं:

पहला आर्य सत्य: यथार्थ दुख

दूसरा आर्य सत्य: दुख का यथार्थ कारण

तीसरा आर्य सत्य: दुख का यथार्थ रोधन

चौथा आर्य सत्य: चित्त का यथार्थ मार्ग

मैं अपने संदर्भ में अपने आर्य-सत्य का विश्लेषण करता हूँ। इस तरह से मैं अपने अब तक के निष्कर्ष पर भी पहुँच जाऊँगा। मैंने कई प्रयोग किए, कुछ ख़ुद के साथ, कुछ अपने इहलोक के साथ, परिणाम अभी तक नकारात्मक ही आया है। इसलिए, बेहतर प्रयोग की रूप-रेखा बनाने हेतु मैं अब तक के प्रयोग और परिणाम को अपने सामने रखना चाहूँगा। आख़िर! रोज़गार से मैं एक लेखक हूँ, एक बेरोज़गार दार्शनिक! तो चलिए शब्दों में एक नया दर्शन तलाशने की कोशिश करते हैं। मैं आपका भी आभारी हूँ, आख़िर अपनी चेतना में आप मुझे जगह दे रहे हैं। स्वेक्षा से ही स्वराज संभव है। कोई स्वराज हमारे ऊपर आरोपित कर भी नहीं सकता है। यहाँ मैं अपना स्वराज रच रहा हूँ। बिना ख़ुद को जाने कोई रच कैसे सकता है?

#लिखता_हूँ_क्योंकि_मैं_अपनी_बेटी_से_प्यार_करता_हूँ