मेरा एक सहपाठी मित्र है, जो अब मुझसे बात नहीं करता। पेशे से वह वकील है। उसने देश के सबसे अच्छे केंद्रीय महाविद्यालय से वकालत की पढ़ाई की, फिर कुछ साल इस देश के सर्वोच्च न्यायालय में उसने प्रैक्टिस भी की। फ़िलहाल वह देश के समृद्ध महाविद्यालय के निजी कॉलेज में व्याख्याता है। बच्चों को न्याय पढ़ाता है। वह बताता है कि उसके महाविद्यालय में देश के संभ्रांत घरानों के कौन कौन से बच्चे पढ़ते हैं। कई लाख रुपयों की सालाना फ़ीस है। एक आम आदमी की इतनी औक़ात ही नहीं है कि अपने बच्चों का नामांकन करवाकर, किसी अच्छे निजी स्कूल में पढ़ा सके। बच्चों को पढ़ाने में ज़मीन-जायदाद नीलम करने को मजबूर लोक जय-जयकर कर रहा है। पागल है क्या?
मेरी बेटी स्कूल जाना चाहती है। पर मैं इस देश में एक ऐसी शैक्षणिक संस्थान का अनुमान नहीं लगा सकता हूँ, जो मेरी चार साल की बेटी को पढ़ाने लायक़ है। जिस स्कूल में मेरी शिक्षा-दीक्षा हुई वहाँ पिछले शिक्षक दिवस के अवसर पर दो शिक्षकों ने एक चौदह साल की बेटी का बलात्कार किया। लोक तमाशा देखता रह गया। किसी के मुँह से एक आवाज़ नहीं निकली। लानत है इस लोकतंत्र पर! उस विद्यालय का प्रधानाचार्य फ़रार है। पर स्कूल में नामांकन चालू है। लोक अपने बच्चों को वहाँ भेजने को लालायित है। कैसा विकल्पहीन लोक है?
उस विद्यालय में नामांकन के ६०,००० या उससे भी अधिक पैसा लिया जाता है। उसके बाद महीने की फ़ीस अलग, बस का किराया अलग, किताबें भी अलग से, यूनिफार्म भी अलग, पेन, पेंसिल से लेकर ट्यूशन भी अलग से! मैं यह सब झेलकर आया हूँ। सुना मैंने अपने माता-पिता से कि जब घर की आमदनी ११,०० रुपये थी, तब ६००-७०० रुपये मेरी पढ़ाई में लगते थे। आज तो लाखों-करोड़ों रुपये लग जाते हैं, उसके बाद भी डिग्री अलग से बाज़ार में बिकती है। नौकरी के लिए हुनर की ज़रूरत भी नहीं है, एक डिग्री, एक पहचान पत्र, कुछ नगदी, और थोड़ी शिफ़ारिश से ही आमदनी शुरू हो जाती है। रोज़गार गया तेल लेने, घंटा बजकर मोक्ष को तरसते इस लोकतंत्र पर मुझे तरस आता है। मैंने अपनी बेटी के नामांकन के लिये कोई कदम नहीं उठाया, क्या मैं एक नालायक पिता हूँ?
शायद! पर मैं अपनी बेटी के लिए एक स्कूल बनवाना चाहता हूँ। जहां हर कोई पढ़ सके, मेरा घर, परिवार और पड़ोस मिलकर वह स्कूल चलाये। कल ही मेरे घर पर चंदा माँगने कुछ लोग आये। दो वृद्ध थे, दो जवान, आकर कहते हैं - “शनि भगवान का मंदिर बनवाने के लिए चंदा माँगने आये हैं। कुछ दीजिए!”
उनकी आवाज़ और हाव-भाव में ना कहीं आस्था थी, ना ही कोई शर्म, वे भीख ऐसे माँग रहे थे, जैसे अपना अधिकार माँग रहे हों। पूरे शान से चंदा माँग रहे थे। मैंने कड़े स्वर में बोला - “इसके पहले मैं अपना आपा खो बैठूँ मेरे आँगन के प्रांगण से निकल जाइए।”
वृद्ध व्यक्ति ने दंभ भरा, कहा - “कैसा पापी है, भगवान के नाम पर आपा खोता है। माता-पिता ने तमीज़ नहीं सिखायी।॰॰॰”
अब तो उन्होंने कांड कर दिया था। अब मैं भी कहाँ रुकने वाला था, आवाज़ बुलंद की, जितना जोश था सब लगा दिया, मैं चिल्लाया - “नहीं! उन लोगों ने कोशिश की थी। पर मैं नालायक निकला, ये पाखंडी संस्कार नहीं सीख पाया। वे कोशिश कर रहे हैं कि अपनी पोती को भी तमीज़ सिखायें, पर मैं अपनी बेटी को आप जैसा ही बदतमीज़ बनाना चाहता हूँ। ताकि वो भी आत्म-सम्मान से अपना हक़ इस लोकतंत्र से माँग सके, जैसे आप यहाँ चंदा माँगने आये हैं। क्या कमी है मंदिरों की, घर से निकलते ही यहाँ फ़लाना-वहाँ ढिकाना भगवान का मंदिर बना हुआ है। कॉलेज से सामने दोनों तरफ़ मंदिर हैं। क्लास से ज़्यादा छात्र इन मंदिरों में जाना पसंद करते हैं, क्योंकि उनकी जिज्ञासा मिटा पाये ऐसे शैक्षणिक संस्थान नहीं हैं,॰॰॰”
मेरी बात ख़त्म नहीं हुई थी, उनके चेहरे ग़ुस्से से लाल हुए जा रहे थे। मुझे रोकने, टोकने और गलियाने का मौक़ा ढूँढ रहे थे। पर मैंने दिया ही नहीं, बोलता चला गया - “जो नहीं मिलता वह ज्ञान है, स्कूल है, आप अगर एक स्कूल के लिए चंदा माँगने आये होते तो मैं भी दिलचस्पी लेता। वहाँ आपके बच्चे भी पढ़ते, मेरे बच्चे भी, इस प्रोफेसर कॉलोनी के बच्चों की भी क़िस्मत चमक जाती। आज भी बेचारे उसी स्कूल जाते हैं, जहां उनकी एक बहन की इज्जत अध्यापकों ने लूटी थी। क्या आप अख़बार नहीं पढ़ते?॰॰॰”
ज़रूर पढ़ते होंगे, क्योंकि उनकी शक्ल से अब ग़ुस्सा फुस्स होने लगा था। हाँ! अब एक शर्म झलक रही थी। मैंने आगे कहा - “अब भी समय है, सुधर जाइए। मंदिर के लिये चंदा माँगना आसान है, क्योंकि उन्हें चलाने में कोई समस्या नहीं है। जब मंदिर अर्थ का गढ़ था, वह ना सिर्फ़ सनातन सभ्यता का बैंक था, विद्यालय भी वही था। हमारे गुरुकुल और मंदिर अलग नहीं थे। आज हमारा सच बदल चुका है। मंदिर से बैंक अलग हो चुका है। आज़ादी के बाद से विद्या, शिक्षा, स्कूल, कॉलेज आदि भी धर्म से अलग हो चुके हैं। अब चाहकर भी मंदिरों में चमत्कार नहीं हो सकता है। गुरु की आज वहाँ भी कंगाली है, जहां रिक्तियों नहीं हैं और वहाँ भी जहां सरकार स्कूल चला रही है। कोसी क्षेत्र के लगभग हर स्कूल का दौरा मेरे पिताजी ने किया है। मैं भी उनके साथ गया हूँ। कहीं छत नहीं, तो कहीं शौचालय, शिक्षकों की भी भारी कमी है। आप क्यों स्कूल की कल्पना लिए मेरे पास नहीं आये? क्यों पाखंड लिए मेरे द्वार आये हैं? क्यों?॰॰॰ क्यों?॰॰॰”
मैं ग़ुस्से में रोने वाला था। जवाब उनके पास था नहीं। चुपके से पतली गली पकड़ वे भी निकल लिये। मैं भी अपनी ज़ुबान पर ताला लगाने तंबाकू या रजनीगंधा-तुलसी लेने निकल गया। लौटे हुए उन लोगों को मैंने मुझे ही गाली देते पड़ोसी के यहाँ देखा। नज़रें झुकाए मैं चलता रहा। फिर याद आया जो दोस्त आज न्याय का व्याख्याता है, जिसकी शादी कुछ दिनों पहले ही हुई है, वह भी शादी से पहले मुझसे पूछ रहा था - “क्या शादी के बाद दूसरी लड़की के साथ छुट्टियों पर जाना ठीक रहेगा क्या?॰॰॰”
मैं आज भी निशब्द हूँ। हर दिन उम्मीद करता हूँ कि कुछ तो चमत्कार होगा। किसी की तो बुद्धि खुलेगी। हर शाम निराश होकर सो जाता हूँ। जिससे पूछो, वही कहता है - “कुछ नहीं ही सकता, आएगा तो मोदी ही!॰॰॰”
पर अब अच्छे दिनों का भ्रम उनके चेहरों पर नज़र तक नहीं आता। एक यक़ीन नज़र आता है - अच्छे दिनों की अनुपलब्धि का, अफ़सोस मैं उनके लिए कुछ कर नहीं सकता। मैं तो अपनी बेटी के लिए भी कुछ करने में असमर्थ हूँ। कितना असमर्थ हूँ मैं?