Skip to main content

चलिए! हम फिर मिलते हैं।

मैं भाग जाना चाहता हूँ

कहीं दूर,
बहुत दूर, 
सबसे से दूर,
ख़ुद से दूर,
मैं ख़ुद से भाग जाना चाहता हूँ।
बहुत दूर नहीं,
पल भर के लिए,
बस! मैं मुक्त होना चाहता हूँ,
एक लम्हा चेतन बन,
मैं अपना मन देखना चाहता हूँ।
एक दम भर,
मन वह भ्रम देखना चाहता है,
जिसे चेतना शरीर समझती है।
मैं उस आत्मा से भाग,
परमात्मा से सवाल करना चाहता हूँ,
एक और अनेक में अंतर क्या?
क्या तेरा क्या मेरा?
फिर क्यों इतना तांडव मचाते हो?
बात बात गुस्साते हो?
श्रापित आदम के बच्चों को,
और क्यों तड़पाते हो?
मैं इस तड़प से भाग जाना चाहता हूँ।

मन कहाँ मानता है?

दुनिया में हमारे दुख का जोड़ा नहीं होता,
दुख की दौड़ में भागती यह दुनिया,
सुख की मृगतृष्णा लिए भटक जाती है,
चेतना द्रष्टा मात्र है,
क्रिया के संपादन में असमर्थ है, 
फिर भी आनंदित है, 
हर पल हर जगह,
उसे सुख या दुख से कोई लेना देना है ही नहीं,
पर मन भावुक है,
भावनाओं में बह जाता है,
सोचिए अगर चेतना आनंदित नहीं होती,
तो यह दुनिया कैसे झेल रही होती?
जितनी ज़रूरत हमें इस दुनिया की है, 
उतनी ही ज़रूरत उसे भी हमारी है,
खेल में अगर कोई ना कोई जीतता,
ना ही कोई हारता,
तो सोचिए भला कोई क्यों खेलता?

तू ज़िंदा है! (Parody)

तू ज़िंदा है, तो पहले ख़ुद को तू स्वीकार कर,
ज़िंदगी की जीत होगी, पहले ख़ुद से तो प्यार कर,
अगर कहीं है स्वर्ग, इस बात से इंकार कर,
है अगर ज़िद्द तो जन्नत का निर्माण कर!

ग़म-सितम के उन चार दिनों का आज तू बहिष्कार कर,
हज़ार दिन गुजर चुके, अब और ना तू इंतज़ार कर,
आज ही होगी इस चमन में बाहर,
रचकर कुछ बनकर तू ख़ुद से दीदार कर!

पहले कारवाँ की मंज़िलों का फ़ैसला तो कर,
हर हवा या लहर की तू परवाह ना कर,
एक कदम तू आज चल, एक कदम और कल,
मंज़िलों को छोड़कर आगे सफ़र की तैयारी तू कर!

घड़ी चाहिए या समय?

एक घड़ी ही है,
जो अनवरत चलती जाती है,
जब तक बैटरी निपट ना जाये!
समय फिर भी नहीं रुकता!

वह दूसरी घड़ी में चलने लगता है,
जब घड़ी दस बजकर दस मिनट,
बजते ही खिलखिलाती है,
मैं भी उसे देखकर हँस पड़ता हूँ!

जीवन बीतता हुआ यह समय ही तो है,
जहां मुस्कुराने के मौक़े कम ही मिल पाते हैं,
कारण की अनुपलब्धि कम,
और अभावों का बोझ ही बड़ा भारी है!

आईने में क़ैद आनंद!

इक दिन आईना देख,
मैं भड़क उठा,
कहने लगा,
सामने जो व्यक्ति है,
जाहिल है, 
देखो तो,
कितना घिनौना दिखता है?

मैं उस आईने पर,
कालिख मल आया,
काली सी सूरत,
वह जहालत,
अब दिखती नहीं,
अब पूरा नजारा ही काला है,
क्या मैं गोरा हो गया?

यह सवाल बिना पूछे ही,
मैं स्कूल चला गया,
वहाँ मेरा परिचय हुआ,
एक नये आईने से,
उस दर्पण में झांककर देखा,
पद, पैसा और प्रतिष्ठा दिखी,
साहब मिले, मिलकर क्या ख़ुशी हुई?

जीत, हार और जीवन

जीत जाऊँगा मैं,
ज़रूरी तो नहीं,
हार ही जाऊँगा,
तो क्या बदल जाएगा?
वैसे भी जीतना क्या ज़रूरी है?

अगर मेरे जीतने से,
कोई हार गया तो?
तो क्या फ़ायदा?
फ़ायदा नफ़ा नुक़सान,
क्या अर्थ बस यहीं है?

अर्थशास्त्र में अर्थ,
“अर्थ” से भी बड़ा है,
हिन्दी वाला भी, 
अंग्रेज़ी से भी,
क्या अर्थ यहाँ दर्शन नहीं?

मेरा तो सही या ग़लत,
भी होना ज़रूरी नहीं,
जीवन के पक्ष में जो भारी,
वही तो सही है,
इसमें भ्रम कैसा? कैसा संशय?

लोकतंत्र की एक परिभाषा, यह भी!

लोग मर जाते हैं,
उनका एक काम है मरना,
मर जाने से शरीर मरता है,
मन में तो गांधी और गोडसे,
दोनों ही ज़िंदा बच जाते हैं!
लोगों के मर जाने पर,
अफ़सोस क्यों जताना?
हमें तो उनका जीवन बताना चाहिए,
उनकी कहानी सुननी-सुनानी चाहिए,
आख़िर ये कहानियाँ ही तो स्वराज के प्रमाण हैं,
साहित्य नहीं तो बताओ तो जीवन और कहाँ बसता है?
लोग और कहाँ अमर हो सकते हैं?
जन्नत का विज्ञान से क्या वास्ता?
मोक्ष तो भावनाओं में पलता है,
स्वर्ग कल्पनाओं में फलता- फूलता है,
जीवन के पक्ष में जो अवधारणा है,
वही तो लोकतंत्र कहलाती है।

जीवन और लोकतंत्र

जीवन अगर कोई किताब होती,

तो पढ़ लेता मैं!

जीवन अगर रणभूमि होती,

तो लड़ लेता मैं!

जीवन अगर कोई दर्द भी होता,

तो सह लेता मैं!

पढ़कर देखा,

लड़कर भी,

सह भी लेता हूँ!

पर जब क़रीब से देखा,

जीवन तो एक कल्पना निकली!

मैं सोचता हूँ

मैं सोचता हूँ,

कि मरने के बाद नींद तो अच्छी आती होगी ना?

या वहाँ भी चेतना यूँ ही बेचैन भटकती जाती है?

क्या होता है मर जाना?

जीना ही क्या होता है?

अंतर ही क्या बचा है?

मुझे तो कहीं नज़र नहीं आता!


 

मैं सोचता हूँ,

कि मैं ऐसी गहरी नींद में सो जाऊँ,

कृष्ण-अर्जुन

कुरुक्षेत्र में अर्जुन निहत्था आया,

गांडीव वह घर भूल आया,

कृष्ण ने कहा चल बाण उठा,

निशाना लगा,

धर्म कहता है,

अपने परायों में भेद ना कर,

तू जा कुरुक्षेत्र में प्रियजनों का भी संघार कर,

यही धर्म है तेरा,

जा लड़ मर,

तू क्षत्रिय है, भूल मत!