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मैं सोचता हूँ,
कि मरने के बाद नींद तो अच्छी आती होगी ना?
या वहाँ भी चेतना यूँ ही बेचैन भटकती जाती है?
क्या होता है मर जाना?
जीना ही क्या होता है?
अंतर ही क्या बचा है?
मुझे तो कहीं नज़र नहीं आता!
मैं सोचता हूँ,
कि मैं ऐसी गहरी नींद में सो जाऊँ,
जहां चैन हो, थोड़ी फ़ुर्सत भी,
अकेला होकर भी मैं अकेला ना रहूँ,
ख़ुद के साथ भी मैं अकेला कहाँ रह पाता हूँ?
अब और किसी के साथ की ज़रूरत भी ना पड़े,
कोई साथ हो ऐसा एहसास बस बना रहे!
किसी के साथ की ज़रूरत भी क्या है?
क्या इंसान अकेला ही पैदा नहीं हुआ?
क्या वह अकेला ही नहीं रह गया है?
किसी के साथ क्या कभी कोई रह पाया है?
किसके साथ भला वह मर पाएगा?
मैं सोचता हूँ,
कि अब सोचना हो छोड़ दूँ!