दुनिया में हमारे दुख का जोड़ा नहीं होता,
दुख की दौड़ में भागती यह दुनिया,
सुख की मृगतृष्णा लिए भटक जाती है,
चेतना द्रष्टा मात्र है,
क्रिया के संपादन में असमर्थ है,
फिर भी आनंदित है,
हर पल हर जगह,
उसे सुख या दुख से कोई लेना देना है ही नहीं,
पर मन भावुक है,
भावनाओं में बह जाता है,
सोचिए अगर चेतना आनंदित नहीं होती,
तो यह दुनिया कैसे झेल रही होती?
जितनी ज़रूरत हमें इस दुनिया की है,
उतनी ही ज़रूरत उसे भी हमारी है,
खेल में अगर कोई ना कोई जीतता,
ना ही कोई हारता,
तो सोचिए भला कोई क्यों खेलता?
जीवन हम वैसे ही जीते हैं,
जैसा हम घर आँगन बनाते हैं,
क्यों हम अपना घर बनाने से कतराते हैं?
घर हम वैसा ही बना पाते हैं,
जैसी हम कल्पना करते हैं,
अगर ख़ुद नहीं कर पाते हैं,
तो कल्पना भी हम उधार लेते हैं,
होम लोन पहले से था ही,
किश्तों में ही ज़िंदगी क्षण क्षण गुजर जाती है,
नष्ट शरीर हुआ होगा,
वरना गांधी और गोडसे कहाँ मरते हैं?
शरीर के मर जाने से मन विचलित है,
व्याकुल मन मनोरंजन के लिए कुछ भी करेगा,
क्योंकि मृत्यु से ज़्यादा भय उसे,
मृत्युंजय बन जाने से लगता है,
आख़िर बुद्धि काम आती है,
जीवन के गुणगान गाती है,
संगीत में संवाद भी लयात्मक होता है,
संगीत सर्वत्र है,
आनंद की तरह,
पर मन यह कहाँ मानता है?
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