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जीत जाऊँगा मैं,
ज़रूरी तो नहीं,
हार ही जाऊँगा,
तो क्या बदल जाएगा?
वैसे भी जीतना क्या ज़रूरी है?

अगर मेरे जीतने से,
कोई हार गया तो?
तो क्या फ़ायदा?
फ़ायदा नफ़ा नुक़सान,
क्या अर्थ बस यहीं है?

अर्थशास्त्र में अर्थ,
“अर्थ” से भी बड़ा है,
हिन्दी वाला भी, 
अंग्रेज़ी से भी,
क्या अर्थ यहाँ दर्शन नहीं?

मेरा तो सही या ग़लत,
भी होना ज़रूरी नहीं,
जीवन के पक्ष में जो भारी,
वही तो सही है,
इसमें भ्रम कैसा? कैसा संशय?

जीवन अगर संघर्ष होता,
तो कुछ बात और होती,
समय और स्थान बस,
कुछ समय, कुछ जगह,
क्या इतना ही हमारा अस्तित्व नहीं?

फिर कैसी लड़ाई?
कैसा संघर्ष?
जिस समय, स्थान पर,
हम जीवन के साथ बस पाये,
क्या बस उतनी ही जीत हमारी नहीं?

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