जीवन अगर कोई किताब होती,
तो पढ़ लेता मैं!
जीवन अगर रणभूमि होती,
तो लड़ लेता मैं!
जीवन अगर कोई दर्द भी होता,
तो सह लेता मैं!
पढ़कर देखा,
लड़कर भी,
सह भी लेता हूँ!
पर जब क़रीब से देखा,
जीवन तो एक कल्पना निकली!
यहाँ तो कल्पना करने को भी पैसे लगते हैं,
सपनों को देख लेना ही काफ़ी नहीं,
उनकी क़ीमत भी चुकानी पड़ती है।
इतनी कमाई अपनी तो नहीं।
जहां ज़रूरतों की लड़ाई में,
जीवन बिखरता है,
वहाँ इंसानों की हैसियत ही क्या?
जीवन तो गली का कुत्ता भी,
जैसे-तैसे गुज़ार लेता है,
बिना किसी धर्म के,
बिना ईश्वर के,
बिना किसी लोक या तंत्र के,
बिना कमाई के,
एक रुपया बिन कमाए, बिन खर्चे,
गुजर जाता है।
वो ना राम को जानता है,
ना रहीम को,
शब्द के बिना,
भी जीवन है।
निशब्द क्या कल्पना संभव नहीं?
मेरी गली का कुत्ता,
दिल्ली नहीं जानता,
विधायक हो या अधिकारी,
या हो कोई भिखारी,
हर किसी से उम्मीद लगाये बैठा है।
पद, पैसा, प्रतिष्ठा को दांव पर लगाकर,
वह हर उस शख़्स को दौड़ता है,
जिसने उस पर पत्थर फेंका।
निस्संदेह प्रेम की परिभाषा वह नहीं जानता,
फिर क्यों उस बच्चे को देख दुम हिलाता है,
जो अपनी रोटी का टुकड़ा उसे देता है?
उसकी कल्पना से भी,
जीवन का मोह छलकता है,
जो आज इस देश काल में नहीं।
इतिहास पलटकर भी देखा मैंने,
साहित्य भी पढ़कर पाता हूँ,
हर क़िस्से-कहानी में,
जीवन का विपक्ष ही भारी क्यों?
हर घर-आँगन में,
बचपन भयभीत क्यों नज़र आता है?
अगर यही लोकतंत्र है,
तो तानाशाही में बुराई ही क्या?
कोल्हू के बैल भी थककर सो जाते हैं,
गली का कुत्ता भी,
अपने ही बिस्तर पर,
क्यों हम नींद को तरस जाते हैं?
जैसे भी हो,
जहां भी रहे,
काल और स्थान में सफ़र करता,
जीवन तो गुजर ही जाता है,
मौसम भी आते जाते हैं,
हर बरसात के बाद जाड़ा,
फिर बसंत, फिर गर्मी,
इस बीच संघर्ष है,
जिजीविषा है,
जीते जाने की इच्छा,
क्या काफ़ी नहीं?
फिर क्यों सैकड़ों लोग,
हर दिन अपनी ही जान ले रहे हैं,
ख़ुद की ख़ुशी से क्यों फाँसी लगा रहे हैं?
ना कोर्ट, ना कचहरी,
सीधा ही फ़ैसला सुना रहे हैं,
घर परिवार भी अपने सपने,
अपने ही बच्चों पर थोप रहा है,
क्या सही है? क्या ग़लत?
धर्म-अधर्म सब कुछ तो सीखा रहा है,
फिर क्यों जीवन को जीवन तरस रहा है?
क्यों किसान आत्महत्या कर रहे हैं?
विद्यार्थी भी अपने ही कंधों पर अपनी अर्थी उठा रहे हैं,
गृहणियाँ भी पीछे कहाँ हैं?
मज़दूरों में भी मर जाने होड़ लगी है,
अगर यही लोकतंत्र है,
तो मैं अपना बहुमूल्य मत जीवन को देता हूँ,
ना लोक को, ना तंत्र को,
अपने गली के कुत्ते को ही,
मैं अपना भाग्यविधाता चुनता हूँ।
क्योंकि मैंने देखा है,
बच्चों को,
जिसे वह देखकर,
दुम हिलाता है,
जीवन की इतनी कल्पना,
तो वह भी कर लेता है,
उसके बच्चों को मजबूरी में,
ज़हर खाते तो नहीं देखा मैंने।