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एक लोकतांत्रिक अवतार

मेरी समझ से आज हमारे देश भारत की राजनैतिक दशा पाश्चात्य मध्यकालीन देशों के इतिहास से भी बदतर है। जब मैंने पाश्चात्य सभ्यता का मध्यकालीन इतिहास पढ़ा था, तब मुझे एहसास हुआ था कि — जब तक प्रमाणों से ज़्यादा तर्कों पर समाज भरोसा करता रहा, तब तक उनका इतिहास मध्यकाल के अभिशाप से उबर नहीं पाया था। फिर, वहाँ पुनर्जागरण काल प्रारंभ हुआ — The Age of Renaissance, १४वीं शताब्दी से लेकर १७वीं शताब्दी तक इस काल का बोल-बाला रहा, मतलब १३००-१६०० तक। इस दौरान कई सामाजिक और राजनैतिक बदलाव सामने आये। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण बदलाव कला और साहित्य विभाग में आया। इसके बाद ही औद्योगिक क्रांति का शुभारंभ हुआ। इतिहास की हर कड़ी सभ्यता और उसके विकास के लिए ज़रूरी थी। किसी एक के टूट या छूट जाने से कहानी कभी पूरी ही नहीं होती।

कला और साहित्य में निर्माण का वरदान है। बिना साहित्य और कला के कोई भी सभ्यता आगे नहीं बढ़ सकती, क्योंकि हमारी सबसे बड़ी ताक़त हमारी कल्पना-शक्ति है। पहले किसी ने उड़ने की कल्पना की, तभी तो आज हम मंगल तक जा पहुँचे। अफ़सोस, मंगल का मुख्य योगदान आज भी हमारी सभ्यता में शादी में अड़चनें डालना और घर-परिवार में कलह जगाने का ही है। अगर कल्पना हमारी सबसे बड़ी ताक़त है, तो सबसे बड़ी कमजोरी भी वही है। क्योंकि हमारी सबसे बड़ी कमजोरी हमारा अपना डर है, जो काल्पनिक है। कोई भी डर यथार्थ नहीं हो सकता है। क्योंकि, मृत्यु की सत्यता पर भी मुझे संशय है। वह हमारा आख़िरी सत्य नहीं हो सकती, हाँ! उसका हमारा अनिवार्य सत्य होना अवश्यंभावी है। मृत्यु एक वरदान है, जो जीवन को अर्थ देती है। अनंत जीवन अर्थवान कैसे हो सकता है?

निर्माण के साथ उत्पादन की क्षमता बढ़ती है। कोई भी अभिव्यक्तिपूर्ण उपन्यास या पेंटिंग अनमोल हैं। यहाँ व्यक्ति रचना करने को स्वतंत्र है। हर अच्छी रचना अभिव्यक्ति को समृद्ध करती है, जो समाज और इतिहास को समृद्ध करने में अपना योगदान देती है। जैसा पुनर्जागरण काल में हुआ। जहां भी अर्थ का सृजन होगा, मुद्रण वहाँ अपनी जगह बना ही लेगा। ऐसा ही कुछ इस काल में हुआ था। अर्थव्यवस्था में लोकतंत्र अवतरित हुआ, तब जाकर कहीं वहाँ लोकतंत्र आया। समय लगा, लोकतंत्र भी एक कल्पना ही तो है। अच्छी कल्पना है, इसलिए उसे बचाने के लिए हम अक्सर हथियार भी उठा लेते हैं। पर क्या हथियार उठा लेने से लोकतंत्र बच जाएगा?

पुनर्जागरण काल के शुरुआत के दो शताब्दी बाद “रने देकार्त” आते हैं। जिन्होंने “Cogito, ergo sum” का सिद्धांत दिया, बड़ा ही सरल है ये सिद्धांत, बस इतना कहता है — “मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ”। मेरे होने का कोई और कारण भी नहीं है। किसी भी सोच की संरचना में दो अभिन्न अंग होते हैं। पहला हमारी अवधारणा, जो ना सिर्फ़ हमारी शिक्षा, अपितु हमारे अनुभवों और उनकी प्रतिक्रियाओं पर भी निर्भर करती हैं। और दूसरा हमारी कल्पनाएँ जो लगातार हमारी अवधारणाओं और अनुमान के साथ-साथ हमारी स्मृति को भी संचारित करती रहती है। ज्ञान एक ऐसा केंद्र है, जहां जगत की सीमा अनंत में बदल जाती है। हर अर्थव्यवस्था उसके ज्ञान से ही संचालित होती आयी है, होती भी जायेगी। और जहां ज्ञान की अपनी सीमा को अपना अंत मान लेते हैं, वहीं हम अपने भगवान को स्थापित कर लेते हैं। जो इस भौतिक जगत में कहीं भी हो सकता है। किसी के लिये राम सत्य है, किसी के लिये कृष्ण, तो कोई गॉड या अल्लाह को मानता है। अगर कोई भी सच होता, तो दूसरे का अस्तित्व तक नहीं होता।

देकार्त के लगभग डेढ़ सौ साल बाद “फ्रेडरिक नीत्शे” आते हैं। जिन्होंने २०वीं शताब्दी शुरू होने से पहले ही भगवान को मरा हुआ घोषित कर दिया। यह वह दौर था जब यूरोपीय देशों की सल्तनत में सूरज नहीं डूबता था। उनकी अर्थव्यवस्था में चार चाँद लगे हुए थे। भगवान के मर जाने से किसी को कोई ख़ास आपत्ति नहीं हुई। सुकरात की तरह उन्हें ज़हर नहीं दिया गया। न्यूएमोनिया से ५५ वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हुई थी।

१८९३ में फ्रैंसिस हरबर्ट ब्रेडले ने Appearance and Reality का सिद्धांत दिया, जिसमें वे Degree of Reality की बातें करते हैं। हर व्यक्ति, वस्तु या अवधारणा की सत्यता की एक डिग्री होती है। उन्होंने उदाहरण में चूहे, मानव, देव(Angel) और ब्रह्म(Absolute) का विवरण दिया, उनके अनुसार चूहे के अनुपात में हमारी सत्यता अधिक है, और देव या ब्रह्म की सत्यता हमसे ज़्यादा है। संभवतः अगर २०वीं सदी की शुरुआत से पहले नीत्शे ने भगवान को जर्मनी में मार नहीं दिया होता, तो हिटलर इतिहास में नहीं आये होते।

ज्ञान के दायरे को बढ़ाते जाना ही अर्थ का निर्माण करता है। नये आयाम खुलते हैं। पेट्रोल के ख़त्म हो जाने से पहले ही हम इलेक्ट्रॉनिक और सोलर यातयात की कल्पना कर उसे साकार करने में लगे हुए हैं। कल पेट्रोल नहीं रहेगा, क्योंकि उसकी ज़रूरत ही नहीं रहेगी। इस जगत में बस उतना ही है, जितने की हमें ज़रूरत है — ना कम, ना ज़्यादा!

अपनी दार्शनिक यात्रा में जिस सत्य से मेरा आमना-सामना हुआ, वह बिलकुल वैसा ही है जैसा हर दर्शन हमें बताता है — सनातन दर्शन भी और पाश्चात्य दार्शनिक भी इसी निष्कर्ष पर आते हैं कि सत्य वही है जो अखंडित है। पाश्चात्य दर्शन के इतिहास में देकार्त और नीत्शे के बीचों-बीच आर्थर शोपन्हाउअर आते हैं। मतलब, पाश्चात्य दर्शन के आधुनिक युग के पिता “देकार्त” जिन्होंने सोच को सर्वोपरि माना, doubt या संदेह के आधार पर भगवान की तलाश की, और नीत्शे, जिन्होंने भगवान को मरा हुआ बताया, उनके बीच शोपन्हाउअर आकर “The World as Will and Representation”  की रचना की। उन्होंने साफ़-साफ़ कहा है कि गीता को पढ़कर उन्हें प्रेरणा मिली है।

मैंने भी सत्य को अखंडित पाया, पर बिना खंडन के ज्ञान की संभावना ही नहीं है। ख़ुद को फिर “सत्य” को समझने-समझाने के लिए मैंने काल और देश (Time & Space) का सहारा लिया। क्योंकि, विज्ञान इसे ही सत्य मानता है, और आधुनिक दर्शन भी इसी तरफ़ बढ़ता नज़र आता है। जैसे, इतिहास में बहुत बाद सिद्धार्थ “बुद्ध” बनकर आते हैं। उन्होंने वर्तमान को सत्य माना, और सनातन दर्शन से योग का उपयोग कर ध्यान और साधना की विधा पर अपना दर्शन देते हैं। यह देखकर मुझे अफ़सोस हुआ कि आज बुद्ध संप्रदाय भी कर्मकांड पर उतर आया है। क्योंकि वहाँ भी दर्शन की अनुपब्धि ही भारी है। वर्तमान सत्य है, यह समय और स्थान ही सत्य है। ना आगे, ना पीछे, लगभग सनातन दर्शन के हर ऋषि-मुनि मुझे यही दर्शन देते नज़र आते हैं। कई समकालीन गुरु-महाराज भी यही बता रहे हैं। हर गुरु ने अपने कुछ नियम-क़ानून भी बताये। मुझे यह देखकर अफ़सोस होता है कि आचरण में हम आस्था से ज़्यादा अपने अहंकार को उतारकर उस गुरु का ऐसा अपमान करते हैं कि दुबारा कोई गुरु बनने की कोशिश भी नहीं करता। अब तो अच्छे शिक्षक भी कम ही मिलते हैं। जब से मैंने सुना है कि जिस स्कूल में मेरा बचपन बर्बाद हुआ था, वहाँ दो शिक्षकों ने मिलकर एक चौदह साल की छात्रा का बलात्कार किया है। उस दिन से मेरा खून खौल उठा है। अब मैं शांत नहीं बैठना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि यथाशीघ्र कुछ ऐसे सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन आयें, जो जीवन का संदेश साथ लायें। घबराया हुआ मन कभी ठीक से सो भी नहीं पता है।

सामने जिस आस्था का बलात्कार हो रहा है, उसे झेल पाने की हालत में मैं अब बिलकुल भी नहीं हूँ। या तो कुछ करूँगा, या फिर मारूँगा, वैसे भी यहाँ ज़िंदा रहने कौन आया है?

मेरी समझ में नहीं आता है कि मेरा आस-पड़ोस इतना जाहिल क्यों रह गया है कि राम को काल्पनिक कह देने से ही हिंसक हो जाता है। गांधी क्या थे? क्या नहीं? मुझे नहीं पता पर सत्य की उनकी परिभाषा मैंने भी पढ़ी है। हुबहू मेरे जैसी ही है। गोडसे के विचारों के लिये मेरे पास कोई जगह भी नहीं है। वैसे ही जैसे हिटलर या औरंगज़ेब के लिए भी नहीं है। पर, अकबर का दीवाना मैं भी हूँ। सुबह की अज़ान से मुझे उतनी शिकायत नहीं है, जितनी लगातार रात-दिन बजते राम-धुन से है। तुम्हें मज़ा आता होगा, पर मुझे नींद नहीं आती। मैं पढ़ नहीं पाता। मैं अपनी साधना पूरी नहीं कर पाता। बहरा हो जाना चाहता हूँ। पर हर समस्या के समाधान में दूसरी समस्या छुपी होती है। अगर, आक्रोश में किसी दिन मैंने अपने कान में सरिया घुसेड़ भी दिया तो क्या मेरी समस्या सुलझ जाएगी?

नैतिकता का पैमाना भले विचार होगा, पर “अहिंसा” के लिये कल्पनाओं का भी अहिंसक होना ज़रूरी है। हिंसात्मक स्वप्न अनैतिक नहीं है, पर हिंसक तो है। राम ऐतिहासिक पात्र नहीं हैं, साहित्यिक हैं। वैसे ही जैसे कृष्ण हैं। दोनों ही काल्पनिक हैं। इसमें विवाद करने जैसी कोई बात ही नहीं है। पर समस्या कभी आस्था में निहित नहीं होती है, समस्या की जड़ तो आस्था का केंद्र होता है। क्योंकि अगर सत्य अखंडित है, तो किसी भी ज्ञान का सत्य होना संभव नहीं है। फिर अगर वर्तमान को हम सत्य मान लेते हैं, तो वहाँ चेतना है, जीवन है। इसलिए, अगर कुछ ज़रूरी है, तो वह जीवन है। तर्क के आधार पर जीवन दो तरह का हो सकता है — तार्किक और पाशविक। पाशविक प्राण या पशुओं में चेतना है, जो कुछ डिग्री में पत्थर में भी आत्मा के रूप में मौजूद है। आत्मा का संबंध अस्तित्व से है, जीवन के लिए चेतना ही काफ़ी है। यहाँ सत्य अखंडित प्रतीत होता है, क्योंकि कम ही पाशविक जीवन में वर्तमान को छोड़कर कोई और कल्पना होती है। बहुत हुआ बरसात के दिनों के लिए कुछ पशु-पक्षी अपने अस्तित्व के ख़ातिर खाना जुगाड़ते हैं।

पर, इंसान एक तार्किक प्राणी है। सनातन दर्शन में तर्क को ज्ञान की विधि या विधा के दायरे से बाहर ही रखा गया है। तर्क अप्रमा है, वैसे ही जैसे भ्रम, संशय और स्मृति भी ज्ञान का स्रोत होने में अक्षम हैं। पर, तर्क की अपनी ही एक भूमिका है। सत्य को ज्ञान से जोड़ने की भूमिका तर्क करता है। तर्क प्रमाणों के आदान-प्रदान का माध्यम बनता है। इसलिए, तर्कशास्त्र की पढ़ाई बहुत ज़रूरी मानी जाती है। हर प्रतियोगिता परीक्षा का अभिन्न हिस्सा तर्कशास्त्र होता है। सूचना क्रांति के बाद ज्ञान पर अर्थव्यस्था केंद्रित हो चुकी है। जहां ज्ञान है, वहाँ अर्थ है। इसलिए, प्रमाणों और तर्कों के आधार पर ही कोर्ट अपना फ़ैसला सुनाती है। अब जज महाराज के पास इतनी शक्ति तो है नहीं कि काल-यात्रा कर गुनाह को होते देख सकें। एक तार्किक प्राणी की सबसे बड़ी विडंबना होती है कि वह तर्कों के आधार पर नयी-नयी कल्पना कर सकता है। हर कल्पना अच्छी और नैतिक ही हो ज़रूरी तो नहीं है। जिसने राम की कल्पना की, रावण का पिता भी वही था। और रावण के बिना राम बेचारे क्या करेंगे?

भारत के लोकतंत्र के लिए यह साल बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि, इस साल लोकसभा के चुनाव हैं। केंद्र में एक नयी सरकार बनने वाली है। देश की मौजूदा सरकार अपनी अनुपलब्धियों पर पर्दा डालने की लिए मंदिर-मस्जिद कर रही है। उसके पास अर्थव्यस्था की कोई वैकल्पिक कल्पना आया उपाय नहीं है। इसलिए अर्थव्यवस्था को सत्ता ने मंदिरों की तरफ़ मोड़ दिया है। यहाँ भी साहित्य है, कला है, अनंत की संभावना है। और हमारी सबसे बड़ी विपदा है कि हमारे पास कोई और कल्पना भी नहीं है। विपक्ष बिखरा ही नहीं, अव्यवस्थित पड़ा है। ना कांग्रेस के पास ऐसा कोई चेहरा है, जो इस माया को चुनौती दे सके, ना ही आम आदमी की इतनी औक़ात है। यहाँ तो हालात ऐसी है कि आम आदमी हर समय और स्थान पर डरा हुआ है, क्योंकि ख़तरा हर ओर से हमें घेरे हुए है। खाना, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में ही हम सफल हैं।

अजीब नहीं लगता, ऐसी दुर्दशा में सत्ता ने अमृत काल की घोषणा कर दी, और हमने मान भी लिया। कल ही मैंने एक दिवास्वप्न देखा, अचानक ही कुछ कौंधा। दृश्य थे। मैं उसे बाँट नहीं पाया, क्योंकि शब्द प्रयाप्त नहीं मिल रहे थे। आज फिर कोशिश कर रहा हूँ।

मेरी पत्नी बुद्धिमान है, क्योंकि वह तर्क नहीं करती। वह मान लेती है। मान लेने से भी ज्ञान मिलता है। क्योंकि, अर्थापत्ति में ज्ञान है, सनातन दर्शन में ज्ञान की छह विधि बतायी गई है, जिसमें न्याय दर्शन की ज्ञान-मीमांसा सबसे समृद्ध जान पड़ती है। उसके अनुसार प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति, और अनुपलब्धि से ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है। अफ़सोस! यहाँ भी शब्द की सीमा को लेकर विवाद हुआ और शब्द को वेदों तक ही सीमित रखने के लिए विभिन्न दार्शनिक पंथ लड़ पड़े। दर्शन में नास्तिक वे हैं जिन्होंने ज्ञान की सीमा के लिये वेदों को पैमाना नहीं माना। आस्था तर्क के सहारे ही तो ज्ञान की रौशनी फैलती है। तर्क जब भी जीवन के विपक्ष में जाने लगता है, आस्था ही उसका मार्गदर्शन करती है। क्योंकि, आस्था के केंद्र में सत्य है। इसलिए, गांधीजी “सत्याग्रह” को अपना हथियार बनाते हैं। वे दार्शनिक हैं, वैसे ही जैसे महाभारत के युद्ध में कृष्ण सारथी हैं। राम योधा हैं, मर्यादा के लिए लड़ते हैं। उनमें शौर्य है। हमारी चेतना शौर्य से आकर्षित होती है, जबकि प्रेम वह सौम्यता से करती है। ठीक वैसे ही जैसे कृष्णा की प्रेमिका राधा है। जमाना हर जोड़ी की तुलना राधा-कृष्ण से करता है। गूगल महाराज बताते हैं कि — “सनातन धार्मिक शास्त्रों के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण की 8 पत्नियां थी। इनके नाम क्रमश: रुक्मणि, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा था।” कृष्ण की पत्नियों में आकर्षण का कहीं ज़िक्र तक नहीं है। राधा कहाँ गई?

आस्था ज़रूरी है। जीवन को आस्था की अभिन्न ज़रूरत है। पाशविक जीवन में आस्था का कोई केन्द्र नहीं है। इसलिए, वहाँ कोई धार्मिक समस्या उत्तपान नहीं होती। आज भी रोटी, कपड़ा और मकान के लिये गली का कुत्ता भटक रहा है। पर, वह खुश है, उसकी ज़रूरतों की भरपाई हो रही है। पर, इंसान के पास तर्क का अभिशाप है। वह हज़ार में भी उतना ही गरीब है, जितना लाखों कमाकर दरिद्र है। वह कैसा आमिर है, जो डरकर अपने आलीशान कमरे में दुबका बैठा है। उसने क्यों दुनिया नहीं देखी? मेरी माँ की आस्था भी अखंडित है। उसे भी किसी एक केंद्र की तलाश है। भटकती है। सब कुछ होकर भी वह गरीब है। बचपन से उसकी कल्पनाओं में मैंने चादर छोटा ही पाया है। वह कहती आई है कि हमें पैर उतना ही फैलाना चाहिए, जितनी चादर हो। एक दिन मैंने ही कहा कि हम बाज़ार से नयी चादर क्यों नहीं ख़रीद लाते? शायद उसी दिन से वह दिन-रात मेहनत करती है। मेरी लंबाई-चौड़ाई से कहीं बड़ी चादर वह ख़रीद लायी है। मुझे और क्या चाहिए?

मेरे पिता एक विद्यार्थी हैं। वे बहुत पढ़ते हैं। पढ़ते ही रहते हैं। आज भी किताबों के अंबार के नीचे कुछ खोज रहे हैं। क्या? पता नहीं। मैंने उनसे कई सवाल किए, वे कम से कम सुन लेते हैं। माँ सुनती नहीं है। उसे फ़ैसला सुनाने की बड़ी जल्दी रहती है। मुझे नहीं लगता मेरे जीवन का एक भी पल बेमतलब था, अर्थहीन रह भी सकता है, आज मैं इस बात की कल्पना नहीं कर पाता हूँ। आज भी मेरे पास कुछ नहीं है। कल ही अपने सेवा-निवृत पिता से ४०,००० रुपये लिये, ताकि अपने क्रेडिट कार्ड का बिल भर सकूँ। मेरा एक दोस्त विलायत में रहता है, पूछता है कि क्या मुझे अपने पिता से अपनी बेटी के डायपर ख़रीदने के लिए पैसे माँगने में शर्म नहीं आती। जिस दिन उसने यह सवाल पूछा था, उस दिन आयी थी। एक-दो साल बीत चुका है, उस बात को। वह वहीं बैठे पिताजी के चुनाव में हार जाने की भविष्यवाणी करता रहा। पिताजी हार गये, वह दंभ भरने आया। उस दिन मुझे उस पर दया आ रही थी। पिताजी के हार जाने से जितना नुक़सान मेरा नहीं हुआ, उससे कहीं ज़्यादा नुक़सान उसका हुआ था। क्योंकि, अब उसकी किसी बहन या बेटी के पास पढ़ने के लिए अच्छा सरकारी स्कूल नहीं होगा। मुझे नहीं पता कि अगर पिताजी जीत भी पाते, तो भी क्या वे मेरा सपना पूरा कर पाते?

शायद नहीं कर पाते, क्योंकि उनकी विचारधारा इस लोकतंत्र से मेल नहीं खाती, क्योंकि उन्होंने शिद्दत से साहित्य पढ़ा है। साथ ही अध्यात्म से लेकर कई शास्त्र भी उन्होंने पढ़ा होगा। मुझे उनका ज्ञान उनके छात्रों के लिए वीडियो बनाते हुए मिला। इसके लिए मैं कोरोना का आभारी हूँ। शायद ही कोई होगा! पर, फिर भी अगर वे जीत गये होते, तो कुछ कोशिश करते। वे राजनीति से असहमत होकर भी राजनीति ही करते हैं। वे लोक-लिहाज़ का घेरा लांघना नहीं चाहते। उन्हें भी मेरी ही तरह शायद डर लगता होगा कि अगर हमारी कल्पना का असर बुरा हुआ तो?

मुझे भी डर लगता है। पर अपनी कल्पनाओं में मैंने अपने का संहार किया है। मेरी किताबें इसी बात का प्रमाण हैं। शब्द हैं। ज्ञान के पात्र हैं। ज़रूरी नहीं है कि उनमें कोई ज्ञान हो। क्योंकि, किताबों में सिर्फ़ सूचनाएँ होती हैं। जो ख़ुद में ज्ञान नहीं होती हैं। उन्हें पढ़कर ख़ुद को रचने से ज्ञान प्राप्त होता है। यही ज्ञान मुझे अपनी रचना से हुआ। अच्छी नहीं है, बुरी भी नहीं, बस ज़रूरी हैं। ख़ैर, मुद्दे की बात यह है कि कल मैंने एक दिवास्वप्न देखा। भयभीत मन में सपने बहुत आते हैं। भय ही हमें तर्कशील बनाता है। और भय का सबसे बड़ा केंद्र शरीर होता है। मन जानता है कि वह अमर है। वरना, जितने भी नाम मैंने यहाँ तक इस आलेख में लिये हैं, वे ज़िंदा नहीं होते। गांधी की चेतना भी मौजूद है, और हिटलर का आतंक भी। दोनों ही ज़रूरी हैं। हिटलर नहीं होते, तो तीसरे विश्व-युद्ध को होने से कौन रोक सकता था?

मन जितना भयभीत होगा, सपने उतने अच्छे आयेंगे। यह सपना भी सुनहरा था। पर, कल जो शब्द मैंने दिये उनसे सुनने वाले डर गये। क्योंकि, मैंने उनसे कहा कि चलिए २०२४ में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए एक ऐसा चुनावी अभियान बनाते हैं, जिसमें ना सिर्फ़ हम एक रुपया भी लगेंगे, उल्टे उस अभियान से हम पैसा कमायेंगे। सुनते ही लोगों को लगा कि यह कोई साज़िश लग रही है। अनैतिकता की दुर्गंध आ रही है। चुनाव से पैसा कमाना ग़लत होगा। इससे अच्छा तो जो चल रहा है, वही सही है, चुनाव में पैसा बहाकर जीतकर फिर कमाते हैं। अजीब लोग हैं?

इनके तर्कों से ही मुझे डर लगता है, क्योंकि अपना दर्शन मैं इन्हें दिखा ही नहीं पाता हूँ। इसलिए, शायद कृष्ण को भी अपनी बात मनवाने के लिए विराट रूप धरना पड़ा होगा। सीधी-सच्ची बातों को सुनने के अर्जुन ने इनकार जो कर दिया था। पूरे १० अध्याय लिखने के बाद वेद मुनि को कृष्ण का विराट रूप दिखाना पड़ा होगा, क्योंकि अर्जुन को उनकी ही कल्पना हैं, वे उनकी ही दलीलों को मानने से मना कर रहे थे। तब जाकर ११वें अध्याय में हमें कृष्ण के विराट रूप का दर्शन होता है। अनंत भ्रमंड की कल्पना दिखती है। मन शांत हो जाता है। महाभारत के खून-ख़राबे में प्रियजनों की हत्या करने से भी फिर अर्जुन नहीं घबराये। महाभारत नरसंहार नहीं तो और क्या है?

अमृत तो गीता सुनाती है। इसलिए वह अवतार है। तभी तो गीता पूर्ण भी है, और महाभारत का भाग भी।

पर, तर्कों की सबसे बुरी आदत है कि उसे हम अपनी तरफ़ मोड़ लेते हैं। जैसे मेरे शब्द सुनकर मेरे दोस्त ने भी अपनी असहमति दर्ज की। पिताजी ने भी सुनकर आंशिक सहमति जतायी। लिख देने से शब्द प्रमाण बन जाते हैं। अब ये सिर्फ़ तर्क नहीं हैं, प्रमाण हैं। इन पर भरोसा किया जा सकता है। तभी तो क़ानून सबूत माँगने में इतना परेशान है कि तर्कशास्त्र के चक्कर में नीतिशास्त्र का अपमान कर बैठा है। आज हमारी सभ्यता बड़े दरिद्र दौर से गुजर रही है। समृद्धि की कल्पना ही नहीं बची है। कल ही दो होनहार शोध-छात्र मेरे पास आए थे, एक हिन्दी साहित्य का छात्र था, एक अर्थशास्त्र का। मैंने दोनों से पूछा कि अगर उन्हें २०२४ के चुनावों में खड़ा कर दिया जाये तो वे किन मुद्दों पर लड़ेंगे। पहले तो वे कुछ बोल ही नहीं पाये। उनके बोलने से पहले ही पन्ने और कलम उनके हाथों में मैंने थमा दिया। वे लिखने लगे, जो कुछ भी पढ़ा था, लिख डाला। कोई कल्पना नहीं लिखी। क्यों? क्यों शिक्षा हमें कल्पनाओं से डराती है? नौकरी से बड़ी कल्पना छात्रों में क्यों नज़र नहीं आती है?

मेरे अनुमान से इस शिक्षा व्यवस्था में एक ऐतिहासिक और दार्शनिक दोष है। हमारे इतिहास में आज तक पुनर्जागरण काल नहीं आया, जब जनमानस को अपनी रचना-शक्ति पर आस्था हो। यह आस्था ही थी जिसने साहित्य, कला के रास्ते उद्योग की रचना की। हमारे आदिकाल में ही कहीं स्वर्ण-युग की तलाश में देश और काल की जवानी बर्बाद हुए जा रही है। सृजन की संभावना कुछ युवाओं को दिखती भी हैं। पर, वे छोटी-मोटी उपलब्धि से ही संतुष्ट हो जाते हैं। वे सत्याग्रह नहीं करते। वे अपने सच को ही सत्य मान बैठते हैं। मुझे उनकी दरिदता पर तरस भी आता है। मैं चाहकर भी कुछ कर नहीं पाता हूँ। हिन्दी विभाग के सृजनशील शिक्षकों की बातों से भी मुझे निराशा के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा। अनुभव में भी वे दरिद्रता ही तलाशते मिले। मैं भी किसी का अपमान नहीं करना चाहता, शौक़ से गालियाँ देता हूँ, पर किसी की भावना को चोट पहुँचाने की प्रवृति मेरी तो नहीं।

अगर, मैंने अपने महाभारत की पूरी कहानी यहाँ तक अपने “इहलोकतंत्र” में ईमानदारी से नहीं लिखी होती, तो आज मैं ये शब्द एक साथ नहीं लिख पाता। शब्दों की संरचना से ही अर्थ बनता-बिगड़ता रहता है। तभी तो शब्द को हमारे सनातन दर्शन में ब्रह्म का रूप कहा गया है। स्फोटवाद के सिद्धांत पर ही तो व्याकरण की बुनियाद रखी गई है। भाषा से ही साहित्य, साहित्य से ही दर्शन का आदान-प्रदान संभव हो पाया है। तब जाकर कहीं हम गुफाओं से निकलकर आज असुरक्षित शहरों में रहते हैं, जहां हर प्रकार का अस्तित्वगत ख़तरा हमारे ऊपर मंडरा रहा है। यह सिर्फ़ मेरी समस्या तो नहीं है कि अपनी बेटी को पढ़ाने लायक़ मेरे आस-पड़ोस में स्कूल नहीं है। मैं चाहकर भी अपनी बेटी को पढ़ा नहीं सकता। एक पूरा परिवार, एक पूरा समाज, एक पूरी सभ्यता लगती है, किसी को शिक्षित करने में, सिर्फ़ विद्यालयों में ही व्यक्तित्व का निर्माण नहीं होता। फिर भी हमारी शिक्षा हमारे व्यवहार के निर्धारण में एक अहम भूमिका निभाती है। क्योंकि, यहाँ हम अवधारणाओं से अवगत होते हैं। हमें पढ़ाया जाता है, तब जाकर इस लोकतंत्र से हम अवगत होते हैं। वरना, अंडमान द्वीप पर आदिवासियों का जीवन आज भी हमसे कहीं समृद्ध है, क्योंकि उनकी ज़रूरतों के लिए वह द्वीप ही काफ़ी है। हमारी ज़रूरतें और उन पर ख़तरा कितना ज़्यादा है? इस बात पर ही हमारी कल्पनाएँ आकर लेती हैं। मेरे पिताजी कुबेर हैं, और मेरी माँ लक्ष्मी, जब भी जो भी माँगा, मुझे मिला है। तभी तो वे भी मुझसे पूछते हैं कि क्या कमी रह गई?

मैं अपनी कमी उन्हें समझा नहीं पाता, शब्द नहीं मिलते। अभिव्यक्ति की हर विधि अधूरी जान पड़ती है। यह समस्या सिर्फ़ मेरी नहीं है। हर कोई इसी समस्या से जूझ रहा है। इस बात का अनुमान मैं तब लगा पाया, जब मुझे पता चला कि जिस छात्रा का बलात्कार मेरे विद्यालय के प्रांगण में हुआ था, वह घर लौटकर अपनी माँ से अपना दुख नहीं बता पाई। उसकी माँ को उसका सच उसके किसी दोस्त से पता चला। मैंने तो अख़बारों में ही पढ़ा है। अगर, वे सच हैं, तो इस देश और काल में कोई सुरक्षित नहीं है। ना हमारी बेटियाँ, ना ही हमारे बेटे, क्योंकि बलात्कारी बेटे किस माँ-बाप को चाहिए?

आज सुबह ही मुझे “ब्रह्म-ज्ञान” समझ में आया — “बढ़ते जाते में ही ब्रह्म है!”, ब्रह्म की परिभाषा ही तो यही है। मेरी चार साल की बेटी मेरे सामने थी, मैंने उससे कहा — “बेटा! तुम जीवन में कोशिश छोड़कर कुछ मत करना। तुम मत जीतना, तुम कभी नहीं हारोगी। क्योंकि, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।” मधुशाला के रचियता ने भी यही “ब्रह्म-ज्ञान” ही तो समझाया था।

इसलिए, मैंने सोचा कल तो मैं हार गया था। इससे मेरी हार अखंडित तो नहीं हो गई। वह मेरा सत्य कैसे हो सकती है। मित्या मात्र है। मैं आगे बढ़ गया। मैं लिखने बैठ गया।

कल मैंने सोचा था कि DevLoved EduStudio के माध्यम से मैं लोकतंत्र की माँग बदलने के लिए प्रयासरत हूँ। क्यों ना एक राजनैतिक प्रयोग २०२४ के आगामी लोकतांत्रिक चुनाव में किया जाये। इस प्रयोग में किसी का एक पैसा नहीं लगेगा। उल्टे लोक अर्थ कमाएगा। क्या पता हम पुनर्जागरण क्रांति कर बैठें, जब देश की जवानी देश की कुर्सी सँभालने हेतु अपने ही पिता को चुनेगी। मैंने अपनी योजना को समझाने के लिए दो-चार लोगों को घर पर आमंत्रित किया। पत्नी से जाकर कहा — “दो-चार लोगों का खाना बना दो। पापा को प्रधानमंत्री बनाने की योजना समझाने मैंने उन्हें बुलाया है।”

उसकी अभिव्यक्ति शून्य सी हो गई। वह मेरे पागलपन पर हंसे या बुद्धिमानी पर मुस्कुराए, उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था। उसने मुझे रोकने की कोशिश भी की, पर मुझसे ज़्यादा बहस करने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती। अपनी बात बोलकर चुप हो जाती है। क्योंकि, संभवतः उसने देखा है कि मैं तो अपनी माँ की भी नहीं सुनता हूँ। वैसे तो कम ही लोग सुनते हैं, पर अपने सच को मानते कम ही हैं।

ख़ैर, अपनी योजना मैंने अपने एक मित्र को फ़ोन पर कुछ इस प्रकार समझाने की कोशिश भी की — “
It may be for the first time ever in any democracy that the party contesting in an election actually earned rather than investing in the campaign! It will be one hell of a national news!!

We shall form a political party after winning as an independent candidate.. with an idea how things can be done in a better way.. may be in coming few days before the general election this year we can create a power nexus which was not yet in existence as a new democratic front. Even the traditional media will get involved soon enough!

Let general election 2024 mark the start of the age of renaissance! What say you?

A party that becomes a majority only within a few months of existence.. may be a history can be written today..

Even if we lose we will end up earning a lot from the campaign by creating interesting and appealing contents.. may be can make enough fortune in this year to retire for the rest of our lives..

Political satires, like that shown on news channels using animation..
Local stand up comedians lighting up the stage..
Providing what crowd is already craving for..
Million dollar idea.. nothing to lose and to gain is to nation.. Patriotism shall meet a new definition..

Even the power equilibrium can be magically be tilted in an entirely new direction if we succeed in calling up the youth of nation.. Sorry I am just writing my notes here.. In the midst we can advertise my books, my father as a new face of democracy! As an idea! Without forming a party we can awaken the youth to choose their representatives and make them stand as independent candidates.. then after all these candidates win we form a new party after independent candidates win the parliament by the majority.. A political magic.. that be realised with true honesty.. a new definition of Satyagrahi.. Gandhi appeals to everyone till his photo is one the note!!😂😂

इसी का हिन्दी अनुवाद करने बैठा था। पूरा दिन गुजर गया। अब कभी और करूँगा, अभी DevLoved EduStudio के बारे में भी बहुत कुछ लिखना बचा हुआ है। थोड़ा समय और लगेगा। तब तक सोचिए कि आपका इहलोक आज से बेहतर कल कैसे हो सकता है? 

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