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औद्योगिक क्रांति हुए जमाना हो गया, इस बीच सूचना क्रांति भी कब हो गई किसी को खबर तक नहीं लगी। आज हम “मल्टीमॉडल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस” की दुनिया के प्रवेश द्वार पर खड़े हैं। आगे ना सिर्फ़ मशीनी दुनिया हमसे बातचीत कर पाएगी, बल्कि हमें देख और सुन भी पाएगी। कमाल हो जाएगा ना! जब ऊपरवाला हमें देखने सुनने लगेगा। आज भी बहुत लोगों को पता नहीं चलता होगा कि कब से वे मशीनों से बात कर रहे थे? सीरी भी यहीं है, एलेक्सा भी! और हाँ गूगल महाराज तो हमारे बीच विद्यमान् हैं ही!

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने हमारे बच्चों की ज़िंदगी बहुत आसान कर दी है। अब उन्हें साहित्यिक निबंध या कोई कविता या कहानी लिखने के लिये भी किसी होनहार छात्र की कॉपी से चुराने की ज़रूरत नहीं है। अब वे सीधे चैटबॉट को विषय देकर अपने लिए एक अनोखा और अद्वितीय निबंध तैयार कर सकते हैं। कोई भी शिक्षक जो एक पीढ़ी पीछे चल रहा है। वह उस बेईमान छात्र की तारीफ़ करते नहीं थकेगा, जिसे निबंध के पीछे की यह कहानी पता नहीं होगी। संभव है उसे संदेह होने लगे कि अचानक ही उसके सभी छात्रों के होमवर्क की गुणवत्ता कैसे बढ़ गई है? या भी तो हो सकता है कि उस शिक्षक को अपनी ही क़ाबिलियत पर घमंड होने लगे! होता ही है, आम बात है!

ख़ैर, औद्योगिक क्रांति के बाद उद्योगों का निर्माण हुआ। हर अर्थव्यवस्था के पब्लिक और प्राइवेट सेक्टर में औद्यागिक क्रांति के बाद सूचना क्रांति अपनी जगह बना चुकी है। हम कहाँ है? हमारी मंज़िल कहाँ है? आज सबको पता है। नया फ़ोन ख़रीदते ही फ़ेसबुक को पता चल जाता है कि हमने कौन सा स्मार्टफ़ोन ख़रीदा है। फ़ौरन उस फ़ोन के कवर के विज्ञापन से मेरा फ़ेसबुक भर जाएगा। दो चार बड़ी ख़रीदारी क्या कर ली सिस्टम को पता चल जाता है, बड़ा मुर्ग़ा है। काटो! फ़ौरन क्रेडिट कार्ड वाले आयेंगे, फिर और उधार देने वालों की लाइन लग जाएगी। एक दो बार क्रेडिट कार्ड का सही से उपयोग कर लीजिए, चार-पाँच किश्तें समय पर भर दीजिए, लाखों-लाख का क्रेडिट मिल जाएगा। दिन में चार पाँच क़र्ज़दार कर्जा लेकर तैयार फ़ोन करने लगेंगे। बतायेंगे कि हम उनके कितने मूल्यवान ग्राहक हैं? फिर और उधार देने की कोशिश करेंगे। कभी इंसान बोलेंगे, कभी कोई मशीन अपना संदेशा छोड़ जाएगी। इतना मधुर स्वर, इतनी लुभावनी योजना कि किसी का भी मन फिसल जाये। वे इतना प्रेम जतायेंगे, कि सच में लगने लगेगा कि हम कितने मूल्यवान हैं? काश! हमारे घरवालों को भी हम पर इतना ही भरोसा होता, दुनिया बदल कर रख देते हम!

पर यहाँ तो हमें अपनी ही हालत असुरक्षित नज़र आती है। नौकरी नहीं, तो जीवन नहीं। नौकरी के लिए डिग्री, डिग्री के लिए परीक्षा, परीक्षा के लिए तैयारी, अब परीक्षा किसी जंग से कम नहीं! प्रेम और जंग में सब जायज़ है। पढ़ाई और ज्ञान की कोई ज़रूरत भी नहीं! गधे की तरह खटकर, नहीं तो लोमड़ी की तरह शेर के शिकार पर इतराकर हम गुजरा कर लेंगे। भ्रष्टाचार के लिए तो हमें हमारे ही स्कूलों में, घर-आँगन और पड़ोस में तैयार किया जाता है। स्कूल में अनुशासन ऐसा है, जैसे किसी जंग की तैयारी चल रही हो! हर दिन होमवर्क, हर हफ़्ते टेस्ट, हर दो-चार महीने पर इम्तहान कभी अर्ध-वार्षिक, तो कभी वार्षिक परीक्षा! इधर नंबर थोड़े कम क्या आये, घर, मुहल्ले में हाहकार मच जाता है। ना जाने हर परीक्षा अपने साथ कितने कसमे, वादे, प्यार, वफ़ा आदि-अनादि साथ लाती है?

आज की अर्थव्यवस्था में संभवतः धर्म के बाद सबसे सुरक्षित उद्योग शिक्षा का ही है, जहां कभी मंदी नहीं आती। कुटीर उद्योग से लेकर मल्टीनेशनल कॉरपोरेशन शिक्षा का सरेआम व्यापार कर रही हैं। जहां देखो वहाँ प्रतियोगिता ही हमारा सच है। जानवरों की तरह हम शरीर का उपयोग कर रहे हैं, सहयोग से ज़्यादा उद्योग बनाने में हमने अपना ही जीना हराम कर रखा है। यह जो महंगाई और ग़रीबी है ना, मेरी समझ से यह सहयोग की अनुपलब्धि का ही नतीजा है। विकल्पहीन हो चुके लोकतंत्र में जंगल की प्रतियोगिता का नियम लागू है। हमारे बच्चे एक दूसरे से लड़ जाने को बाध्य हैं। हमने उन्हें जहां देखो वहाँ दरिद्रता ही दिखायी है। मेरे अनुमान से समृद्धि की कल्पना का अभाव ही सबसे बड़ी दरिद्रता है। इस अनुपलब्धि के कारण ही तो प्रायः हर चेतना अवसादग्रस्त है। ना लाखों की कमाई पूरी पड़ती है, ना ही हज़ारों की आय में रसोई चल रही है। दोनों ही उतने ही दरिद्र हैं। लोकतंत्र के भाग्यविधाताओं के पास भी कोई समाधान उपलब्ध प्रतीत नहीं होता है। योजनाएँ भी बन रही हैं, काम भी चल रहा है, पर हर कोई इस ख़तरे में जी रहा है कि ना जाने कब उसकी रोज़ी-रोटी की नीलामी हो जाये?

यह कैसा लोकतंत्र है? जहां बुनियादी सुरक्षा के लिए जनजीवन तरस रहा है। रोटी, कपड़ा, मकान, दुकान के आगे-पीछे दौड़-भाग करने में दिन और जीवन गुज़ार रहा है। अनियोजित और अव्यवस्थित राजनीति और प्रशासन ने आतंक मचा रखा है। सबको पता है कि समस्या कहाँ है? पर कोई भी इसे अपनी स्वीकृति देने से इनकार कर रहा है। क्योंकि किसी भी समस्या का सबसे सटीक समाधान है कि समस्या को मानने से ही इनकार कर दो। सवाल ही नहीं उठा, तो जवाब देने की ज़रूरत ही क्या बचेगी?

इस सहयोग की लोकतांत्रिक अनुपलब्धियों के बारे में बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा सकता है। मैं यहाँ बस एक उदाहरण देना चाहूँगा कि कैसे हमने अपने अहंकार की संतुष्टि के लिए कैसे देश में महंगाई बढ़ा रखी है।

हर घर में आटा तो आता ही है। वही गेहूँ वाला, जिससे हर दिन रोटी और पर्व-त्योहार के दिन पूड़ी या पराठा बनता है। आज मध्यम वर्ग के पास पैसा है, पर समय नहीं है। कौन गेहूँ ख़रीदे? फिर उसे पिसवाये? महानगरों में आजकल आटा-चक्की भी कहाँ नज़र आती है? उसके बाद भी ठिकाना नहीं कि चक्की-वाले ने हमारे गेहूँ में क्या मिलावट कर डाली?

इस समस्या का समाधान ढूँढने के लिए कुछ बुद्धिजीवी वर्ग व्यापार और रोज़गार की तरकीब के साथ बाज़ार में उतरे, कुछ बाबा-महाराज भी शुद्धता के इस अखाड़े में उतर पड़े। हर किसी ने अपने-अपने उत्पाद की भरपूर प्रशंसा की, कोई कहीं जीत गया, कोई कहीं और, पर हार हम सब गये। क्योंकि अब तक जो आटा कुछ किलोमीटर का सफ़र कर हमारी रसोई में पहुँच रहा था, अब वह ना जाने कितने द्वीप-महाद्वीप की यात्रा कर हमारे घर पधार रहा है?

बिहार की खेतों में उपजी फसल पहले नहा-धोकर तैयार होने किसी उद्योग में जाती है, जो पंजाब में है, और इधर पंजाब की फसलें पहले हरिद्वार के दर्शन करने निकल पड़ती है। जहां सबका शृंगार किया जाता है। अच्छे लुभावने पैकेटों में उनकी भरपाई होती है। फिर वहाँ से देश-विदेश के बाज़ारों में वितरण की समस्या के लिए एक नयी योजना बनायी जाती है। बताइए, दाल से लेकर दूध तक के विज्ञापन से अख़बार और मीडिया भरी रहती है। इन विज्ञापनों की क़ीमत भी हम ही चुका रहे हैं। जिस ज़रूरत की पूर्ति चंद सिक्कों में हो सकती थी, अब इस बुनियादी आपूर्ति के लिए एक उद्योग लगा हुआ है, जिसका खर्चा यह पूरा लोकतंत्र उठा रहा है। क्यों? क्योंकि हम सहयोग करने में समृद्धि की कल्पना ही नहीं कर पाये।

उससे भी बड़ी समस्या अब यह भी है कि उत्पादों के इतने तीर्थाटन हेतु भी एक पूरा आयोजन तैयार करना पड़ता है — ट्रकें लगती हैं, जो पेट्रोल या डीज़ल पर चलती हैं। अर्थ अब सिर्फ़ आटा में नहीं बच गया है, हमें किसी ख़ास कंपनी के आशीर्वाद की भी दरकार है। हमारी माँग ही बदल चुकी है, इसलिए बाज़ार भी बदल रहा है। यहाँ तक कि हमारी ज़रूरतों से कहीं ज़्यादा माँगों का निर्धारण बाज़ार ही करने लगा है। इस तरह अब आटे-दाल की क़ीमत पेट्रोल के बढ़ती माँग के कारण भी बढ़ती जा रही है। जितनी यात्रा हम अपने जीवन-काल में नहीं कर पाते, उससे कहीं ज़्यादा अनुभव लिए उत्पाद हमारे घर आँगन में उत्पात मचाये हुए हैं।

जब तक जंगल के क़ानूनों पर लोकतंत्र चलता रहेगा, मुझे तो उम्मीद नहीं है कि कुछ भी जीवन के पक्ष में बदल पाएगा। जब शिक्षा-दीक्षा में प्रतियोगिता से सहयोग की भावना का संचार होगा, तभी जिस लड़ाई को हम और आप लोकतंत्र के दंगल में लड़े जा रहे हैं, उसका समाधान मिल पाएगा। धर्म और शिक्षा जिस सामाजिक अवधारणा की स्थापना हमारे अंतःकरण में करती रहेगी, उसी आधार पर हमारी दुनिया चलती रहेगी। 

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.