कुछ राजनैतिक समस्यायें
कौन सी ऐसी सामाजिक समस्या है, जिसका निदान तंत्र नहीं कर सकता है? पर इस लोक की समस्या ही तो यही है कि तंत्र ख़ुद ही एक समस्या बन चुका है और लोक उस समस्या की अग्नि में उधार लेकर घी डाल रहा ह। जो आग एक-न-एक दिन उसका घर ही जला डालेगी। लोक तो बस जलने का इंतज़ार करता प्रतीत होता है। हालत तो ऐसी है कि देश में ना मौजूदा प्रशासन और ना ही वर्तमान राजनीति को लोक या जनता की ज़रूरत है। इनकम टैक्स से लेकर टोल टैक्स तक सीधे जनता के खाते से तंत्र के खाते में पहुँच रहा है। आज कोई असहयोग आंदोलन की कल्पना तक नहीं कर सकता है। जो चालक हैं, वो इतिहास से सत्ता सुख भोगने का नुस्ख़ा निकाल ही लेते हैं। मेरी समझ से तो मौजूदा समाज में लोकतंत्र भी आभासी या वर्चुअल जो चुका है। जैसे, सोशल मीडिया पर हम अभिव्यक्ति की आज़ादी तलाश रहे हैं! कहीं कुछ होता है, हम शोक मनाने लगते हैं, या जश्न! अर्थशास्त्र के नाम पर लोक बस चंदा दे रहा है, तंत्र बटोर रहा है, और हम तमाशा देख रहे हैं। प्राइवेट सेक्टर को तो आपकी या मेरी, या हमारे बच्चों की कभी चिंता थी ही नहीं। इसलिए तो तंत्र तानाशाह बन गया है।