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मनचले

कान और कंधे के बीच फ़ोन चिपकाए, सुरेशवा अपना मोटरसाइकिल ४० के स्पीड पर बिना हेलमेट चला जा रहा था। अचानक एक टेम्पो वाला साइड काटा, काहे की एक ठो पैसेंजर चिलाया - “रोको बे! अब का अपने घर ले के जावेगा!” पीछे से सुरेशवा ठुकते-ठुकते बचा। फ़ोन नीचे गिर गया था। स्मार्ट फ़ोन था, सुरेशवा का कलेजा धक से रह गया। बाइक छोड़ फ़ोन पर लपका। उसके पीछे से दु ठो हवलदार जो अभी तक बतियाते हुए आ रहे थे। दौड़ कर घटना स्थल पर पहुँचे। सुरेशवा फ़ोन उठा कर देख रहा था कहीं स्क्रीन फुट तो नहीं गया? पुलिस देख कर सोचा बाइक उठाने आ रहे होंगे। मदद करेंगे। दुनों आये, बाइकवा उठाया। सुरेशवा के मन में विचार आया कि धन्यवाद ज्ञापन कर दे। सो, गया और बोला - “धन्यवाद!”

मैं प्रधानमंत्री बनना चाहता हूँ!

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होते हुए भी हम कितने असहाय हैं, अपने जीवन में सही अभिव्यक्ति को तलाशने में। हम जब कहना चाहते हैं - क्यों नहीं हो पाएगा.. हमारी अभिव्यक्ति में कहीं छिपा होता है - ये नहीं हो पाएगा। हम ख़ुद को जब अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम नहीं तो कैसे हम लोकतंत्र को समझ पायेंगे? कैसे वोट कर चुन पायेंगे अपनों को जो हम लोगों के लिये काम कर पाये? Democracy में demoशोध लोगों के लिए था, भारत पहुँचते पहुँचते वो लोकतंत्र हो गया। लोक की सीमा नहीं है, पूरा संसार ही नहीं, उसके परे की भी सलतनत इस परिभाषा में शामिल है - इहलोक भी और परलोक भी। तभी तो मंदिर और मस्जिद के नाम पर वोट करते हैं हम, परलोक के भरोसे। Democracy के लिए हिन्दी में सही शब्द “लोगतंत्र” होना चाहिए था, मेरी समझ से। वैसे लोक ज़्यादा उचित है क्योंकि उसमें इंसान ही नहीं पशु पक्षी भी शामिल किए जा सकते हैं, परियावरण भी। पर ये तभी हो पाएगा जब लोगतंत्र स्थापित हो जाये तब अगला पड़ाव लोकतंत्र का हो सकता है। जब बात विस्तार की आये, तब। जब ज्ञान अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाये, तब। और ये तब हो पाएगा जब हम जीवन का अर्थ यानी मतलब और अर्थ यानी मूल्य को समझ पायेंगे।

आगे क्या?

लगभग २० वर्षों के बाद आज भी वही सवाल सामने है - आगे क्या? आज भी वही जवाब है - नहीं पता। आपके पास अगर कोई सुझाव हो तो बतायें। दूसरों की नज़र में तो ख़ुद को असफल देखता ही आया हूँ, आदत सी हो गई है। पर अब तो अपनी नज़रों में भी असफलता का चश्मा पहने घूमता हूँ। माँ पिता की मेहनत और ईमानदारी से कमाई संपत्ति भी बेवजह खर्च करता आया हूँ। आज भी कर रहा हूँ। अब तो मैं ही नहीं मेरे बच्चे की परवरिश की ज़िम्मेदारी उनके माथे पर है। शर्मिंदा हूँ, और असमर्थ भी। लौट कर किसी कंपनी में जूनियर इंजीनियर की तरह काम करने की ना हिम्मत बची है, ना चाहत। हाँ ज़रूरत सी ज़रूर जान पड़ती है। लगभग २० वर्षों के बाद आज भी वही सवाल सामने है - आगे क्या?

मैं आत्मनिर्भर बन गया!

प्राइवेट हॉस्पिटल की हालत सरकारी दफ़्तर जैसी होने लगी है, क्योंकि सरकारी दफ़्तरों पर तो सरकार ने ताला लगाने की ठान ही ली है। अब बने रहो आत्मनिर्भर। इसलिए पड़ोस से प्राइवेट कंपाउंडर को बुलाया और बेटी की हाथ में लगी पानी चढ़ाने वाली सुई निकलवा दी। मैं भी “आत्मनिर्भर” बन गया। पब्लिक सेक्टर से उदास हो कर प्राइवेट के पास गया। वहाँ से भी जब दुदकारा गया, तो मैं आत्मनिर्भर बन गया।

पिता की प्रसव पीड़ा 

एक हफ़्ते तक बहू भी हॉस्पिटल में भर्ती रही। बेटा, दादा, दादी और बाक़ी परिवार के लोग सब कुछ सम्भालते रहे। बेटे ने देखा बाक़ी सारे मरीज़ों का भी ऑपरेशन ही हुआ। क्या जब ऑपरेशन का विकास नहीं हुआ था तब बच्चे नहीं होते थे। सिर्फ़ पैसे के लिए डॉक्टर मरीज़ से खेलता रहता है - वह सोचता रहा। डॉक्टर ने बिल से भी ज़्यादा पैसों की माँग की। नर्सों ने बक्शीश माँगने में भी कोई शर्म नहीं दिखायी। महँगी से महँगी दवाई मंगवायी गयी। पैसे का मोह बहुत नहीं था, बेटे में। पर सब के लालच को देख कर वह सर पीट कर सोच रहा था - “ऐसे समाज में क्यूँ उसने बच्चा पैदा कर दिया।”