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A Dream to Behold...

6 July, 2024

Acknowledging my failures, I gained a reason to succeed. Knowing my reason of failure, I estimated a probable roadmap to success. With a map of treasure in hand, I traveled far & wide, both in physical space and temporal zones. I reached the precise destination dictated by the map. There were no treasure waiting for me, where ever I went. But, at each destination I found guards guarding their ignorance of the absence of treasure. They sucked pleasure from the payment they received in return for their services they offered.

एक लोकतांत्रिक अवतार

मेरे अनुमान से इस शिक्षा व्यवस्था में एक ऐतिहासिक और दार्शनिक दोष है। हमारे इतिहास में आज तक पुनर्जागरण काल नहीं आया, जब जनमानस को अपनी रचना-शक्ति पर आस्था हो। यह आस्था ही थी जिसने साहित्य, कला के रास्ते उद्योग की रचना की। हमारे आदिकाल में ही कहीं स्वर्ण-युग की तलाश में देश और काल की जवानी बर्बाद हुए जा रही है। सृजन की संभावना कुछ युवाओं को दिखती भी हैं। पर, वे छोटी-मोटी उपलब्धि से ही संतुष्ट हो जाते हैं। वे सत्याग्रह नहीं करते। वे अपने सच को ही सत्य मान बैठते हैं। मुझे उनकी दरिदता पर तरस भी आता है। मैं चाहकर भी कुछ कर नहीं पाता हूँ। हिन्दी विभाग के सृजनशील शिक्षकों की बातों से भी मुझे निराशा के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा। अनुभव में भी वे दरिद्रता ही तलाशते मिले। मैं भी किसी का अपमान नहीं करना चाहता, शौक़ से गालियाँ देता हूँ, पर किसी की भावना को चोट पहुँचाने की प्रवृति मेरी तो नहीं।

शुभारंभ

कल्पनाएँ असीमित हो सकती हैं। शब्द भी अनगिनत हैं। अभिव्यक्ति की संभावनाएँ भी अनंत हैं। इसी अनंत में अपने अर्थ की तलाश का हमें शुभारंभ करना है। संभवतः मैं ग़लत हो सकता हूँ। मेरा सही होना ज़रूरी भी नहीं है। ज़रूरी तो जीवन है। जीवन की अवधारणा सिर्फ़ और सिर्फ़ वर्तमान में ही संभव है। इसकी उम्मीद हम भविष्य से भी लगा सकते हैं। पर, अपने भूत में जीवन की तलाश अर्थहीन है। अनुमान में ज्ञान की संभावना होती है, तर्कों में नहीं। पर, किसी भी अनुमान के लिए व्याप्ति का होना अनिवार्य है। व्याप्ति के लिए प्रमाण लगते हैं। और इन प्रमाणों की सत्यता के लिए ही तर्कशास्त्र की ज़रूरत होती है। अर्थहीन होकर भी तर्क के बिना अनुमान का ज्ञान संभव नहीं है। ज्ञान के लिए अनुमान की अवधारणा को समझना बेहद ज़रूरी है। मैं ही नहीं यह इस लोकतंत्र का भी मानना है। तभी तो तर्कशास्त्र से कई प्रश्न लोकतंत्र विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं पूछता ही रहता है। पर, ना जाने क्यों लोकतंत्र इसे पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझता है। शायद! अनुशासित, आज्ञाकारी और सदाचारी नागरिकों पर शासन करना आसान पड़ता होगा। तभी तो अज्ञानता का इतना प्रचार-प्रसार लोकतंत्र ही करते रहता है। हमें लोकतंत्र के इस अत्याचार का प्रतिकार करना है। इस महाभारत में सत्य और अहिंसा ही हमारा हथियार बन सकता है। क्योंकि, यह महाभारत कहीं और नहीं हमारे अंदर ही चल रही है। यह अनुमान तो हमें लगाना ही पड़ेगा। इसलिए, अनुमान को समझना ज़रूरी है। यह समझ शायद एक नये शुभारंभ का शंखनाद कर पाये।

इहलौकिक जिजीविषा

स्वर्ग, मोक्ष, मुक्ति, जन्नत या हेवन एक ही अभिलाषा या कल्पना के अलग-अलग रूप हैं। दुख या दर्द हो, या इंद्रियों को प्राप्त सुख ही क्यों ना हो? भोगती तो चेतना ही है, जो ख़ुद आत्मा का क्षणिक वर्तमान है। आत्मा की शाश्वतता को हमारी चेतना वर्तमान की अनंतता के साथ जोड़कर ही समझ पाती है। सुख-दुख अनुभव के पात्र हैं। अनुभूति और अनुभव में बारीक अन्तर है। अनुभव के लिए इंद्रियों का सक्रिय होना ज़रूरी है। अनुभूति विचारों और भावनाओं से भी प्रभावित होती रहती है। अनुभूति वह एहसास है, जिसे हमारी चेतना महसूस कर पाती है। अनुभूतियों का दायरा अनुभव से बड़ा है। अनुभूति शरीर और इंद्रियों से परे है। अनुभूतियों का अस्तित्व ही काल्पनिक है। अनुभव की एकरूपता भी अनुभूति की समानता को स्थापित नहीं कर सकती है। हर अनुभव में अनुभूति का योगदान है। पर, अनुभूति को अनुभव पर आश्रित नहीं रहना पड़ता है। वह विचारों और कल्पनाओं में स्वतंत्र विचरण कर सकती है। यहाँ तक कि अनुभूतियाँ, चेतना में कई काल्पनिक अनुभवों का संप्रेषण करने में सक्षम है। कल्पनाएँ इंद्रियों को भी प्रभावित करने का हुनर जानती है।

इहलोक की अवधारणा

इस लोक की अनंतता में ही उसकी समग्रता है। शून्य ख़ुद में पूरा है — ख़ुद मूल्यवान भी है, मूल्यहीन भी वही है। शून्य “०” अनंत भी है — उसके अंदर भी एक पूरी दुनिया है, उसके बाहर भी एक पूर्ण ब्रह्मांड बसता है। कल्पना के परे भी कोई दुनिया है, या हो सकती है, इससे शायद ही कोई तार्किक प्राणी एतराज रखेगा। एक बेहतर और बदतर दुनिया की कल्पना शुरुवात से हमारे साथ चलती आ रही है। आज भी साथ है, आगे भी अपना साथ निभाते ही जाएगी।

Way to riches

Life is a barter with free-will. Even time is a product of our free-will. Under Lifeconomics, we shall try the same in a more practical and economical manner. Here as well as in future, with Learnamics and Expressophy. So, even when you don’t get all the answers here, you can command your reason to fetch it for you.

एक दार्शनिक समस्या और समाधान

मुक्ति के लिए लोक को हर काल और स्थान पर अपने ज्ञान पर आस्था बनानी पड़ती है। नास्तिकता एक बौद्धिक पंथ है, जो आस्था का ही अनादर करती है। इस कारण पंथ की समस्या बरकरार ही रहती है और रंग में भंग डालने के लिए नास्तिकों का एक अलग पंथ चला आता है। महफ़िल खूब सजती है, सबको मज़ा भी खूब आता है। कब रंगों की होली, खून की होली में बदल जाती है? इतने शोर-शराबे में किसी को पता भी नहीं चलता। जब पता चलता है, तब लोक अपनी भावनात्मक और तार्किक व्यथा व्यक्त करता है। सामाजिक समस्या में मौजूद जो दर्शन है, उसे देखने की कोई कोशिश ही नहीं करता है। इहलोक और इस तंत्र में हम अपने-अपने पद, प्रतिष्ठा और पैसे का मज़े तो ले लेते हैं, पर कभी आनंद किसी को नहीं मिलता। इसलिए, कोई ज्ञान को नहीं पूछता, इहलोक अपनी ही मस्ती की अज्ञानता में मूर्तियों और प्रतीकों के पीछे भागा जा रहा है।

हमारी धार्मिक समस्यायें

धार्मिक समस्या पाखंड में निहित है। दर्शन, मिथक और कर्मकांड तक तो धर्म ही था, चाहे वह किसी भी पंथ का क्यों ना हो! पाखंड से ही तो धर्मालयों और राजनीति की दुकान चल रही है, जो लोक के लिए एक जानलेवा नशा है। तंबाकू या दारू से कहीं ख़तरनाक समाज की शिक्षा के प्रति उदासीनता का जो कैंसर है, वह पूरे लोक और तंत्र को तबाह किए हुए है। यही सामाजिक अज्ञानता, मेरी धार्मिक समस्या है, जिससे मेरा व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन अस्त-व्यस्त है। जिसके निवारण के लिए मैंने दर्शन की शरण ली थी। अब मेरी दार्शिनिक समस्या भी पढ़ लीजिए।

कुछ राजनैतिक समस्यायें

कौन सी ऐसी सामाजिक समस्या है, जिसका निदान तंत्र नहीं कर सकता है? पर इस लोक की समस्या ही तो यही है कि तंत्र ख़ुद ही एक समस्या बन चुका है और लोक उस समस्या की अग्नि में उधार लेकर घी डाल रहा ह। जो आग एक-न-एक दिन उसका घर ही जला डालेगी। लोक तो बस जलने का इंतज़ार करता प्रतीत होता है। हालत तो ऐसी है कि देश में ना मौजूदा प्रशासन और ना ही वर्तमान राजनीति को लोक या जनता की ज़रूरत है। इनकम टैक्स से लेकर टोल टैक्स तक सीधे जनता के खाते से तंत्र के खाते में पहुँच रहा है। आज कोई असहयोग आंदोलन की कल्पना तक नहीं कर सकता है। जो चालक हैं, वो इतिहास से सत्ता सुख भोगने का नुस्ख़ा निकाल ही लेते हैं। मेरी समझ से तो मौजूदा समाज में लोकतंत्र भी आभासी या वर्चुअल जो चुका है। जैसे, सोशल मीडिया पर हम अभिव्यक्ति की आज़ादी तलाश रहे हैं! कहीं कुछ होता है, हम शोक मनाने लगते हैं, या जश्न! अर्थशास्त्र के नाम पर लोक बस चंदा दे रहा है, तंत्र बटोर रहा है, और हम तमाशा देख रहे हैं। प्राइवेट सेक्टर को तो आपकी या मेरी, या हमारे बच्चों की कभी चिंता थी ही नहीं। इसलिए तो तंत्र तानाशाह बन गया है।

कुछ सामाजिक समस्यायें

फलों के मुख्यतः तीन प्रकार हैं - जाति, आयु और भोग। ये फल हमें हमारे कर्मों के अनुरूप मिलते हैं। जाति द्वारा हमारे जन्मों का निर्धारण होता है। आयु से यहाँ सिर्फ़ हमारी उम्र का ही निर्धारण नहीं होता है, बल्कि हमारे फलों की आयु का भी निर्धारण होता है, अर्थात् जो फल हम भोग रहे हैं, वो हम कितनी देर तक भोगेंगे, दुख ज़्यादा होगा या सुख, इसका निर्धारण भी आयु से होता है। भोग का सीधा संबंध हमारी क्रियाएं, अनुभूतियाँ और परिणाम से है, सुख-दुःख, लाभ-हानि, भोग-रोग आदि।