मुद्रास्फीति, जिसे आम भाषा में महंगाई कहते हैं, आज हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है। विकिपीडिया के अनुसार ‘मुद्रास्फीति’ की परिभाषा कुछ इस प्रकार है —
“किसी अर्थव्यवस्था में समय के साथ विभिन्न माल और सेवाओं की कीमतों (मूल्यों) में होने वाली एक सामान्य बढ़ौतरी को कहा जाता है। जब सामान्य मूल्य बढ़ते हैं, तब मुद्रा की हर ईकाई की क्रय शक्ति (purchasing power) में कमी होती है, अर्थात् पैसे की किसी मात्रा से पहले जितनी माल या सेवाओं की मात्रा आती थी, उसमें कमी हो जाती है। मुद्रास्फीति के ऊँचे दर या अतिस्फीति की स्थिति जनता के लिए बहुत हानिकारक होती है और निर्धनता फैलाने का काम करती है।”
महंगाई — किसी भी अर्थव्यवस्था का एक अनिवार्य अवांछनीय भाग है। अकसर, महंगाई की साहित्यिक तुलना डायन से की जाती रही है। क्यों महंगाई बढ़ जाती है? मेरी समझ से इसके तीन आयाम हैं, जिसमें तीन घटक अपनी भूमिका निभाते हैं। ये तीन घटक कुछ इस प्रकार हैं — माँग, आपूर्ति और क्रय शक्ति। आय और क्रय शक्ति का सीधा संबंध है। जितनी आय होगी, हमारी क्रय शक्ति उतनी ही होगी, वैसे कर्जा लेकर हम अपनी क्रय शक्ति बढ़ा सकते हैं।
किसी संतुलित अर्थव्यवस्था में हमें ऋण हमारी आय के अनुसार ही उपलब्ध होता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वित्तीय संस्थाएँ किसी व्यक्ति या संस्था को ज़रूरत से ज़्यादा ऋण दे देती हैं, जिसे वह लौटाने में असमर्थ होता है। ऐसी दशा में इस आर्थिक विपदा की भरपाई पूरी अर्थव्यवस्था को उठानी पड़ती है। ऐसी दशा में भी महंगाई बढ़ती है। लाखों करोड़ों का ऋण लेकर लोग आज देश छोड़ रहे हैं। उनकी क्रय शक्ति में हुई बढ़ोतरी का ख़ामियाजा हमें भुगतना भी पड़ रहा है। फिर भी इस चर्चा में मैंने इस आयाम को अनदेखा करने का निर्णय लिया है। क्योंकि, मेरी समझ से यह एक अनैतिक साज़िश के कारण होता है। भ्रष्टाचार है। अर्थशास्त्र में जिसका कोई उपाय नहीं है। क्योंकि, यह एक नैतिक समस्या है, जिसका निवारण अर्थशास्त्र से कम और दर्शनशास्त्र या मनोविज्ञान से ही संभव हो सकता है। बाक़ी के तीन आयाम और उनके समाधान पर मैं चर्चा करने हेतु यह आलेख लिख रहा हूँ, जो कुछ इस प्रकार हैं —
१) माँग का विस्तार
प्रतिदिन बाज़ार नये उत्पादों के साथ हमारे सामने आ रहा है। एक आम भारतीय परिवार की ज़रूरतें राज्य और शहर के अनुसार बदलती जाती हैं। बिहार का बाज़ार और महाराष्ट्र के मार्केट में ज़मीन आसमान का अन्तर है। मैंने ख़ुद अपनी आखों से देखा है। फिर भी कुछ ऐसी बातें हैं, जो दोनों में समान हैं। रोटी, कपड़ा और मकान हर देश और काल में इंसान की बुनियादी ज़रूरतें रही हैं, आज भी हैं, कल भी रहेंगी। बाज़ार ने इन बुनियादी ज़रूरतों में विस्तार किया है। जैसे, शिक्षा की जितनी ज़रूरत आज है, पहले नहीं थी। आज अर्थोपार्जन से आगे निकल चुकी है शिक्षा, जीविकोपार्जन का आधार बन चुकी है, शिक्षा! अच्छे-भले किसान से लेकर समृद्ध व्यापारी तक अपने बच्चों को शिक्षा ज्ञान और समृद्धि से ज़्यादा बेहतर नौकरी के लिए देने का निर्णय लेते हैं। ऐसी दशा में शिक्षा का औद्योगीकरण होना कोई हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए। शिक्षा के साथ सूचना क्रांति भी आज हमारी बुनियादी ज़रूरतों में शामिल हो गई है। साथ ही कुछ अन्य ज़रूरतें भी यदाकदा अपना सिर उठा ही लेती हैं, जैसे बच्चों की पिज़्ज़ा माँग, या नयी मोटरसाइकिल की डिमांड!
इस तरह बाज़ार माँग का विस्तार करता जाता है। हर दिन नए उत्पादों से बाज़ार समृद्ध हुए जा रहा है। कभी नया स्मार्टफ़ोन, तो कभी नया फैशन, हमारी माँग को समृद्ध और हमें दरिद्र बनाता जा रहा है। आय में अनुपातिक वृद्धि नहीं हो पाती, क्योंकि उसके लिए अर्थशास्त्र का ‘अर्थ’ अनिवार्य हो जाता है। इकोनॉमिक्स के पास इस ‘अर्थ’ की कमी है। दोनों ही विधाओं का विकास अलग-अलग देश और काल में हुआ है। मंज़िल दोनों की एक ही है, पर पारिभाषिक स्तर पर दोनों का रास्ता अलग प्रतीत होता है। इकोनॉमिक्स की शाब्दिक परिभाषा “घरेलू प्रबंधन” पर आकर रुक सी जाती है। मैक्रो और माइक्रो इकोनॉमिक्स के सिद्धांत इसी इर्द-गिर्द घूमते नज़र आते हैं।
वैसे तो इकोनॉमिक्स का हिन्दी अनुवाद ‘अर्थशास्त्र’ ही है। परंतु, दोनों का इतिहास ना सिर्फ़ एक दूसरे से जुदा है, बल्कि अनूठा भी है। क्योंकि यह दो विविध सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में काल और स्थान के अनुरूप विकसित हुई हैं। तब जब दोनों ही सभ्यताओं में आपसी संबंध स्थापित नहीं हुई थी। राजनैतिक विकास की ऐतिहासिक कहानी फिर भी एक ढाँचे में ढाली जा सकती हैं, पर मेरे अनुमान से अर्थव्यवस्था के साथ यही नज़रिया रखना ग़लत होगा। सभ्यता का विकास और उसकी राजनीति इंसानों की ज़रूरतों पर आश्रित है। हर सभ्यता का इतिहास इस बात का प्रमाण देता है कि हर युग में माँग कमोबेश एक जैसी ही रही हैं, पर उसकी आपूर्ति की कहानी में ज़मीन आसमान का अंतर रहा है। क्योंकि, आपूर्ति का निर्धारण मनुष्यों से ज़्यादा प्रकृति करती आयी है।
उदाहरण के लिए भारत कृषि संपन्न भूमि रही है। साथ ही प्राकृतिक विविधता और खनिज संपदा से भी धन-धन्य धरती रही है। ऐसी समृद्धि विश्व के किसी भू-भाग में देखने को नहीं मिलती है। कहीं कुछ ज़्यादा है, तो कहीं बुनियादी ज़रूरतों की भी भारी कमी रही है, ख़ासकर ध्रुवीय और मरुस्थलीय क्षेत्र इस अर्थ से वंचित रहे हैं। जिस कारण कई समुदाय इस धरती की तरफ़ खींचे चले आये।
जो भूभाग कभी दक्षिणी ध्रुव के नज़दीक था, जिसे भूगोलशास्त्री ‘गोंडवाना’ के नाम से जानते हैं, वह पृथ्वी में होती गतिविधियों के कारण एशिया महाद्वीप से आकर टकरा गया। भौगोलिक गतिविधियों का इतिहास बहुत धीरे चलता है। उसी तरह जैसे ब्रह्मांड की इतिहास की सापेक्षता में धरती का समय धीमा है। जैसे, बृहस्पति ग्रह के लिये एक साल पृथ्वी के बारह सालों के बराबर होता है।
ख़ैर, जैसे भी हुआ गोंडवाना की धरा ऑस्ट्रेलिया का साथ छोड़ एशिया से टकरा गई। इस टकराव के कारण सागर की समृद्धि को समेटे यह भूभाग हिमालय की ऊँचाइयों को छूने चल पड़ा। जहां से गंगा ही नहीं कई जीवनदायी नदियाँ निकली, और भारत के उत्तरी भूखंड को कृषि-प्रधान सभ्यता में बदल दिया। दक्षिणी भूखंड भी पुराने पर्वतों और सागर की समृद्धि लिए अर्थवान है। इस भौगोलिक अर्थ ने विभिन्न सभ्यताओं को अपनी ओर आकर्षित किया। मुख्यतः पहले आर्यन आये, फिर मुग़ल और अंत में मसालों की तलाश में फ़िरंगी आये।
आर्य यहाँ आकर घुलमिल गए। उन्हें यहाँ के मूल निवासियों से अलग पहचान देना ना समाजशास्त्र के लिए संभव है, ना ही इतिहास इसका कोई ख़ास प्रमाण लिए बैठा है। भारतीय जनजाति को इतिहासकार मुख्यतः दो भागों में बाँटते हैं — आर्य और द्रविड़, जिन्हें समाजशास्त्री दो ढंग से परिभाषित करते हैं। पहला, आर्य उतरी भारत के निवासी थे और द्रविड़ दक्षिण भारत के भूभाग में बसते थे। दूसरी व्याख्या कुछ ऐसी है कि आर्य बाहर से आये थे, और द्रविड़ ही भारत के मूल निवासी थे। जिनके ऊपर उन लोगों ने शासन किया। जिस दौर में वेद, पुराण, उपनिषद के साथ ना जाने कितने शास्त्रों का विकास हुआ। वर्णव्यवस्था आयी, जो वंशवाद का शिकार होकर जाति-प्रथा में बदल गई। जो अपने आप में बड़ी ही साधारण-सी घटना थी।
वर्ण व्यवस्था ने समाज को चार खंडों में कर्म के आधार पर बाँटा है —
- ब्राह्मण: पुजारी, पुरोहित, विद्वान और शिक्षक
- क्षत्रिय: शासक, योद्धा, सैनिक
- वैश्य: जमींदार, व्यापारी, साहूकार
- शूद्र: सेवा प्रदाता, कृषि, पशुपालन आदि श्रमिक कार्य
वर्ण-व्यवस्था अपने आप में एक आर्थिक-सामाजिक संरचना थी। परंतु, अर्थ और समाज का आधार व्यक्ति होता है, और हर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के साथ-साथ अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का भी प्रत्यक्ष होता है। हर व्यक्ति के विचार, अवधारणाएँ और कल्पनाएँ अलग होती हैं। फिर भी कुछ बुनियादी ज़रूरतें और कल्पनाएँ हम सब की एक जैसी ही होती हैं। मैंने किसी को कभी कहीं दरिद्रता को अपनी महत्वाकांक्षा का आधार बनाते नहीं देखा है, क्या आपने देखा है?
जीवन समृद्धि की तलाश में एक प्रयास ही तो है। शूद्र दरिद्र थे, हैं, और इसी सामाजिक मनोदशा का शिकार राजनीति रहेगी, तो निश्चय ही आगे भी यही हाल रहेगा। वैश्य की सामाजिक औक़ात अपेक्षाकृत बेहतर और संतोषजनक रही है। कुछ ऐसा ही समीकरण क्षत्रिय और ब्राह्मण समुदाय में भी रहा है। इतिहास गवाह है कि कभी ब्राह्मणों ने क्षत्रिय धर्म निभाया हो, यदाकदा वैश्य के भी क्षत्रिय वर्ण को धारण करने के क़िस्से इतिहास सुनाता है। कुछ बिरले शूद्र भी वर्ण-व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करने में सफल रहे हैं। पर, इतिहास से ज़्यादा इसके प्रमाण साहित्य देता आया है। भावनात्मक स्तर पर तो यह निःसंदेह उपयोगी है, पर व्यावहारिक दुनिया में इसके अभाव का ज्ञान ही इतिहास हमें देता आया है। इस बात को समझना कितना मुश्किल है कि कोई भी पिता अपनी संतान के लिए दरिद्रता की कल्पना कर पाने में भावनात्मक रूप से असमर्थ है। कोई ब्राह्मण पिता कैसे अपनी संतान के लिए शूद्र वर्ण का चुनाव कर सकता है?
दर्शनशास्त्र भी निष्काम कर्म को समझाने में मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक स्तर पर असफल ही रहा है। कर्म के सिद्धांत हैं, पर उनका आचरण करना आसान नहीं है, और फ़ितरत से इंसान एक आलसी प्राणी है। वैसे, तो जीवन ही आलस्य का शिकार प्रतीत होता है। एक कुत्ता भी अपनी जगह से तभी हिलता है, जब उसे भूख लगती है, या फिर कोई ख़तरा उसे अपनी ओर आता नज़र आता है। कर्म के फल की अपेक्षा ही कर्म की एक मात्र बौद्धिक और तार्किक प्रेरणा है। कर्म के लिए इस अपेक्षा का होना अनिवार्य है। मृत्यु एक ऐसी ही अनिवार्य अवांछित अनुमान है। मृत्यु की सत्यता पर भी गंभीर दार्शनिक चिंतन हुए हैं, जन्म-पुनर्जन्म के ना जाने कितने क़िस्से-कहानियाँ साहित्य हमें सुनाता रहता है?
जो भी था, इतिहास ने हमें अपनी उत्पत्ति को समझने-समझाने का हर संभव तार्किक और प्रामाणिक प्रयास किया है। इस प्रयास में कमियाँ हैं, आगे भी रहेंगी, क्योंकि सूचना क्रांति तो हाल-फ़िलहाल का इतिहास, जहां से सत्ता और पत्रकारिता ने इतिहास को बनाने-बिगाड़ने का ठेका ले लिया है। वैसे भी, भारतीय इतिहासकारों की हर पीढ़ी अपने पूर्वजों से असहमत और असंतुष्ट ही रही है।
समय अपनी गति से चलता रहा, और मनुष्य की गतिविधियाँ अपनी गति से प्रगति करती गई। ज्ञान-विज्ञान के कई क्षेत्र खुले, खुलते ही जा रहे हैं। यातायात के साधनों के विकास से मध्य एशिया की मरुभूमि से भारतीय जनजाति का संपर्क हुआ। यहाँ की समृद्धि देखकर मौजूदा प्राकृतिक संपदा में अपनी भी हिस्सेदारी जताने वे यहाँ चले आए। कुछ युद्ध हुए, कुछ समझौते, और आख़िर में मुग़लों का संपन्न साम्राज्य स्थापित हुआ। जितनी आर्य जनजाति परदेशी थी, उतने ही पराये मुग़ल भी थे। लेकिन यहाँ एक ऐतिहासिक अंतर था। जब आर्य आये थे, तब तकनीकी और सामाजिक विकास अपने प्रारंभिक दौर में थे। पाषाण युग का समय रहा होगा। तब संपत्ति का निजीकरण नहीं हुआ होगा। आदिवासी संस्कृति की प्रबलता रही होगी। जिसने जहां जितना अर्थ खोजा, उसे उतना मिलता गया। ज्ञान ने धीरे-धीरे संपदा का बँटवारा करने पर समाज को मजबूर कर दिया। क्योंकि, ‘अनंत की कल्पना’ दर्शन और साहित्य में भले संभव है, पर अर्थशास्त्र और विज्ञान इस अनुमान से वंचित ही रहा है। मेरी समझ से अनंत और उससे जुड़ी कल्पनाएँ इस व्यावहारिक सीमित जगत का इकलौता अभिशाप है।
ख़ैर जब तक मुग़ल आये, तब तक निजी संपत्ति की स्थापना हो चुकी थी और जाति-प्रथा हमारा सच बन चुकी थी। सामाजिक संरचना एक निर्धारित आकार ले चुकी थी। जिसे मुग़लों ने तोड़ने और जोड़ने में अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभायी। ऐतिहासिक स्तर पर दोनों पंथों का एक पृथक स्वतंत्र सामाजिक अस्तित्व था। जहां तक मेरी जानकारी है, ‘हिंदू’ शब्द का ज़िक्र सनातन शास्त्रों और ग्रंथों में मौजूद नहीं है। निसंदेश मेरी सूचना सीमित हो सकती है। रहन-सहन, कला, संस्कृति से लेकर व्यक्तिगत अवधारणाओं के कारण सामाजिक विविधता से हमारे पूर्वजों का सामना हुआ। जैसे-तैसे समाज और राजनीति चलती रही। मुग़ल कभी अपने, तो कभी पराये लगते रहे। पर, यूरोपीय देशों से जब व्यापारी ईस्ट इंडिया कंपनी को लेकर भारत की धरती पर पहुँचे, तब काल ने एक बार फिर करवट ली।
मसालों के व्यापारियों ने यहाँ साम्राज्य स्थापित कर लिया, जो सिपाही विद्रोह के बाद कंपनी शासन के अंत के साथ ब्रिटिश राज की शुरुआत कर बैठा। तब भी सामाजिक एकता की कमी के कारण हमें ग़ुलामी की लगभग एक सदी गुज़ारनी पड़ी। हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने सामाजिक एकता और अखंडता की ज़रूरत को समझते हुए कई कदम उठाये, पर द्वितीय विश्व-युद्ध ने हमें अधपकी आज़ादी को स्वीकार करने पर विवश कर दिया। भारत में शासन-प्रशासन संभलना आर्थिक स्तर पर अग्रेजों के लिये असंभव हो चुका था। भारत में भी विद्रोह की हालत थी। संभवतः, चौरी-चौरा जैसी हिंसक घटना को देखते हुए ही, अहिंसा के पुजारी ने भारतीय सेना को विश्व-युद्ध में भेजने की सहमति दी होगी।
अधपकी आज़ादी का ही नतीजा है कि धार्मिक विभाजन हमारा ऐतिहासिक सच बन बैठा। किसी तरह भारतीय राजनीति ने ख़ुद को संभालते हुए लोकतंत्र की स्थापना की, बड़ी जद्दोजहद के बाद एक संविधान को हमने ख़ुद पर लागू किया। पर, यहाँ भी अशिक्षा हावी रही। जिसका निवारण आज तक नहीं हो पाया है। स्वतंत्रता सेनानियों और विचारकों ने हर संभव प्रयास किया, जिसका परिणाम आरक्षण के रूप में सामने आया। संविधान में हर दस साल बाद आरक्षण की ज़रूरत पर अवलोकन कर, उसकी दशा और दिशा का निर्धारण करने की ज़िम्मेदारी संसद पर छोड़ दी। आज दशा कुछ ऐसी है कि आरक्षण की ज़रूरत अपेक्षाकृत बढ़ती ही जा रही है, जबकि इसके अतिक्रमण के बारे में चेतावनी दी गई थी। संविधान के रचनाकारों ने इसके उन्मूलन की ज़िम्मेदारी हमें सौंपी थी। आज के हालात से तो हम सभी बखूबी वाक़िफ़ हैं। आज भी निचली जाति आरक्षण के भरोसे बैठी है, और दुर्दशा ऐसी है कि सवर्णों को भी आरक्षण की ज़रूरत महसूस होने लगी है। जिसका प्रमाण आज की राजनीति खुलेआम दे रही है।
जाति-प्रथा की बुनियाद ना जाने कितनी अज्ञानता, कितने भ्रम और संशय पर आधारित है?
यह एक अवधारणा मात्र है। जिसे समाज ने बखूबी अपने स्वार्थनुसार तोड़ा-मरोड़ा है। अगर, यह कोई प्राकृतिक ज़रूरत होती, तो बात कुछ और होती। पर, अंतर्जातीय संपर्क और विवाह ने हमें सामाजिक विविधता का वरदान ही दिया है। आज कई बुद्धिजीवी इस मत में भी नज़र आते हैं कि आरक्षण को अंतर्जातीय विवाह से उत्पन्न नागरिकों के हवाले कर देना चाहिए। पर, मेरी समझ से ऐसा आचरण सामकाजिक और राजनैतिक असंतुलन पैदा कर सकता है। आर्थिक आरक्षण एक वैकल्पिक समाधान हो सकता था। इस पर अच्छी-ख़ासी बहस भी हुई थी, होती भी रहती है। पर, आर्थिक महत्वाकांक्षा और स्वार्थ इस विकल्प का वैचारिक और व्यावहारिक खंडन करती आयी है। वैसे, आज हम आर्थिक दरिदता के उस दौर से गुजर रहे हैं, जहां धर्म तक ने नैतिकता और जीवन का साथ छोड़ दिया है। ज़बरदस्ती इसे कलयुग बता देने से किसी समस्या का समाधान संभव नहीं है। वैसे भी युगों के इस निर्धारण का कोई तार्किक या वैज्ञानिक पक्ष नहीं है। इस बात को मान लेने में ही भलाई है कि ग्रंथों का ज्ञान-विज्ञान यथावत रूप से सामाजिक सच्चाई को नहीं समझा सकता है। यह एक बौद्धिक विडंबना है कि समकालीन सामाजिक समझ के अनुसार जाति वही है, जो कभी नहीं जाती। जाति अब जड़ता का शिकार हो चुकी है। जीवन जड़ से पोषित होता है, पर जड़ता में जीवन मौजूद नहीं है। वर्ण-व्यवस्था और जाति-प्रथा जिस अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग थी, वह आज बदल चुकी है। बाज़ार बदल चुका है, इंसान की ज़रूरतें भी बदल चुकी हैं। हम इन तथ्यों से परिचित भी हैं, फिर भी हमारी सांस्कृतिक चेतना बौद्धिक जड़ता से ग्रस्त है।
हमारी माँगों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। पर, आय और आपूर्ति का विकास अपेक्षाकृत पिछड़ा रह गया है। जिस कारण व्यक्तिगत, पारिवारिक जीवन से लेकर सामाजिक और राजनैतिक अर्थव्यवस्था प्रभावित हुआ है। रोटी, कपड़ा और मकान ही आज बुनियादी ज़रूरतें नहीं रह गई हैं। मोबाइल फ़ोन से लेकर मोटरगाड़ी तक हमारी बुनियादी ज़रूरतों से आकर जुड़ गई हैं। क्योंकि, पाशविक इच्छा और ख़तरा से उबरते ही मन मंडराने लगता है। इच्छा विस्तृत होती जा रही है। बुनियादी ज़रूरतों की जैविक रेखा मिट सी गई है। जिस कारण महंगाई बढ़ती जा रही है। क्योंकि, अगर पिछले साल तक हमारी ज़रूरतें १००० रुपये में पूरी हो रही थी, और आज भी उन उत्पादों के दाम में कोई अंतर नहीं आया है। अर्थात्, वस्तु-विशेष की महंगाई में कोई अंतर नहीं आया है। फिर भी अब हमारी ज़रूरतें १००० रुपये में पूरी नहीं हो पा रही हैं, क्योंकि अब हमारी ज़रूरतों का दायरा बढ़ चुका है। कुछ नयी चीजें हमारी राशन से लेकर जीवन की ज़रूरत बन चुकी है, जो पिछले साल तक अस्तित्व में ही नहीं थी। इस तरह बाज़ार माँग के विस्तार से महंगाई बढ़ाता जाता है।
शासन-प्रशासन अथक प्रयासों के बावजूद अर्थ की इस आपूर्ति में निरंतर असफल रहा है। जिसका मुख्य कारण मेरी समझ से यह है कि बुनियादी ज़रूरतों की सूची पर ही हम एकमत नहीं हो पाते हैं। जो हमें महंगाई के दूसरे आयाम पर ले आता है।
२) माँग की विविधता
ज़रूरत, इच्छाएँ, कल्पनाएँ, अवधारणाएँ, महत्वकांक्षाएँ आदि-अनादि प्राकृतिक स्तर पर भी व्यक्ति-विशेष पर निर्भर करती है। शेर की ज़रूरतें भेड़-बकरियों से अलग होती हैं। एक कलात्मक व्यक्तित्व की ज़रूरतें किसी वैज्ञानिक से अलग होंगी ही। कोई भी व्यक्ति अपनी तुलना भेड़-बकरियों से तो नहीं ही करना चाहता है। हर पिता अपनी संतान को किसी शेर की तरह शक्तिशाली, निर्भय, आत्म-निर्भर देखना ही पसंद करेगा। भेड़-बकरियों की तरह कौन अपने बच्चों को पालना चाहेगा। यहाँ तुलना है। साहित्य है। कल्पना है। जीवन इन सब में एक जैसा प्रवाहित हो रहा है। उसकी बुनियादी ज़रूरतें नहीं बदल रही हैं।
खाना, संभोग और ख़तरा — ये तीन ज़रूरतें किसी भी जीवन का अभिन्न हिस्सा है। खाना नहीं, तो जीवन ख़तरे में आ जाता है। संभोग नहीं, तो मृत्यु पर ख़तरा आ जाता है, क्योंकि ऐसी अवस्था में जैविक जीवन जिसे हम वंश के रूप में जानते हैं — वह ख़तरे में आ जाता है। पुनर्जन्म की पूरी अवधारणा ही संकट का शिकार हो जाती है। आस्था का आधार ही भंग होने के कगार पर आ जाता है। नैतिकता तक ख़तरे में आ जाती है। और जहां ख़तरा है, वहाँ से भाग जाने में ही जीवन है। इसलिए, ख़तरा हमारे लिए व्यक्तिगत स्तर पर सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति है। हमारे कर्मों की दशा और दिशा यही मनोदशा निर्धारित करती जाती है। और यही मनोदशा माँग की विविधता को भी जन्म देती है।
यहाँ पर दो प्रकार की सामाजिक और राजनैतिक चुनौती उत्तपन्न होती है। पहली, इस विविधता से बुनियादी ज़रूरतों का निर्धारण कैसे होगा? किन ज़रूरतों की पूर्ति राजनैतिक ज़िम्मेदारी होनी चाहिए? किनकी जवाबदेही परिवार और समाज की होगी? और किन इच्छाओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति ज़िम्मेदार होगा?
फिर आती है, दूसरी चुनौती इन माँगों की आपूर्ति कैसे होगी?
माँग और आपूर्ति के आपसी परस्पर संबंध हमारे लिए निजी दैनिक जीवन के लिए बहुत ज़रूरी हैं। क्योंकि, यह हमें सुरक्षा का बोध दिलाते हैं। जो एक सामाजिक और राजनैतिक ज़िम्मेदारी है। इसलिए, यह ज़रूरी है कि मौजूदा शासन-प्रशासन हमारी इन बुनियादी ज़रूरतों की मुस्तैदी से पूर्ति करता रहे। काफ़ी चिंतन और विचार-विमर्श से मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि खाना, शिक्षा और स्वास्थ्य, आज के समकालीन इतिहास की बुनियादी ज़रूरतें हैं। क्योंकि, इन मुद्दों पर जनमानस लगभग एकमत नज़र आता है। स्मार्टफ़ोन से लेकर आधुनिक सुख-सुविधा की पूर्ति व्यक्ति बाज़ार से कर सकता है, अगर उसके पर पर्याप्त क्रय-शक्ति या आमदनी हो। यहाँ से शुरू होती है, हमारी पहली चुनौती का दायरा!
खाना, शिक्षा और स्वास्थ्य में तेज़ी से आयी विविधता के कारण उसकी मूलभूत भूमिका का निर्धारण संकट में है। आज खाना तो पूर्णतः बाज़ार के भरोसे चल रहा है। सरकारी राशन दुकान भ्रष्टाचार का शिकार होकर ना जाने कब हमारे आस-पड़ोस से विलीन हो गयीं। आज देश में शिक्षा भी बहुरूपिया हो चुकी है। ना जाने कितने बोर्ड हैं? ना जाने कितने शर्त? और कितने नियम और क़ानून? यहाँ तक कि स्वास्थ्य विभाग की हालत बड़ी नाज़ुक है। सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता दिनों-दिन व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक भ्रष्टाचार की बदौलत गिरती ही चली जा रही हैं। क्योंकि, मौजूदा लोकतंत्र ऐसी किसी बुनियादी अवधारणा से ही वंचित है, जो वस्तुनिष्ठ तरीक़े से हमारी माँगों की विविधता में जीवन का आधार निर्धारित कर पाये। सामाजिक संरचना एक संविदात्मक समझौता है। नैतिकता का पैमाना भी एक सामाजिक अनुबंध या कॉंट्रैक्ट है। हर समाज में नैतिकता का नियम-क़ानून अलग है। कहीं मांसाहार अनैतिक है, तो कहीं गोमांस का व्यापार भी धड़ल्ले से चल रहा है। जिस देश में गौ-हत्या के नाम पर नरसंहार होना आम बात है, वही देश गोमांस के निर्यात में नयी ऊँचाइयाँ भी छू रहा है। इस सामाजिक और राजनैतिक असुन्तलन की अवस्था में जनमानस को गुमराह करना कौन सी बड़ी बात है?
नतीजा यह है कि खाना, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ-साथ जीवन और संभोग भी तत्कालीन ख़तरे में शामिल हो गया है। देश में बढ़ती आत्महत्या का दर, और बढ़ते बलात्कार के हादसे इस ख़तरे की घंटी को लगातार बजा रहे हैं। फिर भी कोई सुनने को तैयार ही नहीं है। हर किसी का जीवन संकट में है। हर स्तर पर संकट है। यहाँ तक कि लोग भूखे मर रहे हैं, कुपोषण का शिकार तो प्रायः हर बचपन है। कोई मोटापे का शिकार है, तो किसी में फूंक बराबर जान नज़र नहीं आती। जिस देश का बचपन ऐसी दरिद्रता का शिकार है, उसकी जवानी कैसे संस्कारी और ज़िम्मेदार बन पाएगी?
संस्कृति में समृद्धि के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक बुनियादी सुरक्षा अनिवार्य है। कला, साहित्य, अध्यात्म, दर्शन से लेकर वैज्ञानिक और तकनीकी उन्नति के लिए यह सुरक्षा अत्यावश्यक है। जिसकी आपूर्ति की ज़िम्मेदारी शासन-प्रशासन की आदिकाल से रही है। इतिहास भी उसी साम्राज्य की गौरव-गाथा सुनाता है, जो आर्थिक ऐश्वर्य से परिपूर्ण रहा है।
हमारा समाज ना सिर्फ़ धर्म के नाम पर बाँटा हुआ है, उसके अंदर भी कई पंथ हैं, कई जातियाँ! हर पंथ, समुदाय की बुनियादी ज़रूरतें अलग हैं। होनी भी चाहिए, पर सबसे पहले समाज की सबसे बुनियादी जीवन की ज़रूरत निर्धारित होनी चाहिए, और इस विविधता में जीवन की एकता को स्थापित किए बिना लोकतंत्र का दावा करना बेईमानी नहीं तो और क्या है?
पिछले कुछ सालों से भारत का लोकतांत्रिक सूचकांक या डेमोक्रेटिक इंडेक्स तेज़ी से नीचे गिरा है। चूँकि, बुनियादी माँगों का निर्धारण नहीं हो पाया, तो उसकी आपूर्ति की ज़िम्मेदारी का बंदरबाँट चल रहा है। स्थानीय राजनीति से लेकर संसद तक इस राजनैतिक विपदा का शिकार है। जो अर्थव्यवस्था आज़ादी के समय लागू हुई थी, आज भी उसी का बिगड़ा हुआ रूप हमारे समक्ष है। नेहरू की सरकार ने ट्रिकल-डाउन थ्योरी (या टपकन सिद्धांत) के आधार पर अर्थव्यवस्था को संचारित किया था। जहां केंद्र मज़बूती से अपनी भूमिका निभा रही थी, और राज्य सरकारों को उनकी स्वायत्तता के साथ आर्थिक योगदान भी दे रही थी। पंचायत राज की कल्पना थी, पर आर्थिक कारणों से स्थगित कर दी गई। जो संविधान के 73वां संशोधन अधिनियम, 1992 के बाद 24 अप्रैल, 1993 से लागू हुआ। ३० साल गुजर गये, पर पंचायती राज के नाम पर आज तक पंचों और सरपंचों के मकान और उनके आगे एक बड़ी वाली गाड़ी ही खड़ी हो पायी है। क्योंकि, आज भी अर्थव्यवस्था टपकन सिद्धांत पर ही आधारित है। सारे टैक्स लगभग केंद्र सरकार हड़प रही है, कुछ राज्य सरकार और छनछनाकर जो अर्थ पंचायत तक पहुँचता है, उसका उपयोग किसी कल्याणकारी योजना में लगाकर भ्रष्टाचार चल रहा है। वैसे भी, जितना पहुँचा है, उतने में पार्षद, सांसद या सरपंच की ज़रूरतें ही पूरी नहीं हो पा रही हैं। टैक्स के नियम-क़ानून दिन-प्रतिदिन उलझते जा रहे हैं। भारत की कर-व्यवस्था एशिया की सबसे जटिल और दुनिया की दसवीं सभी उलझी हुई व्यवस्था है। एक आम-आदमी को पता भी नहीं होगा कि वह कितने कर भर रहा है? और उसका उसे क्या लाभ हो रहा है?
मीडिया भी अंदाज़ा ही लगा रही है। जनता अपनी ही शिक्षा-अशिक्षा से परेशान है। कुछ अर्थशास्त्री इस ख़तरे की तरफ़ इशारा करने का प्रयास करते हैं। पर, अर्थव्यवस्था ही इस राजनीति की इकलौती समस्या तो है नहीं, यहाँ तो धर्म-कर्म भी ख़तरे में है। इसी उलझन में सब अपना-अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। अपने ही बच्चों की चिंता कर पाने में वे असमर्थ प्रतीत होते हैं। तभी तो ४०-५० छात्र हर दिन मौत से साक्षात्कार करने में व्यस्त हैं। क्योंकि, महंगाई यहाँ काल्पनिक हो चुकी है। अनुमान लगाना ही कठिन होता जा रहा है कि कितनी आय में एक व्यक्ति की ज़रूरतें पूरी हो पायेंगी?
इस लोकतंत्र को एक वैकल्पिक राजनैतिक और आर्थिक कल्पना ही बचा सकती है।
३) शिक्षा का व्यापारीकरण
इस तरह आज महंगाई के अनेक प्रकार और प्रारूप संभव हैं। जैसे, पेट्रोल की क़ीमत के बढ़ जाने से आलू के दाम बढ़ जाते हैं, क्योंकि आलू को बाज़ार तक पहुँचाने का खर्च बढ़ गया। इस तरह कई कारक महंगाई का निर्धारण करते हैं। पर इन सब घटकों में शिक्षा एक ऐसा घटक है, जो अर्थ को संचारित करने में सबसे अहम भूमिका अदा करती है। क्योंकि, हम माने या ना माने शिक्षा की मौलिक ज़िम्मेदारी ज्ञान है, नौकरी का व्यापार नहीं। सबसे अहम बात यहाँ यह भी है कि कोई नौकर बनने की इच्छा तक नहीं पालता। रोज़गार और नौकरी में ज़मीन-आसमान का अंतर है, जिसे आज की शिक्षा-व्यस्था ने मिटाने का राजनैतिक षड्यंत्र रचा रखा है। क्योंकि, जीवन से जीवन का दर्शन ही ग़ायब होने लगा है। जिस काम को करने से हर रोज़ हमारे अर्थ में विस्तार हो, वह हमारा रोज़गार बन सकता है। पर जिस नौकरी में तन-मन-धन सब बर्बाद हो रहा है, वह कैसे किसी का रोज़गार बन सकता है?
शिक्षा-प्रणाली अंदर से खोखली हो चुकी है। किसी तरह डिग्री-फ़िग्री बाँटकर देश की जवानी को नौकर तो वह बना देती है, पर रोज़गार से व्यक्ति वंचित रह जाता है। हर दिन किसी मशीन की तरह चलता वह दफ़्तर पहुँचता है, जैसे-तैसे दिन गुजरता है, गृहस्थी चलता है। एक दिन सेवा-निवृत होकर ख़ुद से सवाल पूछता है — “आगे क्या?”
पूरी आश्रम व्यवस्था यहाँ शिक्षा की अनुपलब्धि का शिकार होकर शर्मसार हो जाती है। जिसमें शिक्षा और धर्म का व्यापारीकरण सबसे अहम भूमिका अदा करता है। क्योंकि, इन दोनों को ही ज्ञान और उसकी समृद्धि की सामाजिक ज़िम्मेदारी दी गई है। जिस भी देश काल में इनका व्यापार होगा, महंगाई वहाँ डायन बनकर डसती ही रहेगी। क्योंकि, ज्ञानार्जन ही ज़रूरतों का अनुमान लगाने और अर्थ कमाने में हमारा साथ दे सकता है। अर्थशास्त्र में अर्थ का फलक बहुत व्यापक है। इकोनॉमिक्स की तरह “घरेलू प्रबंधन” तक वह सीमित नहीं है। अशिक्षा के कारण ना हम घर ढंग से चला पा रहे हैं, ना गृहस्थी का ही कोई ठिकाना है, ना ही अर्थोपार्जन की अभिलाषा पूरी हो पा रही है। इसलिए, देश की जवानी शॉर्टकट लेने में ही अपनी भलाई देख पा रही है। इससे आगे का दर्शन ही मौजूद नहीं है। कल्पना-शक्ति की अत्यंत दरिद्रता यहाँ जनमानस पर हावी है। साहित्य और कला की गिरती गुणवत्ता इस बात के लिए पर्याप्त प्रमाण होनी चाहिए।
क्या कोई समाधान संभव है?
अगर हम पहले समस्या पर एकमत होते हैं, तो हाँ! संभव है। प्रत्यक्षों के आधार पर कुछ अनुमान लगाने का प्रयास आगे करना चाहूँगा। पहले इस बात पर आपकी सहमति-असहमति ज़रूरी है — “महंगाई एक आर्थिक समस्या है, या काल्पनिक विपदा?”
मेरी समझ से महंगाई एक आर्थिक अवधारणा है, जो व्यक्ति-विशेष की कल्पना पर निर्भर करती है। उसका स्वरूप अंततः कल्पना पर ही निर्भर करेगा। क्योंकि, मैंने अपने प्रत्यक्ष में कई धनवानों को भी दरिद्र देखा है, और कुछ फ़क़ीरों को भी अर्थवान, हर फ़क़ीर नहीं! ख़ासकर जो झोला उठाकर भाग जाने की बात करता हो, वह तो बिलकुल भी नहीं। वह फ़क़ीर ईमानदार भी कैसे हो सकता है, जो झोला लिए फिरता हो? अशिक्षित ही सही साधु-संत अगर अज्ञानी ही हैं, तो धर्म पर ख़तरे की ज़रूरत भी क्या है? ऐसी दशा में क्या धर्म ख़ुद ही ख़तरा नहीं बन चुका है?