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केंद्र ख़तरे में है ॰॰॰

हर समस्या की जड़ आस्था के केंद्र में निहित है। आस्था तो हर समस्या का समाधान है। तभी तो हर समस्या की जड़ आस्था का केंद्र बन जाता है।

पिछले साल के लोकसभा के चुनाव से लेकर आज तक की ख़बरों पर मैंने अपना शोध किया है। कुछ तथ्यों के आधार पर मैं अपने कथन को स्थापित करने की कोशिश करूँगा। कालक्रम में एक एक कदम पीछे चलते राजनीति की ऐतिहासिक गली में चलिए टहलकर आते हैं। कदम अगर लड़खड़ाये तो सहारे की उम्मीद रखता हूँ। आज ८ फ़रवरी, २०२५ को दिल्ली में भाजपा की सरकार बनी। आज सुबह ही मुझे एक ख्याल आया था कि अगर आज बीजेपी की सरकार दिल्ली में बनी तो केंद्र ख़तरे में आ जाएगा। ऐसा मुझे क्यों लगा इसके पीछे राहुल गांधी जी का हाथ है। कल ही वे बता रहे थे कि महाराष्ट्र के चुनावों में धांधली हुई है। उन्होंने अपनी बात प्रमाणों के आधार पर की, और तार्किक स्तर पर इनका खंडन करना मुझे कठिन जान पड़ा। सबसे मजेदार बात उनमें से यह थी कि हिमाचल प्रदेश की आबादी बराबर वोटरों की संख्या लोकसभा और विधानसभा के चुनावों की बीच बढ़ गया। यह कैसे संभव है? ऐसी जनसंख्या विस्फोट क्या कोई सामान्य ख़बर थी, जो चुप गई?

खैर, महाराष्ट्र चुनाव के बाद ही रवीश कुमार जी की रिपोर्ट में भी ऐसी बातें तथ्यात्मक ढंग से रखी गई थी। २०२५ के चुनावों के बाद देश में दुर्घटनाओं की भूमिका अहम रही है। हाल में हुए कुंभ के भगदड़ को ही ले लीजिए। इसी बीच एक दुर्घटना अमेरिका में भी घट गई। इस बार ट्रम्प की सरकार आ गई, और छा गई। ना निमंत्रण आया, ऊपर से उपहार में यहाँ से गए उधार को भी सूट समेत लौटा दिया। इस निंदनीय घटना को भी जनता पचा गई। मगर अर्थव्यवस्था की दशा ऐसी है कि गली मुहल्लों में बदहजमी का माहौल है। बिहार के तारापुर जिले में चन्दुकी गांव में बैठा हूँ। यहाँ इंटरनेट भी ठीक से नहीं मिलता। मुख्य सड़क से ढाई तीन किलोमीटर अंदर एक खूबसूरत सा गाँव। आज यहाँ आए मुझे दस दिन हो गए। शायद ही एक रात गुजरी हो जब लाउडस्पीकर से कोई शांति की माँग ना कर रहा हो। करें तो करें क्या? युवा बेरोजगार है। ना पैसा है, ना काम। मेरे पास बस पैसा नहीं है। काम बहुत। जब से यहाँ आया हूँ, भारतीय और पाश्चात्य दर्शन के बीच एक तुलनात्मक अध्ययन करने की कोशिश कर रहा हूँ। अफ़सोस! सरस्वती पूजा के दिन एक विद्यार्थी ना सो पाया, ना पढ़!

देश में ऊर्जा ना जाने कब से उबाल मार रही है, इधर हम और बांध बनाये जा रहे हैं — ऊर्जा और अर्थ में मुद्रण की माया का बाँध। जैसा की हम सब जानते होंगे कि ऊर्जा का निर्माण संभव है, ना ही उसका विनाश, कुछ ऐसी ही परिभाषा उस ब्रह्म की भी है, जिसे हमारा दर्शन एक मात्र सत्य के नाम से जानता है। जिस प्रकार व्यक्ति अपनी भावना अभिव्यक्त ही कर सकता है, करुणा संभव है, चमत्कार नहीं। भावना एक मानसिक ऊर्जा है, जिसे हम सभी महसूस कर सकते हैं। हर भावना के साथ अर्थ जुड़ा होता है। कुछ भावनाओं का अर्थ ज़्यादा है, कुछ का कम। क्यूंकि ऊर्जा का सिर्फ़ संचार संभव है, फलस्वरूप अभिव्यक्ति अर्थ के रूप में समाज में मुद्रण के रूप में संचारित होती है। अगर वितीय समस्याओं का समाधान मुद्रण के उत्पादन से संभव होता, तो आप ख़ुद से सोचिए २००० के नोट को छापने में कितने रुपये खर्च होते होंगे?

राजनैतिक दर्शन के चश्मे से देखें तो किसी भी देश काल की राजनीति उसकी अर्थव्यस्था की अभिभावक होती है। क्यूंकि नीति निर्धारण इसलिए जरूरी है क्यूंकि हर पीढ़ी के पास जो ऊर्जा है, वह सीमित है। इसी दर्शन पर सतत विकास का सिद्धांत आधारित है। समस्या किसी भी दर्शन में नहीं होती, समस्या चश्मे में है। व्यक्ति की प्राथमिकताओं पर ही देश की दिशा का निर्धारण होता है। ख़ुद से सवाल पूछकर देखिए क्या प्राथमिकताएँ हैं आपकी? मैंने अपने इहलोक से कई सवाल पूछे, कई जवाबों के सार आपको मेरे इहलोकतंत्र में मिलेंगे। मगर एक सामान्य मानसिकता जिसका शिकार मुझे हर गली, हर चौक, हर चौराहे पर मिला, वह अर्थ नहीं मुद्रण के पीछे भटक रहा है। पैसा वह गाजर है, जिसे दिखाकर हमें ना जाने कहाँ कहाँ हांका जा रहा है। ना जाने हम कहाँ भटक रहे हैं?

स्वराज के ऐसा आदर्श है जिसे हमारा संविधान हमारा लक्ष्य बताता है। क्या है स्वराज? मेरी समझ से जो ख़ुद पर राज करता है, उसे ही स्वराज का बोध है। उसके लिए ख़ुद का बोध तो होने ही चाहिए। अपनी जरूरतों का अनुमान तो होने ही चाहिए। क्या आप एक आदर्श पैमाना बना पाएंगे जहाँ आप कह सकें आप सुरक्षित हैं? मैंने तो आज तक ऐसा कोई संत नहीं देखा। मैं ख़ुद बड़ा असुरक्षित रहता हूँ। सोचता हूँ!!! ॰॰॰

सरकार बदली तो रणनीति भी बदलनी ही चाहिए। पब्लिक पालिका की विचारधारा इस देश के दर्शन से ही तो समृद्ध हुई है। मैं तो एक शोधार्थी हूँ। मेरे परिवार ने मेरा साथ दिया, तभी तो इस अर्थव्यवस्था में पिछले एक दशक से बिना एक पैसा कमाये घर बैठा हूँ। मैं आभारी हूँ। मुझे पढ़ने लिखने में आनंद मिलता है। राजनीति के बदलने से संभवतः विश्वविद्यालय के बंद दरवाजे भी खुलने लगें। एक नई परिकल्पना का निर्माण करना भी आज हमारी ही जिम्मेदारी है। मेरी चाहत है कि पब्लिक पालिका कैसे एक आर्थिक विकल्प हो सकता है, इस पर गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए। क्यों देश देश है? हमने नहीं तो किस महामानव ने शरहदें बनायीं हैं? 

Critical Analysis of Your Blog Post: "केंद्र ख़तरे में है"

Your blog post is deeply reflective, politically charged, and philosophically profound, yet it lacks structural coherence in some areas, making it slightly challenging for a casual reader. It is a compelling blend of political observation, economic critique, and personal contemplation, which makes it both engaging and complex. Below is a critical analysis of its strengths and areas for improvement.


Strengths: What Works Well?

1️⃣ Narrative Flow & Engaging Style

The post reads like a personal journal with a philosophical undertone, which makes it immersive and thought-provoking. Your style of linking political events, personal experiences, and philosophical insights keeps the reader emotionally and intellectually engaged. The transitions between these themes are fluid, though at times abrupt.

2️⃣ Strong Political Commentary with a Unique Lens

You present a convincing critique of the political landscape, electoral manipulation, and governance failures. The way you tie Maharashtra elections, American politics, and the larger erosion of democratic integrity together is insightful. Your approach resembles that of a public intellectual rather than a party-affiliated commentator, which lends credibility to your perspective.

3️⃣ Economic Philosophy & Energy Analogy

The discussion on money, printing of currency, and its relation to energy conservation is original and thought-provoking. Your analogy of monetary inflation and conservation of energy brings an interesting interdisciplinary approach, merging political economy, physics, and philosophy.

4️⃣ Connection to Public Palika & Personal Experience

Your seamless integration of Public Palika as a potential economic solution makes the post purpose-driven. The way you ground your reflections in your own journey as a researcher adds authenticity and credibility to the argument.


Areas for Improvement: Where It Needs Refinement?

1️⃣ Lack of a Central Thesis or Clear Argument Progression

While the article is rich in insights, it does not build towards a clear conclusion. You jump from election fraud to political philosophy, from economics to personal experiences, making it hard for the reader to pinpoint the key takeaway.

Solution: Define a clear thesis in the opening paragraph and then develop the arguments in a structured manner. For example:

"This article examines the weakening of India's political and economic center, drawing from recent electoral manipulations, economic mismanagement, and a larger philosophical crisis in governance. Through this, I argue for an alternative model—Public Palika, which can restore democratic and economic integrity at a grassroots level."

This way, the reader knows what to expect and can follow the argument with more clarity.

2️⃣ Emotional Intensity Overpowers Logical Flow

Your piece is emotionally powerful, which draws in the reader, but at times, the passion overshadows the logical progression. For example, the mention of loudspeakers in villages, while an important social issue, feels slightly out of place in an article primarily about political and economic crises.

Solution: Balance emotion with logic by keeping personal reflections as interjections, rather than the main argument structure.

3️⃣ The Energy & Money Analogy Needs More Clarity

Your comparison of money circulation and the conservation of energy is philosophically intriguing but scientifically and economically incomplete. While the conservation of energy states that energy cannot be created or destroyed, in economics, value is generated through productive labor, not just circulation. Money printing is harmful when not backed by production, but your argument could be strengthened by historical economic examples (e.g., Weimar Germany, Zimbabwe, Venezuela).

Solution: Add economic case studies to reinforce the energy-money analogy and clarify the mechanism of value creation.

4️⃣ Public Palika Needs More Depth

Your transition to Public Palika is compelling, but the economic mechanics remain unexplained. You hint at decentralization, but how will Public Palika practically replace the existing system?

Solution: Dedicate a separate section where you explain:

  • How taxation will function in Public Palika?
  • How it will balance local autonomy and national coherence?
  • How will it prevent the corruption we see in Panchayati Raj today?

Proposed Refinement: Structural Suggestions

1️⃣ Introduction: Clearly Define the Thesis

  • The center is losing power—politically and economically.
  • This is a global phenomenon but particularly dangerous for India.
  • We must rethink governance at the grassroots level.

2️⃣ Section 1: Political Weakening of the Center

  • Maharashtra elections, voter fraud, judiciary’s compromised state.
  • Growing authoritarianism and weakening democracy.

3️⃣ Section 2: Economic Disarray & the Money-Energy Parallel

  • Inflation, poor fiscal policies, misguided economic planning.
  • Analogy of money circulation with energy conservation.

4️⃣ Section 3: The Loudspeaker & Social Fragmentation

  • How cultural degeneration and economic failures are linked.
  • The crisis of identity in rural India.

5️⃣ Section 4: Public Palika as a Structural Solution

  • Decentralized economic planning.
  • Community-led governance models.
  • Balancing local and national priorities.

6️⃣ Conclusion: A Call for an Alternative Governance Model

  • If the center is weak, let democracy grow from the grassroots.
  • Public Palika is not just a theory but a necessity.

Final Verdict: A Powerful Article That Needs Refinement

Your post is intellectually rich, emotionally engaging, and politically bold. However, it would be more effective with a clearer argument progression, more structured economic analysis, and a deeper dive into Public Palika’s mechanics.

Would you like me to refine it into a more structured and editorial-ready piece? 🚀

 

केंद्र ख़तरे में है: लोकतंत्र का बदलता स्वरूप और Public Palika की आवश्यकता

(सुकांत कुमार एवं ज्ञानार्थ शास्त्री)

प्रस्तावना: जब केंद्र डगमगाने लगे

रमेश चाचा अपने गाँव की चौपाल में बैठे रेडियो सुन रहे थे। ख़बरों में आज दिल्ली में भाजपा की सरकार बनने की घोषणा हो रही थी। कुछ दिन पहले महाराष्ट्र चुनावों में गड़बड़ी की चर्चा थी, और अब केंद्र की स्थिरता को लेकर अटकलें तेज़ हो रही थीं। लेकिन इस राजनीतिक हलचल के बीच, एक और सच्चाई थी जो उनकी नींद उड़ा रही थी—गाँव के बेरोजगार युवा, ठप होती अर्थव्यवस्था, और दिन-ब-दिन कमजोर होती लोकशक्ति।

क्या यह केवल एक राजनीतिक संकट है, या हमारी गवर्नेंस और आर्थिक प्रणाली की गहरी खामी उजागर हो रही है?

इसी प्रश्न का उत्तर खोजते हुए हम एक विचार पर पहुँचते हैं—Public Palika, यानी लोकतंत्र का आर्थिक और प्रशासनिक पुनर्गठन, जहाँ सत्ता नीचे से ऊपर की ओर बहती है।


राजनीतिक संकट: जब जनतंत्र नियंत्रण से बाहर हो जाता है

2025 के चुनावों के बाद भारत में जो घटनाएँ घटीं, वे केवल सरकार बदलने की नहीं थीं, बल्कि लोकतंत्र की जड़ों को हिलाने वाली थीं।

राहुल गांधी ने महाराष्ट्र चुनाव में हुई गड़बड़ियों पर सवाल उठाए। एक प्रमुख तथ्य यह था कि हिमाचल प्रदेश की जनसंख्या चुनावों के बीच अचानक बढ़ गई—यह जनसंख्या विस्फोट कैसे संभव हुआ? चुनावी गड़बड़ियों के ये आरोप कोई मामूली शिकायत नहीं थी, बल्कि लोकतंत्र की नींव को खोखला करने का संकेत थीं।

इसके बाद देश ने देखा:

  • कुंभ में भगदड़, जो एक प्रशासनिक विफलता थी।
  • अमेरिका में ट्रम्प की वापसी और भारत-अमेरिका के बिगड़ते संबंध।
  • लगातार बढ़ती बेरोजगारी और असंतोष।

इसी बीच मैं बिहार के तारापुर जिले के चन्दुकी गाँव में बैठा यह सब देख रहा हूँ, जहाँ इंटरनेट भी ठीक से नहीं चलता, और लाउडस्पीकरों की आवाज़ हर रात जागने पर मजबूर कर देती है। गाँव के नौजवानों के पास न पैसा है, न काम, बस गुस्सा है। क्या यही भारत का भविष्य है?


आर्थिक विफलता: मुद्रण बनाम वास्तविक संपत्ति

लोकतंत्र की नींव राजनीति नहीं, अर्थव्यवस्था है। जब अर्थनीति विफल होती है, तो राजनीति मात्र तमाशा बन जाती है।

हम जानते हैं कि धन सिर्फ़ छापने से मूल्य नहीं बढ़ता। अगर मुद्रण से ही समस्या हल होती, तो 2000 के नोट को छापने में जितना पैसा खर्च हुआ, उससे कहीं ज़्यादा हमें लाभ मिलना चाहिए था—लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

धन भी ऊर्जा की तरह हैइसे केवल स्थानांतरित किया जा सकता है, बनाया या मिटाया नहीं जा सकता।

  • जब धन केवल केंद्र में इकट्ठा होता है, तो यह शक्तिशाली व्यक्तियों के लिए शक्ति बन जाता है।
  • जब यह नीचे की ओर बहता है, तभी यह समाज में समृद्धि लाता है।

लेकिन आज, हमने ऊर्जा के प्रवाह को बाधित कर दिया है।

हमने अर्थ को मुद्रण से बदल दिया। हमने यह मान लिया कि नकद पैसे की मौजूदगी, वास्तविक संपत्ति के बराबर होती है। पर यह एक भ्रम है।


सत्ता का असंतुलन: जब स्वराज केवल किताबों में रह जाता है

"स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है," यह वाक्य अब केवल इतिहास के पन्नों तक सीमित रह गया है।

हम मानते हैं कि लोकतंत्र का अर्थ केवल चुनाव और सरकार चुनना है। लेकिन अगर सत्ता का केंद्रीकरण ही समाधान होता, तो हम आज एक अधिक सक्षम राष्ट्र होते।

🔴 समस्या यह नहीं है कि केंद्र सरकार मजबूत है, समस्या यह है कि स्थानीय इकाइयाँ कमजोर हैं।

लोकतंत्र की आत्मा ग्राम स्वराज में है, लेकिन उसकी संरचना आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है।


Public Palika: सत्ता का पुनर्संतुलन कैसे करेगा?

Public Palika इसी असंतुलन को ठीक करने का एक समाधान प्रस्तुत करता है। यह कहता है कि राजनीतिक और आर्थिक ताकत केवल केंद्र और राज्यों तक सीमित न रहे, बल्कि हर गाँव, हर मोहल्ले तक फैले।

👉 कैसे?

1️⃣ कर प्रणाली में सुधार: अभी आयकर, व्यापार कर, और अन्य कर केंद्र में जमा होते हैं। लेकिन Public Palika में यह धन सीधे स्थानीय निकायों को जाएगा, और वे अपने क्षेत्र की प्राथमिकताओं के अनुसार इसका उपयोग करेंगे।

2️⃣ न्यायिक संतुलन: लोकल गवर्नेंस को ज़्यादा स्वायत्तता मिलेगी, लेकिन साथ ही राज्य और केंद्र इसकी समीक्षा करेंगे, ताकि किसी भी भ्रष्टाचार या दुरुपयोग को रोका जा सके।

3️⃣ सशक्तिकरण और जवाबदेही: गाँव और वार्ड स्तर पर प्रशासन को पूर्ण आर्थिक और प्रशासनिक अधिकार मिलेंगे, लेकिन यह जिम्मेदारी के साथ आएगा—लोकल गवर्नेंस की रेटिंग प्रणाली लागू होगी, जिससे हर इकाई का आकलन किया जाएगा।

4️⃣ बाजार में विकेंद्रीकरण: स्थानीय व्यापार और निवेश को बढ़ावा दिया जाएगा ताकि छोटे व्यवसाय और स्टार्टअप केवल महानगरों तक सीमित न रहें।


स्वराज से Public Palika तक: क्या यह बदलाव संभव है?

आज जब दुनिया AI और डिजिटल क्रांति की ओर बढ़ रही है, तो हम एक पुरानी, केंद्रीकृत शासन प्रणाली के भरोसे क्यों बैठे हैं?

  • अगर सूचना का प्रवाह विकेंद्रीकृत हो सकता है, तो सत्ता का क्यों नहीं?
  • अगर बैंकिंग ऑनलाइन और लोकल हो सकती है, तो प्रशासन क्यों नहीं?

Public Palika सिर्फ़ एक राजनीतिक या आर्थिक मॉडल नहीं है, बल्कि यह स्वराज का आधुनिक रूप है।

गाँधी जी के ग्राम स्वराज की कल्पना अब केवल एक आदर्शवाद नहीं, बल्कि तकनीकी रूप से संभव संरचना है।


निष्कर्ष: हमें क्या करना चाहिए?

1️⃣ लोकल गवर्नेंस पर ध्यान देना शुरू करें। अगर हम अपने गाँव, मोहल्ले, या वार्ड के स्तर पर प्रशासन की जवाबदेही तय करें, तो लोकतंत्र मजबूत होगा।

2️⃣ अर्थव्यवस्था को समझें, केवल धन के पीछे न भागें। धन का मुद्रण वास्तविक अर्थव्यवस्था नहीं बनाता—उत्पादन, श्रम, और संसाधनों का सही उपयोग करता है।

3️⃣ स्वराज को केवल स्वतंत्रता संग्राम की विरासत के रूप में न देखें, बल्कि इसे एक जीवंत प्रशासनिक सिद्धांत के रूप में अपनाएँ।

केंद्र ख़तरे में नहीं है—लोकतंत्र ख़तरे में है। इसे बचाने का एक ही तरीका है—इसे नीचे से मजबूत करना।

Public Palika सिर्फ़ एक सपना नहीं, बल्कि एक ज़रूरत है। सवाल सिर्फ़ यह है—हम इसे कब अपनाएँगे? 🚀

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