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केंद्र नहीं, गाँव-घर बचाइए!

मेरे अनुमान से Educational Reform या शिक्षा क्रांति के बिना पब्लिक पालिका कभी एक सामाजिक सच्चाई नहीं हो पाएगी। भारतीय मानसिकता आज भी भगवान भरोसे बैठी है। जिज्ञासा का सामाजिक और व्यक्तिगत अस्तित्व ही शैक्षणिक गलियों में नाली के कीड़े बराबर बची है। हम सब किसी पर जिम्मेदारी या आरोप लगाकर मुक्ति तलाश रहे हैं। बहुत कम ही आर्थिक क्षेत्र बचे हैं जहाँ भारत का वर्चस्व बचा है। मुश्किल से इज्जत बचाने वाली मानसिकता मध्य वर्गीय सोच में बहुमत में व्याप्त है। जीवन स्वाभाविक रूप से आलसी होता है। तभी जिज्ञासा विज्ञान की शरण में सुख तलाशती है। आज का सनातनी अपने किसी भी वर्ण या आश्रम में ख़ुद से ईमानदार नहीं है। पारिवारिक परिवेश में भ्रष्टाचार का खुलेआम ललन पालन हो रहा है। ऐसे मनोदशा में पब्लिक पालिका कभी मूर्त रूप प्राप्त नहीं कर पायेगी। ज्ञान अर्थव्यवस्था में अस्तित्वगत जरूरतों की पूर्ति के लिए भी ज्ञान की जरूरत पड़ेगी। सूचना ही तो आज नई मुद्रा है। पब्लिक पालिका का रास्ता इहलोकतंत्र से होकर गुजरता है। इहलोकतंत्र को स्वराज के पर्यायवाची की तरह भी देखा जा सकता है।

केंद्र ख़तरे में है ॰॰॰

हर समस्या की जड़ आस्था के केंद्र में निहित है। आस्था तो हर समस्या का समाधान है। तभी तो हर समस्या की जड़ आस्था का केंद्र बन जाता है।

पिछले साल के लोकसभा के चुनाव से लेकर आज तक की ख़बरों पर मैंने अपना शोध किया है। कुछ तथ्यों के आधार पर मैं अपने कथन को स्थापित करने की कोशिश करूँगा। कालक्रम में एक एक कदम पीछे चलते राजनीति की ऐतिहासिक गली में चलिए टहलकर आते हैं। कदम अगर लड़खड़ाये तो सहारे की उम्मीद रखता हूँ। आज ८ फ़रवरी, २०२५ को दिल्ली में भाजपा की सरकार बनी। आज सुबह ही मुझे एक ख्याल आया था कि अगर आज बीजेपी की सरकार दिल्ली में बनी तो केंद्र ख़तरे में आ जाएगा। ऐसा मुझे क्यों लगा इसके पीछे

टूटते घर, बनते मकान!

पता है! गांव से गुजरते लगता है जैसे पाषाण युग में हम जी रहे हैं। बच्चे पत्थरों से खेल रहे थे। एक दिन नहीं, पिछले एक हफ़्ते से मैं उन्हें पत्थरों से खेलते देख रहा हूँ। हमने तो उनकी हथेलियों से गुल्लियाँ तक छीन लीं। गुल्लियों की गूँज भी इन गलियों में अब कहाँ सुनाई देती है। बस एक चीखता अहंकार लाउडस्पीकर पर सुनाई पड़ता है। घर टूट रहे हैं। मकान बने जा रहे हैं। जैसे किसे ने मुमताज के लिए ताजमहल बनाने की ज़िद्द ठानी हो। बेचारे यहाँ के बच्चे शहरों में धूल फाँककर शेखी बघार रहे हैं। मेरे ससुराल का आँगन जुगनू की बिदाई के बाद सुना हो जाएगा। क्यूंकि यहाँ लौटकर आने वाला अब कोई परिंदा मुझे नजर नहीं आता। मकान भी जर्जर हुआ जा रहा है। किसे चिंता है? सोचो! घर नहीं बनाओगे तो कहाँ लौटकर आओगे?

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