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अंधविश्वास: “विचारहीन विश्वास”

मानसून बिहार में दम-दाखिल हो चुका है। रह-रहकर बारिश हो रही है। मौसम सुहाना है, बारिश का अपना अलग ही रोमांच होता है। बिहार से बरसात कोई भेद-भाव नहीं करती है। हाँ! बिहार का बरसात के साथ मनमुटाव ज़रूर रहता है। पहली ही बारिश में नाले उफनकर घर की दहलीज़ों तक पहुँच जाते हैं। बरसात के दो-ढाई महीने गुजरते-गुजरते तो नाली का पानी घर में घुस आता है। असम और महाराष्ट्र में बारिश कहीं ज़्यादा होती है, पर वहाँ व्यवस्था बेहतर है। सड़कें चौड़ी और नाले साफ़ हैं। पानी के निकास का बेहतर इंतज़ाम है, फिर भी कभी-कभी हमारे सपनों की नगरी बम्बई डूब ही जाती है।

ख़ैर, घर के अंदर बैठे मुझे यहाँ भी बरसात उतनी ही सुहानी लगती है, जैसी महाराष्ट्र में लगती थी। ना जाने क्यों, वहाँ ही नहीं! इस लोकतांत्रिक देश के कई कोनों में बिहारी होना एक कलंक माना जाता है। क्या यह अंधविश्वास नहीं है?

आज सवेरे-सवेरे मैं बिटिया के दूध वाले बॉटल का निपल लाने निकला। बारिश के कारण, सड़कों पर नाली का पानी पसरा हुआ था। सुबह के सात बज रहे थे। ना सूरज का अता-पता था, ना ही कहीं से मिट्टी की सुगंध आ रही थी। हर जगह दुर्गंध को झेलते मैं पास वाली दुकान पर पहुँचा, वह बंद थी। हर शहर में एक ख़ास जगह होती है, उसका रेलवे स्टेशन, जहां ज़रूरत की हर वस्तु उसके इर्द-गिर्द चौबीसों घंटे मिल सकती है। यादों में खोया मैं स्टेशन की तरफ़ चल निकला।

जब मैं कोटा में था और देर रात जब हमें भूख लग जाती थी, या कुछ नया करने कि चूल मचती थी, हम सारे सहपाठी स्टेशन की तरफ़ चल पड़ते थे। एक बार चार-पाँच दोस्तों के साथ मैं देर रात स्टेशन पहुँचा, वहाँ प्लेटफार्म टिकट लेकर हम दाखिल हुए। रात ख़त्म होने वाली थी, और सवेरा होना अभी बाक़ी था। ढाई-तीन का समय रहा होगा। मैं दो-तीन दोस्तों के साथ एक स्टॉल पर चाय-ब्रेड खा रहा था। तभी हमारे दो साथी भागते हुए आये। स्टेशन पर शायद ‘शताब्दी’ लगी हुई थी।

भागते हुए जब वे हमारे पास स्टॉल पहुँचे, उन्होंने अपनी बहादुरी का क़िस्सा बड़े गर्व से सुनाया। मुझे उनकी बातें सुनकर लोकतंत्र पर बड़ा तेज ग़ुस्सा भी आया और शर्म भी आयी, यह सोचकर कि मैं ऐसे लोगों के साथ रहता हूँ। वे सुना रहे थे - “हम उस एसी डब्बे में घुस गये। घुसने से पहले ही देख लिया कि माल कौन-कौन सी सीट पर है। दरवाज़े के किनारे, नीचे वाली साइडबर्थ पर एक सुंदर सी लड़की सो रही थी। उसके स्तन दबाकर हम भाग आये। बड़ा मज़ा आया।”

बेशक उनके शब्द ये नहीं थे। पर, उनके शब्दों हो सुनकर शरीफ लोगों के कान से खून फेंक देता है। इसलिए, मैंने उन्हें यहाँ संशोधित किया है। उनके शब्दों में लिख दूँगा तो पिताजी फिर बुरा मान जाएँगे और इसे ही साहित्य का अपमान मान बैठेंगे। वैसे ही साहित्य पर सत्यता की कोई पाबंदी तो होती नहीं है। साहित्य तो भावनाओं के आदान-प्रदान का माध्यम है। उम्मीद है कि आप मेरी भावनाएँ समझ रहे होंगे!

मैं उन दोस्तों से पूछना चाहता था - “अगर कोई यही कुकर्म तुम्हारी माँ-बहन के साथ करता, तो तुम क्या करते?”

मेरे पास कोई भाई-बहन नहीं है। पत्नी आयी तो मेरे बचपन की पारिवारिक तन्हाई दूर हुई। मैं उससे लड़ भी सकता हूँ, माना भी सकता हूँ। वह मान भी जाती है। उसकी चेतना लचीली है, माँ की तरह उसकी अवधारणा पूर्वनिर्धारित नहीं है। वह काल और स्थान के अनुसार अपनी चेतना को रच सकती है। वह अपने ससुराल में उतनी ही शुद्ध शाकाहारी है, जितनी अपने मायके में पले बाकरे को खाती हुई वह मांसाहारी है। जब सच समय और स्थान पर निर्भर करता है, तो हमारा व्यक्तित्व भी अतीत से निकलकर वर्तमान में क्यों नहीं बदल सकता है? यही बौद्धिक जड़ता सामाजिक चेतना को विकसित नहीं होने देती है, और समय-समय पर इसे क्रांति की ज़रूरत जान पड़ती है। क्रांति हम ख़ुद लाते हैं, क्रांति कहीं से आती नहीं है।

ख़ैर, जिसके पास जो नहीं होता है, उसी की तो उसे कमी खलती है। और जनाब! यहाँ किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता! मिलता है तो कहीं ना कहीं कोई कमी मिलती है। मेरे माँ बाप के पास भाइयों और बहनों की कमी नहीं थी। शायद, उनके पास आर्थिक कल्पना की कम पड़ गई होगी। उन्होंने अपनी काल्पनिक ग़रीबी से उबरने के लिए जीतोड़ मेहनत की और सफल भी हुए। मेरे रईस होने की वजह ही वे हैं, मेरी हर समृद्धि उन्हीं का तो दिया उपहार है। उपहारों का यही आदान-प्रदान तो साहित्य रचता आया है। मेरी यह रचना भी तो उन्हीं की एक भेंट है। माँ कहती है — समाज से हमें बहुत कुछ मिलता है, उसे भी हमें समृद्ध करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए।

जिनकी बहनें नहीं होती हैं, शायद उन्हें ही बहनों की कदर होती है। निर्धनता इज्जत करना तो सीखा ही देती है, झूठी ही सही!

मेरे दोस्त! शायद, मेरे सवाल पूछने के जुर्म में ही मेरी पिटाई कर देते, या ऐसी बेज्जती करते की मुझे लगने लगता कि मैं ही बलात्कारी हूँ। कुछ दोस्त ऐसे भी मिले, जो मेरी ही बातों में मुझे ही फँसाकर चुपचाप खिसक लिए। मेरे सवालों को मेरा इहलोक अपना अपमान मान लेता है। अज्ञानता को जिज्ञासा से बराबर डर बना रहता है। तभी तो वह हमें डराए रखती है। अज्ञानता को लाउडस्पीकर चाहिए। अज्ञानता को ढोंग रचाना ही पड़ता है। हर कोई डरकर ही तो कर्मकांड किए जा रहा है। सुरक्षित होने का भ्रम पाले जा रहा है। कैसी सुरक्षा जब अंत निर्धारित है? अपने-अपने अंत की गरिमा की सुरक्षा भी तो ज़रूरी है। साहित्य ही तो हमें अमर कर सकता है। इतिहास में हर कोई जगह कहाँ बना पाता है?

कोई भी रचना, चाहे वह कलात्मक हो, वैज्ञानिक हो, या साहित्यिक — किसी ना किसी प्रकार से वह एक ऐतिहासिक रचना है। कला को विज्ञान से साहित्य ही जोड़ता है। प्रामाणिक या प्रमाणित साहित्य ही तो इतिहास है।

हर विधा का अपना ही एक इतिहास होता है। बिना सरगम सीखे कोई संगीत नहीं सीख सकता है। हर कलाकार नक़ल करते-करते ही अपनी मौलिक कृति तक पहुँच पाता है। किसी व्यक्ति से नहीं तो प्रकृति से रचनाकार प्रेरित होता है। वह जिस भी प्रेरणा की नक़ल करता है, वही तो कला का इतिहास होता है। ‘विज्ञान’ की किताबों में विज्ञान का इतिहास है, जो हमें बताता है कि ‘विज्ञान’ कहाँ तक पहुँच चुका है? ताकि, हम उसे आगे दिशा दे सकें। हर व्यक्ति अगर पत्थर गिसने से ही शुरू करेगा, तो सोचिए बीरबल की खिचड़ी भी कब और कैसे पकती? संवेदना के रूप में साहित्य किसी एक सामाजिक घटना का इतिहास है, जो किसी कारणवश ‘इतिहास’ में अपनी जगह नहीं बना पाया। काल्पनिक ही सही, कल्पनाओं का भी तो अपना ही एक इतिहास होता है।

इतिहास और साहित्य में बस प्रमाणों का ही तो अंतर है। इतिहास में किरदारों और क़िस्सों के प्रमाण मिलते हैं, जो देने के लिए साहित्य क़तई बाध्य नहीं है। साहित्य को प्रमाण नहीं चाहिए। हिटलर थे, गांधी भी हैं। इनके प्रमाण मौजूद हैं। हिटलर थे, आज भी गैस चेंबरों की दीवारों उसकी दहसत से चीख रही है। गांधी तो आज भी अपने साहित्य से लेकर भारत की जनचेतना में प्रामाणिक हैं। हिटलर का होना भी ज़रूरी था, गांधी का होना भी ज़रूरी है।

जब हिटलर नहीं थे, और गांधी भी इतिहास की महफ़िल में शरीक नहीं हुए थे। उनकी अवधारणाएँ तब भी मौजूद थी। बुद्ध भी मौजूद थे, सुकरात भी थे। हिटलर के पहले ना जाने कितने औरंगज़ेबों की दास्ताँ इतिहास सबूत समेत हमें बताता है। आदिकाल के बहुत प्रमाण हमें आज भी नहीं मिलते हैं। रावण थे या नहीं? इसका प्रमाण नहीं है। पर, रावण की अवधारणा स्वतः प्रमाणित है। रावण भी तो राम के साथ हर मन में बसते हैं। राम और रावण का अस्तित्व सापेक्ष है। वे एक दूसरे के बिना रह ही नहीं सकते हैं। कौरवों और पाण्डवों के महाभारत में कृष्ण का अस्तित्व स्वतंत्र है। शायद इसलिए, कृष्ण एक दार्शनिक हैं। आराध्य तो हैं, पर, उन पर सामाजिक और राजनैतिक ख़तरा कम है। वे भी उतना ही कह पाये, जितनी बातें व्यास मुनि जानते थे।

भरोसे को कोई प्रमाण नहीं चाहिए। इसलिए, आस्था भी अंधी हो सकती है। हम कल्पनाओं के साथ-साथ अपने भ्रम पर भी भरोसा कर सकते हैं। पर, ऐसा कर लेने से हमारी कल्पनाएँ सामाजिक इतिहास का हिस्सा नहीं बन जायेंगी। निःसंदेह, वे साहित्यिक इतिहास का भाग हैं। पर, इससे लोकतंत्र की राजनीति क्यों प्रभावित होती जा रही है? मेरी समझ से ‘आस्था’ केंद्र-विहीन ही हो सकती है। क्योंकि, केंद्र के आ जाने से ही सत्य सच से अलग हो जाता है। सत्य — अखंडित है, अटल है, स्थापित है। सत्य शून्य है। केंद्र के आ जाने से शून्यता ख़त्म हो जाती है। जहां से गणित की शुरुवात होती है — पहला, दूसरा, तीसरा ॰॰॰ और ना जाने कहाँ तक? अनंत, सच तक!

शून्य — ‘०’ अखंडित है। यह गुण किसी और अंक में नहीं मिलता है। एक आठ को छोड़कर हर किसी का एक अंत दिखता है। पर ‘आठ’ भी खंडित है। दो शून्य के बीच एक मिलन बिंदु, उसके अस्तित्व को खंडित कर देती है। दर्शन भी सत्य को इसी रूप में देखता है। सत्य आत्मनिर्भर है, स्वतः प्रमाणित है — उसे किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं है। पर, सच काल और स्थान के ज्ञान से बंधा हुआ है। उसे उचित प्रमाण चाहिए। प्रमाण भी कई प्रकार के होते हैं। सत्य और असत्य के बीच की अनंत दूरी ये प्रमाण ही तो तय करते हैं।

धरती और सूरज का प्रमाण सामने है। पर, चाँद का प्रमाण आंशिक है। द्वन्द के घेरे में रहता है। हर दिन सूरज तो उग आता है। हर रात चाँद नज़र नहीं आता। वैज्ञानिकों, खगोलविदों और ज्योतिर्विदों ने इस राज का पर्दाफ़ाश कर दिया। अब यह भौगोलिक सच, सत्य के क़रीब है। यह तब तक सत्य के समीप ही रहेगा, जब तक कोई भ्रम, संशय, स्मृति या तर्क, हमारी जिज्ञासा को कुरेद ना दे। धरती पर समुद्र सबसे गहरा कहाँ है? या सबसे ऊँची छोटी की लंबाई कितनी है? इस पर उपलब्ध अकड़ों की सत्यता कि प्रामाणिकता संशय के घेरे में है। भूवैज्ञानिक, जो हमें ये सारी सूचनाएँ उपलब्ध करवाते हैं, वे यह बात भी हमें बताते हैं कि हिमालय की ऊँचाई निरंतर बढ़ रही है। काल में किसी भी बढ़ती हुई चीज की ऊँचाई का नाप स्थिर कैसे हो सकता है? मेरे कहने का तत्पर्य यह है कि हर सच सत्यता के पायदान में कहीं-ना-कहीं स्थापित है। कोई भी सच, पूर्ण सत्य नहीं हो सकता है। पूर्णतः असत्य अगर कुछ है, तो वह सत्य ही है। इसलिए, सच की ज़रूरत ज्ञान को हो सकती है, हमारी आस्था का केंद्र कोई सच होने के काबिल नहीं है।

मानवीय स्मृति कहीं साहित्य और इतिहास को मिला ना दे! इसलिए, इतिहास अपने किरदारों को एक औपचारिक सामाजिक स्थान देने का प्रयास करता आया है।

हिटलर का होना भी ज़रूरी था, और इतिहास में रामायण, और रामायण में राम और रावण का भी होना ज़रूरी था। पर हमारे लिए ना रावण की ज़रूरत है, ना ही हिटलर का होना ज़रूरी है, ना ही होगा! ये नहीं ही होते, तो ही अच्छा होगा। सच काल और स्थान पर आधारित होता है। इसलिए, बदलता रहता है। जो नहीं बदलता वही सत्य है, वही तो जीवन भी है। जीने का सलीका बादल जाता है, अनुभव और अनुभूति भी बदलती रहती है, पर इन सबसे से परे जीवन अपने ही आनंद में चला जा रहा है।

सोचिए! अगर रावण नहीं होते, तो राम हमारी आस्था का केंद्र कैसे बन पाते? हिटलर के आतंक के बिना गांधी का शांति-संदेश पूरा विश्व इतने ध्यान से क्यों सुन रहा होता? गांधी हों, या राम, दोनों ही हमारी ही कल्पनाएँ हैं। मेरी कल्पनाओं में वे अलग हैं, गोडसे की कल्पना में वे अलग होंगे। मैं वैसे ही गीता को भी पढ़ता हूँ, जैसे मैं गांधी को पढ़ता हूँ, क्योंकि मेरी भी आस्था का केंद्र ‘जिजीविषा’ है। जिज्ञासा दिशाहीन होती है। जिजीविषा तो बस जीवन की जिज्ञासा है। मेरी ज़रूरतें अलग हैं, इसलिए मेरी कल्पनाएँ भी अलग होंगी। हम अपनी ज़रूरतों और कल्पनाओं में ही तो मौलिक होते हैं।

हमारे इहलोक की पूरी ज़िम्मेदारी हमारी है। उसकी कल्पना से लेकर उसकी सच्चाई तक का सफ़र हमें ही तय करना है। पर, जीवन की इतनी सी ज़रूरत भी मेरे इहलोक कोई कहाँ समझता है?

उस दिन मैंने अपने दोस्तों से कोई सवाल नहीं पूछा। कुछ कहा भी नहीं, क्योंकि उनका जवाब और उनकी प्रतिक्रिया का अंदाज़ा मुझे था, आज भी है। छेड़छाड़ की ऐसी घटनायें तो जैसे जनहित में जारी हैं। जिस देश के ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ के अनुसार लगभग सौ बलात्कार के मामले रोज़ दर्ज होते हैं, उस देश में ऐसी तुच्छ घटना पर तो कोई सुनवाई तक नहीं होगी। पुलिस भी हज़ार-पाँच सौ में वहीं मामला दफ़्न कर देगी। सुना है, आजकल तो वह शरीर समेत सबूत मिटाने में भी अपराधियों का साथ दे रही है। मैंने तो चलचित्रों में भी यही देखा है। कोई दिखा रहा है, मतलब कहीं तो उसने भी देखा होगा। मैं भी तो वही चित्रित करने का प्रयास कर रहा हूँ, जो मैंने भोग है।

मेरा बचपन मेरे सबसे छोटे वाले मामाजी के साथ ही गुजरा है। वह हमारे साथ ही रहकर पढ़ाई करते थे। सुना है मौसी माँ जैसी ही होती है। पर, मेरा मामा तो मेरी माँ के साथ-साथ मेरे भाई जैसा भी था। मैं उसी के साथ खेलता-कूदता बड़ा हुआ हूँ। मेरी माँ स्कूल में शिक्षिका थी। सुबह की निकली किसी तरह आज भी शाम को थकी हारी घर आती है। पिताजी का सामाजिक जीवन काफ़ी व्यस्त रहा है। पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ तो उन दोनों ने बखूबी निभायी है, फिर भी हमारा पारिवारिक जीवन काफ़ी बिखरा हुआ रहा है। आज भी है। समय की बड़ी क़िल्लत रही है, क्योंकि परिवार की कल्पना ही सीमित है।

ख़ैर, मामाजी एक दिन बता रहे थे कि उनका भी एक मित्र था, जो सुनसान सड़क पर चलती लड़कियों के स्तन दबा कर भाग जाता था। सचित्र शब्दों में उन्होंने विवरण दिया था।

मैं छोटा था, किशोरावस्था थोड़ी दूर ही रही होगी। पर, यौन कल्पनाएँ आकार लेनी लगी होंगी। मैं उस दृश्य को अपनी कल्पनाओं से आज तक निकाल नहीं पाया हूँ, जो मामाजी के शब्दों से बनी थी। मैंने उस विवरण के हर किरदार की चेतना के अंदर जाकर उसकी संवेदना को महसूस करने का प्रयास किया होगा, तभी तो यह आज भी मेरी स्मृति का हिस्सा है। मैंने उस लड़के की मनोदशा, उत्तेजना और हवस को अपनी चेतना में चित्रित करने का प्रयास किया है। सिर्फ़, एक असहमत दर्शक के रूप में नहीं, कर्ता के रूप में भी। मैंने उस हवस को अपनी कल्पनाओं के रास्ते अपना क्षणिक सच माना है। मैंने भी अपने उस काल्पनिक किरदार के माध्यम से किसी अनजान लड़की का स्तन दबाकर भागने का दुःसाहस किया है। इसके लिए भी लोग असहमत हो सकते हैं। अक्सर हो जाते हैं। मैं इन कल्पनाओं को अपनी चेतना में दफ़ना भी सकता हूँ। पर, उससे ‘शिक्षा-क्रांति’ का मेरा उद्देश्य पूरा कैसे होगा?

फिर, उस लड़की की चेतना में व्याप्त दुर्बलता, असहायता और अपमान को भी महसूस करने की कोशिश की है। मुझे अक्सर लगता है मेरे दिल में माँ बसती है। साहित्य का यही तो योगदान है। वह हमें कल्पना करने की आज़ादी देता है। समस्या तो यही है कि हमें कल्पना करने की प्रयाप्त आज़ादी नहीं है। इसलिए, शायद हम कल्पना करना ही नहीं चाहते हैं। कल्पना करने के लिए ही तो ज्ञान लगता है। जो उधार की कल्पनाओं से लोकतंत्र को तबाह कर है, क्या वह ख़ुद अपना इहलोक बर्बाद नहीं कर रहा है?

आज मुझे ग़ुस्सा उन किरदारों पर नहीं, पर उन शैक्षणिक संस्थानों पर आ रहा है, जहां इनकी शिक्षा-दीक्षा हुई है। क्या वहाँ अनुशासन, सदाचार और उत्कृष्टता के नाम पर यही सब सिखाया गया है? अगर वहाँ नहीं सिखाया गया है, तो ये मेरे दोस्त ऐसी वाहियात कल्पना करना कहाँ से सिख रहे हैं? जिस देश के नामचीन धर्मालयों के मठाधीश अपनी गुफाओं में अनैतिक रासलीला रचाते पकड़े जाते हैं, उस देश में संस्कृति की लाज कौन रखेगा? जब हमारी माँ-बहनें इनकी छत्रछाया में ख़ुद को महफ़ूज़ मानती हैं, और हमारे राजनेता भी इनके ही भक्त बने पड़े हैं।

जाने कितना कुछ सोचता मैं दुकान तक पहुँचा, बारिश थमी हुई थी। ठंढी हवा बह रही थी। पेड़ों के बग़ल से गुजरते हुए पत्तों पर पसरी पानी की बूँदें, बारिश बनकर हवा के साथ बरस पड़ती थी। उनसे भींगकर मन शांत हो जाता है। मैं गुनगुनाता हुआ बेटी के लिए निप्पल ख़रीदने पहुँचा, मैंने पूछा - “कितना हुआ?”

दुकानदार की उम्र ४०-५० के बीच रही होगी। उसने दाम बताया। मैंने जेब से पैसे निकाले और उसकी तरफ़ बढ़ा दिया। उसने लेने से इनकार कर दिया, बोला - “सुबह-सुबह बोनी का टाइम होता है, दाहिने हाथ से दीजिए।”

मैंने हाथ बदलकर उसे पैसे दे दिये, उसने ले भी लिये। पैसे उसके हाथ में थे। फिर भी, उसे छेड़ने के लिए मैंने मज़ाक़ में कह दिया - “आप तो इतने बड़े दुकान के मालिक हैं, फिर भी ऐसे अंधविश्वासों को मानते हैं? अजीब बात है॰॰॰”

मुझे अंदाज़ा था कि यह प्राणी भी भड़क उठेगा। किसी के विश्वास को अंधविश्वास कह देने से वह अक्सर उखाड़ जाता है। हर किसी का विश्वास उसके लिए अंधविश्वास नहीं हो सकता, जब तक उसका भ्रम ना टूट जाये। सच्चाई का यह भ्रम ही तो इतनी आसानी से नहीं टूट पाता है। मैंने अक्सर लोगों को छोटी-छोटी बातों पर उलझते देखा है। मेरी माँ भी ख़ुद को बड़ा संवेदनशील मानती है, मुझे भी। मुझमें संवेदना की कमी है। यह बात भी वह नहीं मानती है। उनके भी बाबाजी की खिल्ली उड़ा दो, तो हायतौबा मचा देती है। रौद्र रूप धारण कर लेती है। उसकी कल्पना में भी उनका भगवान बड़ा छोटा है। गालियों से ही भड़क जाता है। अजीब भगवान है!

उस दुकान पर, मेरे अलावा दो गरीब से दिखने वाले और ग्राहक खड़े थे, उनके सामने श्रीमान दुकानदार साहब अपनी संस्कृति के नाम पर अपने पंथ का प्रचार करने लगे। मुझे अपनी गलती का एहसास पहले से था। इसलिए, ताना मारकर मैं उनसे खुल्ले पैसे वापस देने की ज़िद्द करने लगा। उन्होंने दृढ़ता से कहा - “जब बात अपने छेड़ी है, तो आपको भी सुनना पड़ेगा।”

अब मैं अपनी गलती पर पछता रहा था।

उन्होंने कहा - “दाहिने हाथ से पैसा लेना शुभ मना जाता है। हमारी संस्कृति का कितना बड़ा भी व्यापारी क्यों ना हो, या कोई बड़ा अफ़सर, इन नियम क़ानून का पालन करता ही है।”

मैं जानता था कि मैं ग़लत हूँ, फिर भी मैंने कह दिया - “कितना भी छोटा या गरीब इंसान क्यों ना हो! उसे किसी पंथ से कर्म और कल्पना को उधार लेने की ज़रूरत है, क्या?”

उसे लगा मुझे उसकी बातें समझ नहीं आयी, इसलिए उसने उदाहरण से दुबारा समझाने का प्रयास किया - “क्या आप को पता है? सचिन भी जब बल्लेबाज़ी के लिये उतरता है, मैदान में पहले अपना दाहिना पैर ही रखता है।”

भाईसाहब ने मुझे अनजाने ही बड़ा अच्छा मौक़ा दे दिया था। मैं भी अपनी नासमझी उन पर थोप आया - “भैया! क्या आपको पता है कि सचिन ‘क्रिकेट का भगवान’ कहलाते हैं? और यह बात उन्हें भी पता है, क्योंकि यह सामाजिक दर्जा उन्होंने ख़ुद से ख़ुद के लिए रचा है। यह उनकी कल्पना है, जिसे उन्होंने साकार किया है। क्या आपको पता है कि आप भी भगवान हैं? पर यहाँ दुकान पर, या किसी मैदान पर आप अपना दाहिना पाँव रखो या बायाँ आप शतक तो क्या, दो गेंद नहीं टिक पाओगे, चच्चा!”

चच्चा की बुद्धि घास चरने चली गई। उलझन और उत्तेजना का मिश्रित भाव उनके चेहरे पर साफ़ दिख रहा था। अब किसी भी वक़्त वे फट सकते थे, पर वे बौखलाए नहीं। वे शांत रह गये, उन्होंने इसे अपना अपमान माने से ही इनकार कर दिया। मुझे राहत मिली। मैंने अक्सर देखा है कि जब लोगों को बातें समझ नहीं आती हैं, तो वे उन बातों को ही अपना अपमान मान लेते हैं। फिर? फिर क्या?

फिर, चर्चा का विषय ही बदल जाता है। जो मुद्दा अभी तक वस्तुनिष्ठ था, अचानक व्यक्तिगत बन जाता है। विवेक को दरकिनार कर, अहंकार हावी हो जाता है। पर यहाँ, यहाँ मैं ग्राहक था। चाहे किसी भी पंथ का व्यापारी हो, उसे भले यह पता हो ना हो कि वह ख़ुद भगवान है! उसे यह ज़रूर पता होता है कि सामने खड़ा ग्राहक उसका भगवान है। इसलिए, मैं किसी तरह बच बचाकर लौट आया। कई व्यापारियों ने तो तख़्ती पर लिखकर इसे अपनी दुकानों में टाँग रखा है। मैं उन दुकानों से दूर ही रहता हूँ, अपने अनुभव में मैंने ऐसी दुकानों में सबसे ज़्यादा धोखा खाया है। कुछ ख़ास व्यापारी तो ऐसे भी हैं जो ‘विश्वास’ को ही अपना धंधा बनाकर किसी का अंधविश्वास बन बैठे हैं। शायद, अपनी अज्ञानता की इस उलझन को सुलझाने की हैसियत हमारे भाईसाहब में नहीं थी। मुझे तो आस-पड़ोस के पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी लोगों में भी ऐसी समझ की कमी ही मिली है। ख़ैर, उन्होंने मेरे पैसे वापस कर दिये और मैं घर आ गया।

घर पहुँचकर मैंने सोचा इस घटना को भी ‘इहलोकतंत्र’ में जगह मिलनी ही चाहिए। इस शृंखला को लिखने का यही तो मेरा मक़सद है। ज्ञान को अज्ञानता से अलग पेश करने की अभिलाषा लिए ही तो मैं यहाँ अभी लिख रहा हूँ। यह वर्तमान है, जो इसे लिख रहा है। मैं तो बस एक माध्यम है। इसमें उन वर्तमान क्षणों का भी उल्लेख है, जो स्मृति की अज्ञानता से मैंने चुराए हैं। कुछ तरोताज़ी हैं, तो कुछ बासी हो चुकी हैं। पर जो है, यही मेरी अभिव्यक्ति है। मैंने पाया है कि मेरी रचना में किरदार ख़ुद अपनी जगह बना लेते हैं। बुलबुले से आते हैं, फिर ना जाने अज्ञानता की किस अंधेरे काल-कोठारी में गुम हो जाते हैं? क्या पता लिखते-लिखते कितने बुलबुले फुट गये?

इन बुलबुलों की याद में ‘…अंधविश्वास…’ पर एक अध्याय तो, मेरे इहलोकतंत्र में बनता ही था। आज मौक़ा भी था, और समय तो मैंने अपने लिये ही निकाल रखा है। मैं ख़ुद को ही तो यहाँ रच रहा हूँ। शादी-शुदा साधना कर रहा हूँ। गृहस्थ जीवन में भी ‘संन्यास आश्रम’ का भ्रमण कर रहा हूँ। मैं तो बस अपना धर्म निभा रहा हूँ। बिना किसी पंथ के कर्मकांड को निभाये, बिना कोई होम-हवन करवाये, बिना धूप-अगरबत्ती जलाये, वह भी घर बैठे! यही तो मेरा कमरा है, मेरा स्वर्ग, जहां लौटकर सबसे पहले मैंने गूगल पर ‘अंधविश्वास’ की परिभाषा खोजी, वहाँ मात्र दो शब्दों में मुझे यह लिखा मिला - “अंधविश्वास - विचारहीन विश्वास।” वहाँ यह भी लिखा मिला कि यह एक पुल्लिंग शब्द है। आकर्षण के नियम से कुछ नया समझ में तो आया। पर यहाँ नहीं बता सकता! अनुचित होगा। वैसे, अनुचित तो अंधविश्वास ही है। पर, लोकतंत्र यह मानने को तैयार ही कहाँ है? मैं और मेरा इहलोक भी ना जाने कितने विचारहीन विचारों से परेशान है? विचार तक भी समाज और प्रकृति हमारे अंधविश्वास को झेल भी लेती है। पर, जीवनरहित अवधारणाओं ने जो उत्पात मेरे इहलोक में मचा रखा है, उसका कोई जोड़ नहीं। क्योंकि, हमारे विचारों का असर ख़ुद से ज़्यादा दूसरों के व्यवहार पर पड़ता है। कई बार अपनी अवधारणाओं को हम विचार और व्यवहार में अभिव्यक्त कर पाने में असमर्थ होते हैं। फिर भी, जीवन को केंद्र में रखकर हम अपने आचरण को व्यवस्थित तो कर ही सकते हैं।

हमारे आचरण से ही तो हमारा लोकतंत्र बनता-बिगड़ता रहता है। आचरण के अनुशासन के लिए ही तो धर्म और शिक्षा की ज़रूरत होती है। वरना, मरने-मारने के लिए तो कोई भी बहाना काफ़ी है। जब मेरे इहलोक में लोकतांत्रिक परिवार का गठन होगा, तभी तो मेरे इहलोक लोकतंत्र के सुख भोग पाएगा। इसके लिए विचारों से भी नहीं, अवधारणाओं से अंधविश्वास को बिदखल करना ही पड़ेगा। अपने-अपने धर्म को हमें काल और स्थान के अनुसार वातानुकूलित करना ही पड़ेगा। अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर अपने इहलोक के परार्थ के बारे में थोड़ा चिंतन-मनन तो करना ही पड़ेगा। इसलिए, पहले अंधविश्वास की अवधारणा पर थोड़ा मंथन कर लें।

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