सोचता हूँ जिंदगी की जब शाम आएगी,
मौत जब द्वार खड़े पास बुलाएग,
तो वे कौन शब्द होंगे जुबां पर,
जो इस कहानी के सारांश होंगे।
क्या होगी कहानी ?
बेबाक बचपन, अल्हड़ जवानी,
या सहमा जीवन, निशब्द ज़िंदगानी,
मौत अंत या नयी सुरुवात होगी ?
अधेड़ आयु जब आएगी,
और यम आकुल होगा मिलन को,
तो क्या किसी अंधेरे कमरे में,
असहाय पड़ा उससे मिनत्तें करूंगा।
या सुखमय होगा मिलन,
दुनिया हँसते हँसते विदा करेगी,
या कोसेगी मेरे जीवन को,
या मांगेगी दुआ में, मेरे लिए दो पल।
अभी तो जवानी की दहलिज़ ही नापी है,
पर जितना जीवन समझ पाया हूँ,
झणभंगुर पलों से पिरोया वक़्त है केवल,
नजरों के सामने से गुजरता वक़्त।
चाहता हूँ उसकी गति से कदमताल मिला लूँ,
पर वह मदमस्त आगे – आगे चलती है,
मैं चिंतित हतप्रभ पीछा करता रहता हूँ,
वह अक्सर आगे मैं पीछे - पीछे।
जाने क्या खा कर चलती है,
न थकती है, न रुकती है,
मैं जब थक कर बैठ जाता हूँ,
वो ठेंगा दिखा और तेज़ चलती है।
अब मैंने निश्चय किया है,
परवाह नहीं मुझे इस दौड़ की,
जान चुका हूँ मैं, तय है हार मेरी,
क्यूंकि कोई जीत न पाया है।
अब भी मैं ही पीछा करूंगा,
पर अब मुझे नहीं कोई जल्दी,
उसकी लचकती कमर पर नज़र अब मेरी,
अब कोई मुटभेड़ नहीं, वह प्रियसी, मैं प्रेमी।
दुनिया की फिक्र कहाँ अब,
अब बस मैं हूँ, मैं हूँ दुनिया,
आज हूँ मैं, अब वक़्त हूँ मैं,
और इक महज अभिव्यक्ति हूँ मैं।