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The Existential triad

When we perceive a body in motion independent of external impulses and together when we witness its organic growth over time, we then acknowledge the miracle of life in the form of an idea. The body, the idea of awareness i.e. the consciousness and the autonomous energy as the cause of motion often referred to as the soul - confirms existence. Thus, the body, consciousness and soul constitute the existential triad, the absence of any component of this triad is enough to cast reasonable doubt over existence.

The Essential Triad

The trinity of food, sex and danger is so important that a large part of the brain is devoted to this purpose. In the psychological domain, it is often referred to as the old brain, or reptilian brain as we share this portion with almost all the animal kingdom. Our animalistic instincts cannot afford to miss any opportunity of the possibility of either of these elements of the essential triad. Probably, this is also the reason that the economy of the advertisement industry revolves around it. To sell cosmetics to underwear, we use sex. The food industry is booming due to the sheer essentiality of food. When nothing works, the danger is the perfect recourse, building empires in the insurance sector. The triad never fails to make sales. Most successful commercials use these basic psychological and physiological needs in their favour.

Introduction to Lifeconomics

‘Lifeconomics’, is an attempt to find ways and means to establish microeconomic stability in the modern social scenario where the macroeconomic setup is that of a knowledge economy. The knowledge economy thrives on intellectual capital, which makes education the most profitable investment in current times. In these changing dynamics, our prosperity depends solely on our intellectual skills and productivity. Ignorance is no longer bliss. Information is the new currency, desperately knocking on doors, seeking our attention. In this context, ‘lifeconomics’ intends to be an introspective analysis to ascertain physical, mental and spiritual affluence. So let’s take this opportunity to delve into a study of life and all related dynamics.

एक दार्शनिक समस्या और समाधान

मुक्ति के लिए लोक को हर काल और स्थान पर अपने ज्ञान पर आस्था बनानी पड़ती है। नास्तिकता एक बौद्धिक पंथ है, जो आस्था का ही अनादर करती है। इस कारण पंथ की समस्या बरकरार ही रहती है और रंग में भंग डालने के लिए नास्तिकों का एक अलग पंथ चला आता है। महफ़िल खूब सजती है, सबको मज़ा भी खूब आता है। कब रंगों की होली, खून की होली में बदल जाती है? इतने शोर-शराबे में किसी को पता भी नहीं चलता। जब पता चलता है, तब लोक अपनी भावनात्मक और तार्किक व्यथा व्यक्त करता है। सामाजिक समस्या में मौजूद जो दर्शन है, उसे देखने की कोई कोशिश ही नहीं करता है। इहलोक और इस तंत्र में हम अपने-अपने पद, प्रतिष्ठा और पैसे का मज़े तो ले लेते हैं, पर कभी आनंद किसी को नहीं मिलता। इसलिए, कोई ज्ञान को नहीं पूछता, इहलोक अपनी ही मस्ती की अज्ञानता में मूर्तियों और प्रतीकों के पीछे भागा जा रहा है।

हमारी धार्मिक समस्यायें

धार्मिक समस्या पाखंड में निहित है। दर्शन, मिथक और कर्मकांड तक तो धर्म ही था, चाहे वह किसी भी पंथ का क्यों ना हो! पाखंड से ही तो धर्मालयों और राजनीति की दुकान चल रही है, जो लोक के लिए एक जानलेवा नशा है। तंबाकू या दारू से कहीं ख़तरनाक समाज की शिक्षा के प्रति उदासीनता का जो कैंसर है, वह पूरे लोक और तंत्र को तबाह किए हुए है। यही सामाजिक अज्ञानता, मेरी धार्मिक समस्या है, जिससे मेरा व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन अस्त-व्यस्त है। जिसके निवारण के लिए मैंने दर्शन की शरण ली थी। अब मेरी दार्शिनिक समस्या भी पढ़ लीजिए।

कुछ राजनैतिक समस्यायें

कौन सी ऐसी सामाजिक समस्या है, जिसका निदान तंत्र नहीं कर सकता है? पर इस लोक की समस्या ही तो यही है कि तंत्र ख़ुद ही एक समस्या बन चुका है और लोक उस समस्या की अग्नि में उधार लेकर घी डाल रहा ह। जो आग एक-न-एक दिन उसका घर ही जला डालेगी। लोक तो बस जलने का इंतज़ार करता प्रतीत होता है। हालत तो ऐसी है कि देश में ना मौजूदा प्रशासन और ना ही वर्तमान राजनीति को लोक या जनता की ज़रूरत है। इनकम टैक्स से लेकर टोल टैक्स तक सीधे जनता के खाते से तंत्र के खाते में पहुँच रहा है। आज कोई असहयोग आंदोलन की कल्पना तक नहीं कर सकता है। जो चालक हैं, वो इतिहास से सत्ता सुख भोगने का नुस्ख़ा निकाल ही लेते हैं। मेरी समझ से तो मौजूदा समाज में लोकतंत्र भी आभासी या वर्चुअल जो चुका है। जैसे, सोशल मीडिया पर हम अभिव्यक्ति की आज़ादी तलाश रहे हैं! कहीं कुछ होता है, हम शोक मनाने लगते हैं, या जश्न! अर्थशास्त्र के नाम पर लोक बस चंदा दे रहा है, तंत्र बटोर रहा है, और हम तमाशा देख रहे हैं। प्राइवेट सेक्टर को तो आपकी या मेरी, या हमारे बच्चों की कभी चिंता थी ही नहीं। इसलिए तो तंत्र तानाशाह बन गया है।

कुछ सामाजिक समस्यायें

फलों के मुख्यतः तीन प्रकार हैं - जाति, आयु और भोग। ये फल हमें हमारे कर्मों के अनुरूप मिलते हैं। जाति द्वारा हमारे जन्मों का निर्धारण होता है। आयु से यहाँ सिर्फ़ हमारी उम्र का ही निर्धारण नहीं होता है, बल्कि हमारे फलों की आयु का भी निर्धारण होता है, अर्थात् जो फल हम भोग रहे हैं, वो हम कितनी देर तक भोगेंगे, दुख ज़्यादा होगा या सुख, इसका निर्धारण भी आयु से होता है। भोग का सीधा संबंध हमारी क्रियाएं, अनुभूतियाँ और परिणाम से है, सुख-दुःख, लाभ-हानि, भोग-रोग आदि।

मेरी पारिवारिक समस्यायें

विज्ञान भी मानता है कि हमारा शरीर उन्हें पाँच तत्वों को मानता है, जिसे भारतीय दर्शन में पंचमहाभूत माना गया है - आकाश (Space) , वायु (Quark), अग्नि (Energy), जल (Force) तथा पृथ्वी (Matter)। रट्टा मारकर इन बच्चों का क्या भला हो जाएगा? किसी तरह यह बच्चे प्रधानमंत्री या न्यायाधीश भी बन गये तो जीवन के ख़िलाफ़ ही अपना फ़ैसला सुनायेंगे। जीवन को समझकर ही तो मेरे बच्चे समाज में अपना योगदान दे पायेंगे। वरना मेरी ही तरह वे भी नालायक ही रह जाएँगे। वे किसान बनेंगे या कलेक्टर यह तो वे ही तय करेंगे। मेरा मक़सद तो उन्हें अधिकतम आजीविका और पहचान को नकारने का अवसर देना है, जैसा चाहे-अनचाहे मुझे मेरे माता-पिता ने दिया है, या समाज से मैंने छीनकर लिया है। शिक्षा-व्यवस्था को भी कुछ ऐसे ही मौक़े के चुनाव को ज्ञान-पूर्ण तरीक़े से हर छात्र को देना चाहिए। पर इसमें खर्च लगेगा, सुना है लोक राजा है, और राजा के पास किस बात की कमी है? अच्छी शिक्षा मिलेगी, तभी तो ये बच्चे ईमानदारी से ख़ुद को पहचानकर सृजनात्मक और रचनात्मक ढंग से समाज में अपना योगदान दे पायेंगे। यह मेरी पारिवारिक समस्या भी है, जहां से मेरी सामाजिक समस्या भी शुरू होती है।

मेरी आर्थिक समस्यायें

जीवन का अर्थ तो आनंद की मात्रा और उसकी गुणवत्ता ही तय करती है। आनंद तो ज्ञान के रास्ते ही मिल सकता है। यह रास्ता किसी के लिए निर्धारित नहीं है, यहीं हम अपने इच्छा-स्वातंत्र्य का प्रयोग करते हैं। यही चुनाव हमारे जीवन के अर्थों का मापदंड है। राम और रावण दोनों ही ज्ञानी थे, उनमें अंतर तो आनंद का ही था। रावण में जो महत्त्वाभिलाषा थी, भोग-विलास की जो लोलुपता थी, उसकी जो शारीरिक हवस थी, जिसके लिए उन्होंने सीता का अपहरण किया था, वह उस ज्ञानी को अभिमानी बना देती है। रावण हमारे अहंकार और घमंड का प्रतीक है। राम अपनी मर्यादा के लिए जाने जाते हैं। उनमें ईमानदारी है, आत्मसम्मान है, स्वाभिमान है। राम और रावण दोनों ही हमारे अंदर हैं, हमें तो बस हर पल चुनाव करना है। यही चुनाव हमारे अस्तित्व को हर क्षण अर्थ देता है। एक पल में जो राम थे, वही अगले क्षण रावण का किरदार निभा सकते हैं।