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Need I say more?

We are living in a state of personal anarchy. A person is a state in the manner it maintains a sustainable equilibrium with the society one lives in. However, ethical virtues are invariantly applied on a person only in a social environment. Ethics is not at all a personal affair. Before, we delve into the current affairs need I point out that the Eternal Triad is the utmost concern of the Law of the Land. Because, since generations we have been rules under Divine Rule blessed under the Lordship of God. The fall of the medieval ages of Western civilisation is the stark example we must adhere to in the devastating nature of religion hold up by the righteousness of Crusades. No one can count number of dead during the partition of India, and we might be in the midst of Thrid World War. I wonder how many those who lived to see the light of Independence Day, 1947 knew they had just came out of a world war? Even today given the level of education we get I wonder...

हिंदू राष्ट्र बनाम पब्लिक पालिका

I would like you to critically evaluate this thought - हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना क्या है? अगर यह एक ख़ास जनजाति का राज होगा, तो निःसंदेह एक ख़ास वर्ग वंचित रह जाएगा। अगर वंचित ही बहुमत होगा, तो कब तक यह जुमला लोकतंत्र में चलता रहेगा?

केंद्र ख़तरे में है ॰॰॰

हर समस्या की जड़ आस्था के केंद्र में निहित है। आस्था तो हर समस्या का समाधान है। तभी तो हर समस्या की जड़ आस्था का केंद्र बन जाता है।

पिछले साल के लोकसभा के चुनाव से लेकर आज तक की ख़बरों पर मैंने अपना शोध किया है। कुछ तथ्यों के आधार पर मैं अपने कथन को स्थापित करने की कोशिश करूँगा। कालक्रम में एक एक कदम पीछे चलते राजनीति की ऐतिहासिक गली में चलिए टहलकर आते हैं। कदम अगर लड़खड़ाये तो सहारे की उम्मीद रखता हूँ। आज ८ फ़रवरी, २०२५ को दिल्ली में भाजपा की सरकार बनी। आज सुबह ही मुझे एक ख्याल आया था कि अगर आज बीजेपी की सरकार दिल्ली में बनी तो केंद्र ख़तरे में आ जाएगा। ऐसा मुझे क्यों लगा इसके पीछे

टूटते घर, बनते मकान!

पता है! गांव से गुजरते लगता है जैसे पाषाण युग में हम जी रहे हैं। बच्चे पत्थरों से खेल रहे थे। एक दिन नहीं, पिछले एक हफ़्ते से मैं उन्हें पत्थरों से खेलते देख रहा हूँ। हमने तो उनकी हथेलियों से गुल्लियाँ तक छीन लीं। गुल्लियों की गूँज भी इन गलियों में अब कहाँ सुनाई देती है। बस एक चीखता अहंकार लाउडस्पीकर पर सुनाई पड़ता है। घर टूट रहे हैं। मकान बने जा रहे हैं। जैसे किसे ने मुमताज के लिए ताजमहल बनाने की ज़िद्द ठानी हो। बेचारे यहाँ के बच्चे शहरों में धूल फाँककर शेखी बघार रहे हैं। मेरे ससुराल का आँगन जुगनू की बिदाई के बाद सुना हो जाएगा। क्यूंकि यहाँ लौटकर आने वाला अब कोई परिंदा मुझे नजर नहीं आता। मकान भी जर्जर हुआ जा रहा है। किसे चिंता है? सोचो! घर नहीं बनाओगे तो कहाँ लौटकर आओगे?

गाँव बचाओ अभियान

भारत के गाँव मर रहे हैं, और इसके साथ ही मर रहा है हमारा लोकतंत्र। यह कोई काव्यात्मक अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि एक ठोस वास्तविकता है, जिसे आँकड़ों से सिद्ध किया जा सकता है। 1951 की जनगणना में 82.7% भारतीय गाँवों में रहते थे, आज यह संख्या घटकर 65% के आसपास आ गई है। शहरीकरण को अगर "विकास" का पर्याय मान भी लें, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह असंतुलित विकास है, एक तरफ़ा प्रवास है, और मूल रूप से एक सामाजिक एवं आर्थिक पतन का लक्षण है।

Public Palika: समस्या से समाधान तक

अगर शासन की वर्तमान व्यवस्था को सुधारने के प्रयास नहीं किए गए, तो यह धार्मिक ठगी, आर्थिक भ्रष्टाचार और शिक्षा के पतन का चक्र ऐसे ही चलता रहेगा। लेकिन अगर पब्लिक पालिका जैसी नीतियाँ अपनाई जाती हैं, तो हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं जहाँ करदाताओं को यह अधिकार हो कि उनके पैसे का उपयोग कैसे किया जाए।

Four Hypotheses: Public Palika

Good morning. I tried recording the script with satisfactory results. However, I need to improvise before final release. I need to hone up my oration to make the desired impact. The motive behind this creation is to distribute the idea of Public Palika for open discussion particularly within the academics. According to me it is an economic solution to the present crisis India and Indians are facing. I want to make one more episode before I take the Idea to public.

एक लोकतांत्रिक अवतार

मेरे अनुमान से इस शिक्षा व्यवस्था में एक ऐतिहासिक और दार्शनिक दोष है। हमारे इतिहास में आज तक पुनर्जागरण काल नहीं आया, जब जनमानस को अपनी रचना-शक्ति पर आस्था हो। यह आस्था ही थी जिसने साहित्य, कला के रास्ते उद्योग की रचना की। हमारे आदिकाल में ही कहीं स्वर्ण-युग की तलाश में देश और काल की जवानी बर्बाद हुए जा रही है। सृजन की संभावना कुछ युवाओं को दिखती भी हैं। पर, वे छोटी-मोटी उपलब्धि से ही संतुष्ट हो जाते हैं। वे सत्याग्रह नहीं करते। वे अपने सच को ही सत्य मान बैठते हैं। मुझे उनकी दरिदता पर तरस भी आता है। मैं चाहकर भी कुछ कर नहीं पाता हूँ। हिन्दी विभाग के सृजनशील शिक्षकों की बातों से भी मुझे निराशा के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा। अनुभव में भी वे दरिद्रता ही तलाशते मिले। मैं भी किसी का अपमान नहीं करना चाहता, शौक़ से गालियाँ देता हूँ, पर किसी की भावना को चोट पहुँचाने की प्रवृति मेरी तो नहीं।

उद्योग “बनाम” सहोद्योग

जब तक जंगल के क़ानूनों पर लोकतंत्र चलता रहेगा, मुझे तो उम्मीद नहीं है कि कुछ भी जीवन के पक्ष में बदल पाएगा। जब शिक्षा-दीक्षा में प्रतियोगिता से सहयोग की भावना का संचार होगा, तभी जिस लड़ाई को हम और आप लोकतंत्र के दंगल में लड़े जा रहे हैं, उसका समाधान मिल पाएगा। धर्म और शिक्षा जिस सामाजिक अवधारणा की स्थापना हमारे अंतःकरण में करती रहेगी, उसी आधार पर हमारी दुनिया चलती रहेगी।

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