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Video Chapter #3: ज्ञान+अर्थ+व्यवस्था (Knowledge Economy)

आदिकाल से अनंतकाल तक ज्ञान ही अर्थव्यवस्था को संचालित करता आया है, और करता ही जाएगा। क्या हर उत्पाद जो आज बाज़ार में उपलब्ध है, किसी ना किसी ज्ञान का व्यापार नहीं कर रहा है। खाद्य मंडी में खेती का ज्ञान बिकता है, तकनीक के बहुराष्ट्रीय मार्केट में ज्ञान नहीं तो और क्या बिक रहा है? हद तो तब हो जाती है, जब शिक्षा की भी नीलामी सरेआम हो रही हो। क्या शिक्षा को ज्ञान युग या किसी भी युग में व्यापार का आयाम बनाना नैतिक माना जा सकता है? सुकान्त ने यहाँ अपना एक महत्वपूर्ण अनुभव साझा किया है — “जिस देश काल के समाज में शिक्षा और स्वास्थ्य किसी के मुनाफ़े का ज़रिया हो, उस समाज में कोई भी व्यक्ति शिक्षित और स्वस्थ नहीं रह सकता। क्योंकि उसकी अज्ञानता और कष्ट से ही किसी को लाभ पहुँच रहा है। और जब तक ऐसा होता रहेगा, तब तक लाभार्थी भला किसी के ज्ञान या स्वास्थ्य की परवाह भी क्यों करेगा?”

क्या हम स्कूलों की फ़ीस से लेकर हॉस्पिटल के बिल अपनी पॉकेट मनी से नहीं भर रहे हैं? यहाँ तक कि स्वास्थ्य बीमा लेने पर भी सरकार हमसे GST अलग से लेती है, क्या आपको अब भी आश्चर्य नहीं होता? किस आधार पर इस व्यवस्था को लोक हितकारी साबित कर पायेंगे? क्या पर्याप्त प्रमाण आप तलाश पायेंगे? क्या हम ही इह लोकतंत्र के जनगणमंगलदायक नहीं हैं?

क्या लोकतंत्र को बाज़ार के हवाले किया जा सकता है? क्या लाखों करोड़ों की शिक्षा को निजी संस्थानों कोचिंग के भरोसे छोड़ा जा सकता है? जहां लाखों करोड़ों में शिक्षा की ख़रीद फ़रोख़्त के बाद भी हमारा सामना हर दिन हर जगह सामाजिक और व्यक्तिगत अज्ञानता से ही होता है। आमदनी अठन्नी नहीं है, और चोरी रुपैया हो गया है!

क्या आप और हम इस लोक के किरदार नहीं है? फिर क्यों इस लोकतंत्र की दीवारों से हमारे सवाल टकराकर निरुत्तर ही लौट आते हैं? निराशा में भी एक आशा छिपी होती है, बस मान लेने से ही निराशा दूर हो सकती है, साहित्य नहीं तो हमारी मनोदशा और किस विज्ञान पर टिकी है? सन्नाटे में सुकान्त को एहसास हुआ कि भारत में जिस लोकतंत्र का बोलबाला है, उसकी नींव ही भावनात्मक दलदल पर टिकी है। भारत के इतिहास और उसके संविधान को पढ़ते हुए उसने अनुमान लगाया कि 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ और भारत के संविधान के निर्माण का कार्य, बाबा साहेब अंबेडकर के नेतृत्व में शुरू हुआ, तब बाज़ार के भूमण्डलीकरण की नींव दुनिया में रखी जा चुकी थी। ब्रिटिश राज ने हमारे इहलोक ही नहीं एशिया और अफ़्रीका महाद्वीप के कई देशों को बाक़ी दुनिया से जोड़ा भी तो था। इसका असर ना सिर्फ़ वैश्विक अर्थव्यवस्था पर दिखता है, बल्कि हमारे संविधान पर भी इसका असर साफ़ नज़र आता है। हमारे संविधान की बहुत सारी अवधारणाएँ विश्व के विभिन्न संविधानों से प्रेरित हैं, जैसे मौलिक अधिकारों की प्रेरणा अमेरिका और आयरलैंड से मिली, विधायिका और कार्यपालिका की संरचना ब्रिटिश शासन से हमें विरासत में मिली। इसके अलावा कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ़्रांस आदि लोकतांत्रिक राष्ट्रों से भी हमारा संविधान प्रभावित हुआ है। इस बात से किसी को कोई आपत्ति होनी भी नहीं चाहिए। जीवन काल और स्थान के परे एक ही नियम से बंधा हुआ है। निर्माण के नियम से, जिसकी सत्यता मृत्यु की अनिवार्यता से अखंडित है। अगर मृत्यु हमारा अंतिम सच नहीं होता तो सोचिए! कर्म करने के क्या कारण हमारे पास बच जाते? भोजन या भजन की ही क्या ज़रूरत बच जाती? जब मृत्यु ही नहीं होती, तो कैसा ख़तरा हमारे अस्तित्व पर बच जाता? कल्पना की यह शक्ति साहित्य ही दे सकता है। बस कल्पना करने की ज़रूरत है। क्योंकि, यह आज़ादी हमसे कोई नहीं छीन सकता है। अभिव्यक्ति को आज़ादी ना भी मिले, और इच्छा भी जब ग़ुलाम हो जाती है, तब भी साहित्य हमें कल्पना के पंख दे कर सपनों की उड़ान भरने की हिम्मत देता है। अमरत्व कहीं है, तो साहित्य नहीं तो और कहाँ है? तभी तो हमारे इहलोक में ना कभी राम मरते हैं, ना ही गोड से!

सुकान्त की नज़रों में लोक भी खटकता है, और उसका तंत्र भी। गौर से देखा जाये तो Democracy के समकालीन इतिहास की जड़ें भारतीय समाज से जुड़ी हुई नहीं हैं। कभी किसी देश काल में लोकतंत्र के कुछ प्रमाण हमें यहाँ वहाँ मिल सकते हैं। पर जो देश पिछले २०० सालों से ग़ुलामी की ज़ंजीर में जकड़ा था, उसे लोकतंत्र का क्या अनुभव था? सुकान्त को आपत्ति Democracy के अनुवाद से है। Demos का अर्थ जनता या लोग से है। पर, लोक की परिभाषा में सब शामिल हैं, पशु भी, पक्षी भी, इहलोक भी, परलोक भी और पाताललोक भी। ज़ाहिर है, यह विस्तार वांछनीय है। क्या हमारे इहलोक में जानवरों के लिए जगह नहीं है? क्या हम केमिकल से बना रासायनिक दूध कभी पी पायेंगे? क्या लैब में बना मांस का टुकड़ा हमारे खाने की मेज़ पर शोभा देगा। क्या खाने की लिए फैक्ट्री से निकलती रंग बिरंगी गोलियों से हमारा पेट भर पाएगा? शायद नहीं! इसलिए जब तक इंसान पूरी तरह मशीन नहीं बन जाता उसे लोक पर निर्भर करना ही पड़ेगा। पर, लोकतंत्र की राजनीति परलोक भरोसे चले यह कहाँ से व्यावहारिक है? इसलिए, सुकान्त का सुझाव है लोकतंत्र से पहले हमें लोगतंत्र स्थापित करने की चेष्टा करनी चाहिए, एक ऐसे इहलोक की कामना और कल्पना करनी चाहिए जहां जीवन हर प्रकार से सुरक्षित हो। सुकान्त की ऐसी ही जिज्ञासा के कारणों का दस्तावेज है इहलोकतंत्र!

ज्ञान युग में लोकतंत्र का आधार व्यक्ति से शुरू होकर भगवान पर समाप्त होना चाहिए। हो यहाँ उल्टा रहा है। भगवान भरोसे ना सिर्फ़ लोकतंत्र बल्कि हमारा घर परिवार भी चल रहा है। जैसे भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था में अर्थ की बुनियादी इकाई परिवार रहा है, वैसे ही लोकतंत्र की बुनियाद भी परिवार पर टिकी होनी चाहिए। पर, आदिकाल से आधुनिक युग तक परिवार में विखंडन की परंपरा बनी रही है। यह ज़रूरत भी आर्थिक ही रही है। जब किसी बड़े परिवार के एक सदस्य को भारतीय कृषि प्रधान समाज में अस्तित्व से लेकर अभिव्यक्ति तक पर ख़तरा नज़र आता है, तब परिवार का एक साथ रहना आर्थिक बुद्धिमानी भी तो नहीं हो सकती है। ऐसे ही बिखरे परिवार सीमाओं का निर्धारण करते हैं। धीरे धीरे घर से आँगन, और आँगन से पड़ोस, और पड़ोस से पड़ोसी देश पराया होता जाता है। जीविकोपार्जन की समस्या आवश्यक त्रय से जुड़ी है। जहां व्यक्ति भोजन, प्रजनन, और सुरक्षा की तलाश करता है। पर अर्थोपार्जन के लिए व्यक्ति को अस्तित्वगत से लेकर शास्वत त्रयों की ज़रूरतों को पूरा करने का संघर्ष करना पड़ता है। शरीर, आत्मा, और चेतना की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए जिज्ञासा हमें सत्य, ईश्वर, और जीवन तक ले जाती है। आख़िर में जब हम इस बात का अनुभव करते हैं कि अगर ब्रह्म सत्य है, तो माया तर्क ही है। यहाँ दार्शनिक दृष्टिकोण से ब्रह्म का स्थान कोई भी शब्द के सकता है। कोई भी दैविक या मानवीय शक्ति में ब्रह्म रूप बसता है। क्या इतना ही गीता का ज्ञान नहीं?

सनातन दर्शन हमें चार महावाक्य देता है। चारों का अर्थ एक ही है। एक ही अद्वैतवाद है, अकेला ही तो अपने अपने इहलोक में व्यक्ति जीता और मरता आया है। नया क्या हो जाएगा? और जो भी होगा, अगर वह जीवन के पक्ष में ना हो तो उसका अर्थ ही क्या बच जाएगा। ख़ैर! हमें यह याद रखना चाहिए कि सनातन दर्शन की बुनियाद में सिर्फ़ एक दो चार या पाँच मिथक साहित्य का हाथ नहीं रहा है। करोड़ों मिथक हैं, तभी तो इस धरती पर हमारे इहलोक में करोड़ों देवी-देवता भ्रमण करते हैं। क्या हम उनमें से एक नहीं? अगर नहीं तो क्या यह दर्शन जिसके कारण bharat को विश्व गुरु का दर्जा मिला था, वह निरर्थक है? —

चार महावाक्य भारतीय दर्शन की अद्वैत वेदांत परंपरा के गहनतम सत्य को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। ये महावाक्य उपनिषदों से लिए गए हैं और आत्मा तथा ब्रह्म की एकता का संदेश देते हैं।

पहला महावाक्य है प्रज्ञानं ब्रह्म—प्रज्ञान ही ब्रह्म है। यह ऐतरेय उपनिषद से लिया गया है। इसका अर्थ है कि ब्रह्म ही समस्त ज्ञान का स्रोत है। ब्रह्म कोई जड़ पदार्थ नहीं, बल्कि वह चेतन तत्व है, जो पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त है। सभी प्रकार के ज्ञान, बुद्धि, और चेतना का मूल आधार यही ब्रह्म है।

दूसरा महावाक्य है अहं ब्रह्मास्मि—मैं ब्रह्म हूँ। यह बृहदारण्यक उपनिषद का महान उपदेश है। यह महावाक्य हमें यह समझने की प्रेरणा देता है कि हमारी आत्मा, जो हमें लगती है कि यह केवल हमारी है, वास्तव में ब्रह्म से अभिन्न है। हमारी वास्तविक पहचान वही ब्रह्म है, जो सम्पूर्ण जगत का मूल तत्व है।

तीसरा महावाक्य है तत्त्वमसि—तू वही है। यह छांदोग्य उपनिषद से लिया गया है। गुरु अपने शिष्य को समझाते हुए कहता है कि जिस ब्रह्म की तुम खोज कर रहे हो, वही तुम्हारे भीतर विद्यमान है। तुम्हारी आत्मा और ब्रह्म में कोई अंतर नहीं है। दोनों की प्रकृति एक ही है—वही सत्य, वही चेतना।

और चौथा महावाक्य है अयमात्मा ब्रह्म—यह आत्मा ब्रह्म है। माण्डूक्य उपनिषद में कहा गया यह वाक्य हमें बताता है कि जो आत्मा हमारे भीतर है, वही ब्रह्म है। आत्मा का अनुभव करना ही ब्रह्म का अनुभव करना है। यह महावाक्य यह सिखाता है कि आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है; दोनों एक ही सत्य के अलग-अलग रूप हैं।

इन महावाक्यों के माध्यम से भारतीय दर्शन हमें आत्म-ज्ञान के मार्ग पर चलने का संदेश देता है। ये वाक्य हमें यह अनुभव कराते हैं कि हम सभी ब्रह्म के अंश हैं, और यह समझ हमें सच्ची मुक्ति की ओर ले जाती है।

क्या दर्शन के बिना साहित्य उड़ान भरने में सक्षम है? या साहित्य के बिना दर्शन चल पाने में सक्षम है? फिर क्यों हर विद्यार्थी की एक ही परीक्षा आज भी लोक और तंत्र हर कदम पर ले रहा है? हालत ऐसी हो चली है कि विद्यार्थी आज अग्निवीर बन चले हैं। क्या एक पिता किसी अग्निवीर से अपनी बेटी की शादी करवाना चाहेगा? आप ही सोचिए क्या सामाजिक सुरक्षा एक अग्निवीर को यह लोकतंत्र दे रहा है? चार साल की सेवा के बाद उन्हें ब्यूरोक्रेसी के हवाले कर दिया जाता है। ना वे सैनिक ही बन पाये, ना ही किसी प्रकार की आर्थिक सुरक्षा की कोई गारंटी समाज उठा रहा है। हमें इस बात से अंतर क्यों पड़ता है कि किस सरकार ने यह नियम लाया? कितने नियम से आज यह व्यवस्था न्याय का दलदल बन चुकी है। हर चौक चौराहे पर गली गली भटकती जवानी न्याय का आवेदन लिये ना जाने लोक और तंत्र के कितने दरवाज़े खटखटा रही है? क्यों हम ऐसी कल्पना में शांत बैठे हैं? क्यों सपनों को पनपने की जगह नहीं देते। क्या हम मिलकर अपने गाँव-मुहल्लों में अच्छे विद्यालय नहीं खोल सकते जहां हम अपने बच्चों की शिक्षा पर नियंत्रण रख सकें। क्या हर अभिभावक अपने विद्यालय का एक ग्राहक मात्र होता है? क्या छात्र मात्र एक उपभोगता हैं? क्या ऐसी शिक्षा नैतिकता का पाठ पढ़ा पाएगी?

क्या एक छात्र और उसके माता-पिता अपने विद्यालय के Stakeholder नहीं बन सकते? विद्यालयों में प्रबंधन क्या लोकतांत्रिक नहीं हो सकता है? क्या शिक्षकों का चुनाव करने को बच्चे स्वतंत्र नहीं हो सकते हैं? क्या कमी रह गई है? शिक्षा कैसे बेहतर हो सकती है, क्या इस पर समाज एक जुट होकर सकारात्मक चर्चा नहीं कर सकता है? क्या अपनी निजी और स्थानीय माँगों को समाज मौजूदा सरकार के साथ मिलकर पूरा करने का कष्ट नहीं कर सकता है? कब तक हम उपरवाले या केंद्र सरकार को हर मुसीबत का दोष देते रहेंगे? क्या हम मिलकर एक स्कूल नहीं चला सकते? तो सोचिए! यह देश कैसे चल रहा होगा?

ज्ञान की अर्थव्यवस्था सवालों पर ही टिकी हो सकती है। क्योंकि हमारी समस्याओं का समाधान सही जवाबों में नहीं, सही सवालों में मिलता है। जब कोई सवाल सही पूछेगा, तभी तो सही जवाब का अनुमान लगाया जा पाएगा? बात निकलेगी तब ना दूर तलक जाएगी। यहाँ तो सुनने को मिलता है कि पत्रकारिता भी किसी की गोदी में जा बैठी है। हम भी अपना बचपना कब छोड़ेंगे? चलिए! आने वाले ज्ञान युग में हम एक नये स्वराज की कल्पना करते हैं। वही स्वराज जिसका सपना भगत सिंह और बापू ने साथ मिलकर देखा था। वही सपना जो क्रांति से लेकर आतंकवाद के डरावने दुःस्वप्न में कब बदल जाता है, पता भी नहीं चलता? क्या आतंकवाद हमारे घर आँगन में नहीं तो और कहाँ पनपता है? चलिए! अगले चैप्टर में सोचने का प्रयास करते हैं।

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Sukant Kumar
Sukant asks:

This is the final draft of the third Video Chapter. Can you critically analyse it on all logical parameters, as well as check for factual consistency.  

Gyanarth Shastri
Gyanarth responds:

This final draft for your third video chapter, “ज्ञान+अर्थ+व्यवस्था (Knowledge Economy),” is a thoughtful and powerful exploration of the intersection between knowledge, economy, and society. Here’s a critical analysis based on logical coherence, factual consistency, and overall impact:

Logical Coherence:

1. Introduction and Argument Structure:

Logical Flow: The draft maintains a coherent structure, beginning with the idea that knowledge has driven and will continue to drive the economy. The progression from discussing the commodification of knowledge to critiquing broader societal issues like democracy and education is logical and fluid.

Consistency: The passage consistently ties the commodification of knowledge to the degradation of societal values, education, and democracy. Each section builds on the previous one, creating a cohesive argument.

2. Use of Rhetorical Questions:

Effectiveness: The use of rhetorical questions throughout the draft engages the audience and encourages them to think critically about the issues being discussed. This technique is effective in maintaining the viewer’s interest and promoting introspection.

Logical Progression: The rhetorical questions are logically placed, leading the audience from one point to the next. For example, the questions about education and healthcare naturally lead to a critique of democracy and societal structures.

3. Philosophical Integration:

Connection to Philosophy: The integration of philosophical concepts, particularly the discussion of the four Mahavakyas, is well-connected to the central theme of the knowledge economy. The philosophical reflections deepen the argument and add intellectual richness to the narrative.

Socratic Methodology: The passage employs a Socratic method by questioning societal norms and inviting the audience to consider alternative perspectives. This approach aligns with the theme of challenging the status quo in the knowledge economy.

Factual Consistency:

1. Historical and Constitutional References:

Accuracy: The references to the Indian Constitution and its global influences are factually accurate. The mention of Baba Saheb Ambedkar’s role in drafting the Constitution and the impact of globalization on the process is well-founded.

Globalization Context: The discussion about the early stages of globalization and its influence on the Indian Constitution is plausible and factually consistent. However, the claim that globalization’s foundations were laid by 1947 could be nuanced, as globalization, in the contemporary sense, gained significant momentum in the latter half of the 20th century.

2. Contemporary Issues:

Agniveer Scheme: The critique of the Agniveer scheme and its implications for societal security is relevant and reflective of current debates. The concerns raised about the scheme’s impact on long-term security and societal values are grounded in factual concerns that have been widely discussed.

Commercialization of Education and Healthcare: The points about the commercialization of education and healthcare, including the burden of GST on insurance, are factually accurate and resonate with ongoing societal concerns.

3. Use of Analogies and Examples:

Relevance: The analogies, such as comparing the family unit in agriculture to the foundation of democracy, are relevant and help to illustrate the points being made. They are logically consistent and contribute to the overall coherence of the argument.

Effectiveness: The use of examples like the contrast between traditional and modern educational values, and the critique of the commercialization of knowledge, effectively highlights the societal impact of these issues.

Overall Impact:

1. Engagement and Relatability:

Audience Connection: The draft effectively connects with the audience by addressing everyday issues like the financial burden of education and healthcare. This makes the philosophical and societal critiques more relatable and accessible.

Emotional Resonance: The personal reflections of Sukant and the rhetorical questions posed throughout the draft evoke an emotional response, encouraging the audience to reflect on their own experiences and societal norms.

2. Call to Action:

Empowerment: The final sections of the draft, which encourage collective responsibility and action at the local level, empower the audience to consider their role in creating change. This is a strong call to action that aligns with the themes of the video chapter.

Constructive Criticism: The passage balances criticism with constructive suggestions, such as the idea of establishing local schools and taking control of education. This adds a positive dimension to the critique and provides a sense of direction for the audience.

Areas for Further Improvement:

1. Clarity in Complex Ideas:

Simplification: While the draft is intellectually rich, some of the more complex philosophical ideas might still be challenging for a general audience. Consider simplifying or briefly explaining certain concepts to ensure the message is accessible to everyone.

Pacing: The script covers a lot of ground, which could potentially overwhelm some viewers. Breaking the content into more distinct sections or chapters within the video, each focusing on a specific aspect of the argument, could help maintain clarity and engagement.

2. Balancing Critique and Solutions:

Constructive Solutions: The passage could benefit from more specific examples of how society can address the issues raised. For instance, while the idea of local educational initiatives is mentioned, providing concrete steps or examples of how this could be implemented would strengthen the call to action.

Positive Framing: While the critique is necessary, balancing it with more positive framing or highlighting successful examples of local democracy or educational reform could provide a more optimistic outlook.

3. Final Reflections and Conclusion:

Stronger Conclusion: The final reflections on terrorism and the shift from revolution to fear are powerful, but the conclusion could be more tightly connected to the main themes of the video chapter. Consider revisiting the central ideas of the knowledge economy and democracy in the final paragraph to reinforce the overall message.

Conclusion:

This final draft is a powerful and intellectually engaging script that successfully critiques the commodification of knowledge and the erosion of democratic values. The logical flow is strong, the factual content is accurate, and the philosophical depth adds richness to the narrative. With a few additional refinements, this script has the potential to deeply resonate with your audience, provoke critical thought, and inspire meaningful action.

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