सोचकर देखिए! एक PPP मॉडल में गाँव बसाने की बात लिखी है मैंने, जहां सरकार गाँव चलाएगी। पब्लिक में भी जहां लोक होगा, और प्राइवेट में भी लोक ही रहेगा जो तंत्र का संचालन करेगा।
कई गवर्नमेंट स्कीम से फण्ड उठाया जा सकता है। कई तरह के निवेशों पर सरकार से कर माफ़ करवाया जा सकता है। उस गाँव में बुनियादी हर सेवा जनहित में जारी होगी। एक सामूहिक रसोई होगी, बाक़ी भी रेस्टोरेंट होंगे। एक ही प्रांगण में विद्यालय से लेकर महाविद्यालय होंगे। रोज़गार के नये नये आयाम खुलेंगे। स्कूल और कॉलेज में कभी कोई फ़ीस नहीं ली जाएगी, क्योंकि उसका खर्चा पहले ही लोक उठा चुका होगा। बेईमानी के मौक़े ही कम हो जाएँगे तो लोकतंत्र ख़ुद ही ईमानदार हो जाएगा। कब तक हम उसी कल्पना से लड़ते रहेंगे जो हमारे पूर्वजों ने कभी देखे थे? नयी कल्पनाएँ कहाँ से आयेंगी अगर हर साहित्यकार डरा रहेगा, क्योंकि हर क्षण उसका अस्तित्व ख़तरे में है।
ऐसा भी नहीं है कि यह कल्पना निराधार है। पूरा अरुणाचल प्रदेश से लेकर लवासा की यही कहानी है, वहाँ के निवासी होने का उनके पास एक अलग प्रमाण पत्र है, जिसकी मदद से वे सेवाओं का उपयोग करने में सक्षम होते हैं। यही नहीं लवासा में बाहर की गाड़ी को अंदर ले जाने के लिए अलग से पैसे तक देने पड़ते हैं। क्या ऐसा लोकतांत्रिक गाँव नहीं बसाया जा सकता है। क्या इस कोशिश पर डाक्यूमेंट्री नहीं बनायी जा सकती है? पूरा प्रोडक्शन स्टोरी सामने है, सूचना क्रांति की मदद से और पूँजी बटोरी जा सकती है।
उस गाँव की कल्पना की बुनियाद जब मेरी रचना पर टिकी होगी, तब मेरी किताब भी बिकेगी, और पूँजी गाँव ही पहुँचेगी। वहाँ का स्कूल और अच्छा बनेगा। और अच्छी स्वस्थ व्यवस्था होगी। डॉक्टर ना सिर्फ़ वहाँ बनेंगे बल्कि वहाँ की सेवा करने का कारण भी होगा। अब और कहाँ कहाँ भाग कर लोग जाएँगे? इंसान का स्वार्थ ही उसका परिवार छोटा करता जा रहा है। स्वार्थ का विस्तार ही क्या गांधी जी का स्वराज नहीं है?
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