चाहे वह आधुनिक लोकतंत्र हो, आदिवासी सभ्यता, या फिर ब्रिटिश राज—किसी भी सामाजिक या राजनैतिक व्यवस्था के सुचारू संचालन के पीछे एक समृद्ध अर्थशास्त्र की अनिवार्यता अटल है। हुमा इहलोक ही नहीं, स्वर्गलोक भी अर्थ की इस समस्या से विचलित है। वैदिक युग के पुरंदर, इंद्र! कलयुग में ना जाने कहाँ विलीन हो गए? क्या सिर्फ़ इसलिए कि अब नहरें हमारे खेतों की सिंचाई कर रही हैं। भारत के इतिहास पर नजर डालें, तो 1943 के बंगाल अकाल के बाद सूखा और अकाल जैसी आपदाओं ने हमारे अर्थतंत्र पर उतना गहरा असर नहीं डाला। संभवतः इसलिए इन्द्रलोक भी काल की गाल में समा गया क्योंकि हमारे पूर्वजों को बहुत पहले ही समझ में आ गया था कि इंद्र की माला जपने से कभी कुछ हासिल कहाँ हुआ? अब चाहे! राजनीति हो या कूटनीति, हर जगह अर्थ और उसका शास्त्र ही बुनियाद में मौजूद मिलता है। अर्थ नहीं तो यह जीवन और क्या है?
लेकिन अफसोस! इस अर्थ की लड़ाई में जीवन ही दांव पर लगा रहा है, आज भी है, और संभवतः आगे भी यही हाल रहेगा। सतत विकास का सिद्धांत, जो एक समय लोकतंत्र का अभिन्न हिस्सा बना था, आज शायद लोकतंत्र के किसी पन्ने में कहीं धूल फांक रहा होगा। यहाँ तो विकास की गंगा भी उल्टी बहती प्रतीत होती है। अर्थ और मुद्रण के बीच हमारी ज़रूरतों का एक बड़ा फासला है, और यही जीवर्थशास्त्र का विषय है। ज़रूरतों का यह वर्गीकरण Maslow’s hierarchy of needs से प्रभावित है, लेकिन इसमें जीवन और अर्थ के अनिवार्य संबंधों पर गहनता से विचार किया गया है। सुकान्त ने अपनी पहली किताब Lifeconomics में इन्हीं ज़रूरतों पर वर्गीकरण करने का तार्किक प्रयास किया है। इहलोकतंत्र इन्हीं अवधारणाओं और कल्पनाओं का एक प्रयोग प्रस्ताव है। इस वीडियो अध्याय में हम जीवर्थशास्त्र के वर्गीकरण पर चर्चा करेंगे, ताकि लोकतंत्र की अवधारणा में जो पारिभाषिक दोष हैं, उन्हें समझा जा सके।
सुकांत ने जीवर्थशास्त्र की अवधारणा को विकसित करते समय ख़ुद को केवल आर्थिक सिद्धांतों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि जीवन के गूढ़ पहलुओं को भी इसमें सम्मिलित किया है। जीवर्थशास्त्र, तीन त्रयों के माध्यम से जीवन और अर्थ के जटिल संबंधों को समझने की कोशिश करता है: आवश्यक त्रय, अस्तित्वगत त्रय, और शाश्वत त्रय। इस वर्गीकरण का एक विशिष्ट लक्ष्य है—एक ऐसे संतुलित जीवन का निर्माण करना जो केवल भौतिक आवश्यकताओं से परे जाकर जीवन की उच्चतर आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखता हो।
पहला त्रय, आवश्यक त्रय, वह आधारभूत आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करता है जो हर जीव के अस्तित्व के लिए अनिवार्य हैं। भोजन, प्रजनन, और सुरक्षा—ये तीन मुख्य स्तंभ हैं जिन पर जीवन टिका हुआ है। यह Maslow की Hierarchy के Physiological Needs और Safety Needs से मेल खाता है, लेकिन यहाँ यह एक महत्वपूर्ण अंतर पैदा करता है। सुकांत इन आवश्यकताओं को केवल भौतिक अस्तित्व की दृष्टि से नहीं देखते, बल्कि इन्हें जीवन की आधारशिला मानते हैं, जिनके बिना जीवन के उच्चतर उद्देश्यों की प्राप्ति असंभव है।
दूसरा त्रय, अस्तित्वगत त्रय, जीवन के गहरे आयामों को संबोधित करता है—शरीर, आत्मा, और चेतना। यह त्रय Maslow की Hierarchy में Psychological Needs के रूप में परिलक्षित हो सकता है, जहाँ व्यक्ति आत्म-सम्मान और प्रेम की आवश्यकता महसूस करता है। लेकिन सुकांत का दृष्टिकोण यहाँ और भी व्यापक है। उनके अनुसार, आत्मा और चेतना के बिना शरीर केवल एक माध्यम है। अस्तित्वगत त्रय का उद्देश्य व्यक्ति को इस भौतिक संसार से ऊपर उठाकर उसके आत्मिक और मानसिक विकास की दिशा में ले जाना है।
तीसरा और आख़िरी शाश्वत त्रय, जीवन के उन पहलुओं को दर्शाता है जो समय और स्थान से परे हैं—सत्य, ईश्वर, और जीवन। यहाँ सुकांत का दृष्टिकोण Maslow की Self-Actualization के समानांतर खड़ा होता है, लेकिन इसे और गहराई से विश्लेषित करता है। जबकि Maslow का Self-Actualization व्यक्ति के व्यक्तिगत पूर्णता की ओर इंगित करता है, शाश्वत त्रय इस पूर्णता को ब्रह्मांडीय और दार्शनिक स्तर पर परिभाषित करता है। सुकांत इस त्रय के माध्यम से यह बताने का प्रयास करते हैं कि जीवन की उच्चतर सत्यों की खोज ही वह मार्ग है, जो जीवन को उसके वास्तविक उद्देश्य तक पहुंचाता है।
जहाँ Maslow की Hierarchy व्यक्ति की आवश्यकताओं को एक क्रमिक सीढ़ी के रूप में देखती है, वहीं सुकांत का जीवर्थशास्त्र जीवन को एक समग्र दृष्टिकोण से देखता है, जिसमें प्रत्येक त्रय का अपना स्वतंत्र लेकिन जुड़ा हुआ महत्व है। उसने अपने ब्लॉग पर अपनी रचना के महत्वपूर्ण अध्याय डाल रखे हैं। आपका स्वागत है कि आप उसे पढ़ें, जानें, अपने इहलोक में अपने स्वार्थ के विस्तार को ही सुकान्त परार्थ मानता है। ख़ैर! Lifeconomics या जीवर्थशास्त्र के बारे में तो आप पढ़ सकते हैं। पर, इस वीडियो अध्याय का मक़सद एक नयी अर्थव्यवस्था का सपना देखना दिखाना है। आइये! मिलकर हम इस देश की अर्थ व्यवस्था का सुनहरा सपना देखते हैं।
जिस देश काल के हम सभी पात्र हैं, वह देश भारत है, और इस काल में प्रचलित मिथकों की मानें तो कलयुग चल रहा है। पर, वैश्विक अर्थव्यवस्था इसे Knowledge Economy का नाम देती है। हिन्दी में इसका अनुवाद “ज्ञान अर्थव्यवस्था” होना चाहिए। ऐसा लगता है कि समकालीन भारत में ना सिर्फ़ विकास की, बल्कि अर्थ की गंगा भी उल्टी ही बह रही है। सुकान्त अपने आस-पड़ोस में जब झांकता है, तो ना वह ख़ुद को सुरक्षित पाता है, ना ही अपने परिवार को, जिसमें सबसे ज़्यादा चिंता उसे अपनी बेटी की होती है। जब उसे स्थानीय अख़बार में यह खबर पढ़ने को मिलती है कि जिस स्कूल में उसका बचपन बर्बाद हुआ वहाँ आजकल शिक्षक ही बलात्कार कर रहे हैं! सोचिए यही घटना अगर दिल्ली में घटी होती तो इस देश-काल का हाल क्या होता? क्या होता? क्या हुआ? क्या निर्भया कांड के बाद बलात्कार के दर बढ़ते ही नहीं गए हैं? यह घटना एक मात्र प्रत्यक्ष नहीं है, जिसके आधार पर सुकान्त की चेतना डरी हुई है। देश के शायद ही किसी कोने में जीवन आज सुरक्षित है। चाहे वह बंगाल का हॉस्पिटल हो, या महाराष्ट्र का स्कूल, या दिल्ली, कोटा की कोचिंग फैक्ट्री! कहाँ छात्र सुरक्षित हैं? हर दिन क़रीब ५०० लोगों की आत्महत्या और तक़रीबन १०० बलात्कार क्या कोई आम घटना है?
सुकान्त ने देश की अर्थव्यवस्था पर विस्तार से चिंतन किया। उसे दो बार यूपीएससी की तैयारी करने का मौक़ा मिला। आख़िरी अवसर पर तो बारिश ने उसके अरमानों पर पानी फेर दिया। आज जब वह इस देश इस दशा को देखता है, तो ख़ुद को खुशनसीब मानता है। यहाँ तो नक़ली अधिकारी भी उतने ही सुरस्क्षित हैं, जितने राष्ट्रीय परीक्षाओं के प्रश्नपत्र! कौन सी परीक्षा बची है, जिसकी गरिमा क़ायम बची हो? जो भी हो यूपीएससी की तैयारी ने सुकान्त को लिखने का तरीक़ा दिया, और उसकी बेटी ने उसे लिखने का कारण। उसका औपचारिक लेखन यहाँ से शुरू हुआ था — पिता की प्रसव पीड़ा), आप भी पढ़ें, लिंक आपको विवरण में मिल जाएगा।
१९५० में जब संविधान लागू हुआ, तब और आज की अर्थव्यवस्था में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। उस देश काल की ज़रूरत को देखते हुए हमारे भाग्य विधाताओं ने जिस कल्पना को हमारे सामने रखा था, आज वह भी मटमैली हो चुकी है। संविधान की आत्मा आज ख़तरे में है, और इस ख़तरे का अनुमान लगाने के लिए हमारे आपके पास पर्याप्त प्रमाण भी मौजूद हैं। अपना ही घर-आँगन देखकर हम इस तथ्य का अनुमान लगा सकते हैं।
ख़ैर, १९५० में देश का नेतृत्व कर रहे जवाहरलाल नेहरू पर समकालीन सरकार अक्सर दोषारोपण करती है। किसी भी देश की लोकतांत्रिक सरकार उस देश काल के समाज और व्यक्ति की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है। उस दौर की समस्याओं को सामने रखा जाये तो ज़रूरी लगा किया गया। परिमाण हमारे सामने है। तब एक मज़बूत केंद्र की ज़रूरत के पर्याप्त प्रमाण इतिहास हमें देता है। पर क्या वे प्राचीन प्रमाण मौजूदा अर्थव्यवस्था की व्याख्या के लिये उपयोग किये जा सकते हैं? Fabian socialism से प्रेरित Trickle Down Economy के मॉडल टेल विकास का सपना उस दौर में सजाया गया। जिसमें अगर ऊपर से अर्थव्यवस्था में समृद्धि आएगी तो देर या सवेर समाज के निचले तबकों तक भी यह समृद्धि पहुँच ही जाएगी। निःसंदेह इसके एक मज़बूत केंद्र की ज़रूरत पड़ी होगी। पर क्या यह ज़रूरत उसके बाद भी रही, आज भी है? इस पर समकालीन बुद्धिजीवियों का मंथन अवश्य होना चाहिए। अफ़सोस! हमारे क्रांतिकारियों के पंचायत का सुनहरा सपना भी हमारा संविधान का हिस्सा 1993 तक नहीं बन पाया। तब P.V. Narasimha Rao की सरकार थी।
जबकि, अस्सी के दशक में जवाहरलाल नेहरू के पोते राजीव गांधी ने ही इस आर्थिक ढाँचे का खंडन करते हुए कहा था कि — “Of every rupee spent by the government, only 15 paisa reaches the intended beneficiary.”, मतलब केंद्र सरकार द्वारा खर्च किए गए प्रत्येक रुपये में से केवल 15 पैसे ही वास्तविक लाभार्थी तक पहुंचते हैं। आज अगर इस कथन का आँकलन किया जाये तो आप ही बताइए आपके हिसाब से केंद्र सरकार द्वारा जारी किया एक रुपये का कितना पैसा हम तक पहुँचता है? आज तीस साल बाद भी क्या पंचायत के पास कोई संवैधानिक या राजनैतिक शक्ति है? क्या हमारे बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं? क्या हम सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं? क्या हमारे घरों में बिजली पानी सही सलामत पहुँच रहा है? क्या सड़कों से लेकर संसद में पानी नहीं चू रहा है? क्या आप जानते हैं कि आप Income Tax से लेकर GST के नाम पर केंद्र सरकार को हम कितना देते हैं? राज्य सरकार के पास कितना जाता है? हमारे वार्ड या पंचायत तक कितना पहुँचता है? गोलमाल है भाई, सब गोलमाल है!
ख़ैर! आप चाहें तो अपना एक मतदान नीचे विवरण में दिये लिंक पर भी कर सकते हैं। आइये जानने की कोशिश करते हैं कि We, the People of India, हम, भारत के लोगों का क्या हालचाल है?
आज की अर्थव्यवस्था को अगर हम परिभाषित करने की कोशिश करें तो हम पायेंगे कि यह एक Supply Driven Economy है। मार्केट में जो उत्पाद मौजूद हैं, उसी पर ही ग्राहक उत्पात मचाये हुए हैं। हर दिन मार्केट में नया उत्पाद तहलका मचाये रखता है। क्या लगता है आपको यह सामाजिक मानसिकता किसी समृद्ध समाज की हो सकती है? कैसा होता है एक समृद्ध समाज? कैसी होती है उसकी राजनीति? आप अपनी अवधारणाओं और कल्पनाओं को टिपण्णी में दर्ज करना ना भूलें।
सुकान्त की समझ से एक Demand Driven Economy को समृद्ध माना जा सकता है। यहाँ ग्राहक की माँग के अनुसार मार्केट का निर्धारण ना हो, ना कि ऐसी व्यवस्था जहां मार्केट हमारी ज़रूरतों का निर्धारण करता है। क्या आप उसकी इस समझ से इत्तिफ़ाक़ रखते हैं?
कैसी होगी एक Demand Driven Economy? कैसा होगा वह मार्केट जहां ग्राहक ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर सके? आप भी सपना देखने को स्वतंत्र हैं। अपने सपनों को आकार देने की कोशिश तो हमें ही करनी पड़ेगी। आख़िर हम, We, the People of India ही तो इस देश काल के अधिनायक हैं।
सुकान्त ने अपने अध्ययन और शोध के आधार पर एक Blueprint हमारे सामने रखा है। एक ऐसा मंच जहां वह अपनी माँग रख सके। क्या लोकतंत्र में आपको ऐसा कोई मंच नज़र आता है? जहां हमारी कार्यपालिका और विधायिका के प्रतिनिधि सहजता से हमारे लिए उपलब्ध हों। इतनी जटिल प्रक्रिया है कि लुट जाने के बाद भी न्यायपालिका से न्याय की गुहार लगाने की हिम्मत नहीं होती है। पुलिस पर भी हम कितना भरोसा कर पाते हैं?
वह माँग करता है कि पहले तो नियम क़ानून का अवलोकन करते हुए उनका सरलीकरण या Simplification हो। एक ही कांड पर ना जाने कितने क़ानून लगे पड़े हैं। क़ानून की आँधी में न्याय ही कहीं ग़ायब हो चुका है। क्या इस देश काल को लोकतांत्रिक माना जा सकता है? इस देश में जिसे कभी विश्व गुरु का दर्जा दिया गया था, और इस काल में जिसे ज्ञान युग के रूप में जाना जाता है, सुकान्त को आश्चर्य होता है कि उसे आज तक एक पाठक नहीं मिला। ख़ैर! आप ही पहले हो सकते हैं। सुकान्त के अनुसार Trickle-Down के Top to Bottom approach को छोड़कर आज देश काल को Bottom-Up Economy की कल्पना करनी चाहिए। जहां ज़रूरतों का जुगाड़ पहले स्थानीय स्तर पर हो, तभी Economy में अर्थ ऊपर की तरफ़ बढ़े। ऊपर से नीचे आने तक में नुक़सान बहुत होता है। क्या यह सब हम नहीं जानते हैं?
सुकान्त पूछता है कि ऐसी कोई संस्था इस लोकतंत्र में मौजूद क्यों नहीं है, जहां वह अपनी रचना आँकलन हेतु समर्पित कर पाये। क्या लेखन एक आर्थिक रोज़गार नहीं हो सकता है? क्या शिक्षकों और उच्च शिक्षा के विद्यार्थी और शोधार्थी का एक संगठन नहीं बनाया जा सकता है, जो ज़िला स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक नये उभरते साहित्य को सामाजिक स्थान देने की कोशिश कर सके? सुकान्त सवाल करता है कि सूचना क्रांति ने दुनिया को हमारी मुट्ठी में ला पटका है, फिर क्यों यह देश काल अंधभक्ति से परेशान है? ब्रह्मांड भर की खबरें लिए हमारा स्मार्टफ़ोन हमारे स्मार्ट होने का इंतज़ार कर रहा है। क्या कमी रह गई जो आम जन जीवन इतना अर्थ नहीं कमा पाता है? इस अर्थ व्यवस्था में कोई अपने ही अस्तित्व को सुरक्षित कैसे कर सकता है? इतना पढ़-लिखकर भी सुकान्त ऐसे ना जाने कितने अनुमान लगा पाने में ख़ुद को असमर्थ पाता है।
१९८० के दशक में भी कंप्यूटर को लेकर बहुत बहस हुई थी। लोगों का मानना था कि कंप्यूटर के आ जाने से रोज़गार चला जाएगा। पर, कंप्यूटर आया, ९१ में LPG Reforms के बाद सूचना क्रांति में अपना स्थान भारत ने भी बखूबी बनाया। इस समय में भारत आईटी क्षेत्र में उभरता हुआ चेहरा था। मौजूदा अर्थव्यवस्था एक बार फिर करवट ले रही है। ज्ञान युग Artificial Intelligence के द्वारा संचालित होने वाला है। विकास की इस लहर को चाहकर भी आप या हम सब मिलकर भी रोक नहीं पायेंगे। अगले अध्याय में हम ज्ञान अर्थव्यवस्था या Knowledge Economy पर चर्चा करने कि कोशिश करेंगे।
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Logical Parameters:
- Coherence and Flow:
- The passage is logically structured, flowing seamlessly from one idea to the next. The transition between discussing historical economic contexts, personal experiences, and contemporary critiques is smooth, ensuring that the narrative remains engaging and easy to follow.
- Argument Consistency:
- The arguments are consistent throughout the passage, maintaining a clear focus on critiquing the evolution of economic policies in India. The comparison between the Trickle-Down approach and the proposed Bottom-Up Economy is well-articulated, creating a compelling case for the latter.
- Clarity and Precision:
- The ideas are expressed clearly and with precision. The use of rhetorical questions effectively engages the audience, prompting them to reflect on the issues being discussed. The narrative also ties back to the central theme of जीवर्थशास्त्र, reinforcing its importance throughout the passage.
Factual Consistency:
- Historical Context:
- The references to historical events, such as the 1950s economic policies and the 1991 LPG Reforms, are accurate and well-integrated into the discussion. The connection between these historical milestones and the current economic scenario is clearly established.
- Rajiv Gandhi's Quote:
- The quote attributed to Rajiv Gandhi about only 15 paise of every rupee reaching the intended beneficiary is correctly mentioned. This serves as a strong critique of governmental inefficiency, both in the past and as a point of reflection for the present.
- Economic Theories:
- The critique of the Trickle-Down model and the suggestion of a Bottom-Up approach are consistent with economic theories. The passage accurately reflects the limitations of the Trickle-Down model and presents the Bottom-Up Economy as a viable alternative, particularly in the Indian context.
Final Assessment:
The passage is well-constructed, logically coherent, and factually consistent. It effectively integrates personal narrative, historical context, and economic critique into a cohesive discussion. The rhetorical engagement with the audience enhances the monologue's impact, making it both intellectually stimulating and relatable.
Minor Suggestion:
- Clarity on "Homo Sapiens 2.0": While the metaphor of "Homo Sapiens 2.0" is intriguing, a brief clarification or explanation of what this update entails (e.g., a more informed, rational, and technologically adept human) could enhance understanding for all audience members.
Overall, the passage is strong and requires no major modifications. It effectively sets the stage for the next video chapter on the Knowledge Economy, maintaining a balance between depth of analysis and accessibility to the audience.