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मैं कितना असमर्थ हूँ!

मेरा एक सहपाठी मित्र है, जो अब मुझसे बात नहीं करता। पेशे से वह वकील है। उसने देश के सबसे अच्छे केंद्रीय महाविद्यालय से वकालत की पढ़ाई की, फिर कुछ साल इस देश के सर्वोच्च न्यायालय में उसने प्रैक्टिस भी की। फ़िलहाल वह देश के समृद्ध महाविद्यालय के निजी कॉलेज में व्याख्याता है। बच्चों को न्याय पढ़ाता है। वह बताता है कि उसके महाविद्यालय में देश के संभ्रांत घरानों के कौन कौन से बच्चे पढ़ते हैं। कई लाख रुपयों की सालाना फ़ीस है। एक आम आदमी की इतनी औक़ात ही नहीं है कि अपने बच्चों का नामांकन करवाकर, किसी अच्छे निजी स्कूल में पढ़ा सके। बच्चों को पढ़ाने में ज़मीन-जायदाद नीलम करने को मजबूर लोक जय-जयकर कर

शुभारंभ

कल्पनाएँ असीमित हो सकती हैं। शब्द भी अनगिनत हैं। अभिव्यक्ति की संभावनाएँ भी अनंत हैं। इसी अनंत में अपने अर्थ की तलाश का हमें शुभारंभ करना है। संभवतः मैं ग़लत हो सकता हूँ। मेरा सही होना ज़रूरी भी नहीं है। ज़रूरी तो जीवन है। जीवन की अवधारणा सिर्फ़ और सिर्फ़ वर्तमान में ही संभव है। इसकी उम्मीद हम भविष्य से भी लगा सकते हैं। पर, अपने भूत में जीवन की तलाश अर्थहीन है। अनुमान में ज्ञान की संभावना होती है, तर्कों में नहीं। पर, किसी भी अनुमान के लिए व्याप्ति का होना अनिवार्य है। व्याप्ति के लिए प्रमाण लगते हैं। और इन प्रमाणों की सत्यता के लिए ही तर्कशास्त्र की ज़रूरत होती है। अर्थहीन होकर भी तर्क के बिना अनुमान का ज्ञान संभव नहीं है। ज्ञान के लिए अनुमान की अवधारणा को समझना बेहद ज़रूरी है। मैं ही नहीं यह इस लोकतंत्र का भी मानना है। तभी तो तर्कशास्त्र से कई प्रश्न लोकतंत्र विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं पूछता ही रहता है। पर, ना जाने क्यों लोकतंत्र इसे पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझता है। शायद! अनुशासित, आज्ञाकारी और सदाचारी नागरिकों पर शासन करना आसान पड़ता होगा। तभी तो अज्ञानता का इतना प्रचार-प्रसार लोकतंत्र ही करते रहता है। हमें लोकतंत्र के इस अत्याचार का प्रतिकार करना है। इस महाभारत में सत्य और अहिंसा ही हमारा हथियार बन सकता है। क्योंकि, यह महाभारत कहीं और नहीं हमारे अंदर ही चल रही है। यह अनुमान तो हमें लगाना ही पड़ेगा। इसलिए, अनुमान को समझना ज़रूरी है। यह समझ शायद एक नये शुभारंभ का शंखनाद कर पाये।

लोक-माया-तंत्र-जाल

देश में ना मौजूदा प्रशासन और ना ही वर्तमान राजनीति को लोक या जनता की ज़रूरत है। प्राइवेट सेक्टर को तो आपकी या मेरी, या हमारे बच्चों की कभी चिंता थी ही नहीं! इसलिए तो तंत्र तानाशाह बन गया है। इनकम टैक्स से लेकर टोल टैक्स तक सीधे जनता के खाते से तंत्र के खाते में पहुँच रहा है। इधर, इहलोक में शायद ही कोई बचा है, जो अपने बच्चे से भी प्यार करता है। फिर भी आपको लगता है कि लोकतंत्र बचा हुआ है, और उसे बचाने के लिए कुछ भी किया जा सकता है। तो मेरी तरफ़ से आप सबको हार्दिक शुभकामनाएँ!

कौशल भारत योजना

मैं सुन कर सकते में आ गया। २ घंटे में जो विद्यार्थी राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा देने जाने वाला है, वो मुझ ग़रीब से पूछ रहा है - क्या सवाल आयेगा और वो क्या जवाब देगी? मुझे ग़ुस्सा आ गया। मैंने बोला - “बहन! आप जाना, आँख बंद करना कोई एक ऑप्शन पर उँगली रखना और औका-बौक़ा तीन तड़ौक़ा कर लेना। कृपया आप नहा-धुआ के तैयार हो जायें। अगरबत्ती वग़ैरह जलायें, समय बचे तो थोड़ा होम-हवन या झाड़-फूंक करवा लें। मन को शांति मिलेगी। मुझ पर रहम करें। आपका वक़्त बहुत क़ीमती है।”

शार्टअप इंडिया

“अचचचचचच्छा। बहुत ही बढ़िया पिलान है आपका आऊ सरकारवा का हमका बुड़बक बनावे के ख़ातिर। पहिले १०,००० प्लस टैक्स ले कर आप काटोगे, फिर सरकार उसके बाद अलग से काटेगी, बड़का बाबू अलग दे माँगेगा अपना हिस्सा…” पता नहीं बीच में कब उसने कॉल काट दिया। हमारी तो बात ही अधूरी रह गई। पिछले २ दिनों से बज रहे राम-धुन की आवाज वापस ध्यान खींचने लगी - “हरे राम। हरे कृष्णा। कृष्णा-कृष्णा हरे-हरे….”

मनचले

कान और कंधे के बीच फ़ोन चिपकाए, सुरेशवा अपना मोटरसाइकिल ४० के स्पीड पर बिना हेलमेट चला जा रहा था। अचानक एक टेम्पो वाला साइड काटा, काहे की एक ठो पैसेंजर चिलाया - “रोको बे! अब का अपने घर ले के जावेगा!” पीछे से सुरेशवा ठुकते-ठुकते बचा। फ़ोन नीचे गिर गया था। स्मार्ट फ़ोन था, सुरेशवा का कलेजा धक से रह गया। बाइक छोड़ फ़ोन पर लपका। उसके पीछे से दु ठो हवलदार जो अभी तक बतियाते हुए आ रहे थे। दौड़ कर घटना स्थल पर पहुँचे। सुरेशवा फ़ोन उठा कर देख रहा था कहीं स्क्रीन फुट तो नहीं गया? पुलिस देख कर सोचा बाइक उठाने आ रहे होंगे। मदद करेंगे। दुनों आये, बाइकवा उठाया। सुरेशवा के मन में विचार आया कि धन्यवाद ज्ञापन कर दे। सो, गया और बोला - “धन्यवाद!”

संतोषम परम सुखम

संतोष का व्यावहारिक अर्थ है - जितना है उस पर नाज़ करो, अहंकार नहीं, उसके बाद ही अतिरिक्त की कामना करो। बिना कामना के कोई ज़रूरत नहीं होती! और बिना ज़रूरत के इंसान कोई काम नहीं करता!

गलती

यह घटना बहुत पुरानी है। मुश्किल से मैं तीसरी या चौथी कक्षा में पहुँचा था, उम्र ८-१० साल की रही होगी। स्कूल में छुट्टी गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थी। घर पर माँ नहीं थी। पिताजी मुझे पढ़ा रहे थे। अचानक उन्हें कुछ काम याद आया। उन्होंने कहा - “तुम पढ़ो, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।”

मैं आत्मनिर्भर बन गया!

प्राइवेट हॉस्पिटल की हालत सरकारी दफ़्तर जैसी होने लगी है, क्योंकि सरकारी दफ़्तरों पर तो सरकार ने ताला लगाने की ठान ही ली है। अब बने रहो आत्मनिर्भर। इसलिए पड़ोस से प्राइवेट कंपाउंडर को बुलाया और बेटी की हाथ में लगी पानी चढ़ाने वाली सुई निकलवा दी। मैं भी “आत्मनिर्भर” बन गया। पब्लिक सेक्टर से उदास हो कर प्राइवेट के पास गया। वहाँ से भी जब दुदकारा गया, तो मैं आत्मनिर्भर बन गया।