बहुत हुआ लोकतंत्र, अब लोगतंत्र की बारी!
जब रविश कुमार ने अपने विशेष संवाद में बंगाल में फैल रही धार्मिक हिंसा को केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित राजनीतिक अस्थिरता बताया, तो उस रिपोर्ट का अंतिम वाक्य — "सत्यानाश आ रहा है, इसे कोई नहीं रोक सकता।" — किसी शास्त्रीय त्रासदी की तरह गूंजता रहा। उसी क्षण, उस मौन में, एक आवाज उठी — "मैं रोकेगा, कोई मेरी बात सुन तो लो।"
पढ़ाई: स्मृति से सोच तक
|| राष्ट्रकवि दिनकर को एक विनम्र परंतु व्यंग्यबाणयुक्त पत्र ||
शब्द नतमस्तक हैं, पर व्याकरण इस समय थोड़ा बौखलाया हुआ है। आपके चरणों में यह पत्र इस आशा के साथ समर्पित है कि आप वहाँ स्वर्ग में भी किसी को धिक्कार रहे होंगे — किसी श्लोकविहीन मंत्री को, किसी भाषा-प्रेमी अफसर को, या फिर किसी ऐसे आलोचक को जिसने ‘हिंदी’ के नाम पर अपने ड्रॉइंग रूम की दीवारों को सजाया और दिल को कभी छुआ ही नहीं।
नजरिया: हम देखते कैसे हैं?
इस हिस्से में बताया गया है कि हमारी आँखें जो देखती हैं, वह वही नहीं होता जो हमारा मस्तिष्क ग्रहण करता है। Kanizsa triangle जैसे उदाहरण इस बात को सिद्ध करते हैं कि हमारा मस्तिष्क अधूरी जानकारी को भी पूर्ण रूप में देखने का आदी है। यह 'पैटर्न रेकग्निशन' ही है जो हमें हर वस्तु को एक अर्थपूर्ण संरचना के रूप में देखने को प्रेरित करती है।
किसकी परीक्षा?
छलांग
बहुत दिनों से मैंने कोई नई किताब या मूवी नहीं देखी। पिछली मूवी पुष्पा-२ देखी थी। कभी निराशा हुई। जिस तरह के प्रोपेगेंडा साहित्य से आज समाज घिरा है, शोर्ट वीडियो के जमाने में तीन घंटा निकाल पाना भी आज कहाँ संभव है? हद तो तब हो जाती है, जब चलचित्र देखकर जवानी सड़कों पर नंगा नाच करती नजर आती है। डर लगता है, कहाँ हैं वे स्वप्नकार जो हमारे बच्चों के साथ न्याय कर सकें?
काल्पनिक गुलामी या कल्पनाओं की गुलामी
Lost Beauty
A doctor listens to pain of his patient who is ever testing good patience. What’s satisfying is the sense of care and well being, which is rather hard to imagine. An engineer builds new tools that can empower human to dance and be merry. But lost in offices engineers have adopted a system so mechanical that they themselves are nothing more than cogs & nuts.
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